Friday, November 26, 2010

.....शहीद कभी मर नहीं सकते

आज मुंबई के ताज होटल पर हुए आतंकवादी हमले की दूसरी  बरसी है |
 पूरा देश नमन करता है उन शहीद जवानो का जिन्होंने देश की अस्मिता की सुरक्षा एवं देश के नागरिकों की प्राण-रक्षा में स्वयं का बलिदान दे दिया |
उन सीधे सादे निर्दोष नागरिकों को भी अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित है जो आतंकवादी हमले में असमय ही काल कवलित हो गए |
  ईश्वर २६/११/२००८  के हादसे में अमरत्व पानेवाले सभी शहीदों की आत्मा को परम शांति दे और उनके परिजनों को
असीम साहस प्रदान करे |
शहीदों का बलिदान कभी व्यर्थ नहीं जाता अपितु वह राष्ट्र निर्माण में  नींव की ईंट की तरह जुड़ जाता है |
जिन आतंकियों ने अकारण ये कहर बरपाया उनमे से एक 'अजमल कसाव'  को अब तक फाँसी नहीं हुयी, इसकी टीस हर हिन्दुस्तानी के दिल को कचोटती रहती है |
        ज्यादा कुछ कह पाने की मनःस्थिति नहीं , बस इतना ही ....
                  
                            राष्ट्र  पे  हमला हो ,  सहन   कर   नहीं  सकते |
                            बम से या गोलियों से भी वे डर नहीं सकते |
                            हर  दिल में   सदा   रहते  शूरवीर  की   तरह '
                            होते हैं  जो शहीद ,  कभी  मर   नहीं   सकते |
        
                                 जय हिंद !

Tuesday, November 23, 2010

गीत....अंधियारा जीता हूँ

इक सूनापन , इक सन्नाटा ,इक अँधियारा जीता हूँ |
भरा-भरा सा लगता जग को फिर भी रीता-रीता हूँ |
             सूरज की किरणें तो  थककर
             वापस  लौट  गयीं अपने  घर |
             शीतल स्निग्ध चांदनी भी तो
             कर न सकी उजियारा अंतर |
अमृत है , मदिरा कि हलाहल पीकर जिसको बहक रहा,
दहक  रहा  पर   जान  न   पाता  मरता हूँ  या   जीता हूँ |
              इक कोलाहल  सा  उठता है
              इक  तूफ़ान  भयंकर  आता |
              खो जाती सपनों की दुनिया
              एक सुहाना घर ढह    जाता |
चारों ओर  भीड़ है  लेकिन  एक  अकेला   पथराया सा ,
सूनी-सूनी   आँखों  से    बस    इक   सन्नाटा   पीता   हूँ   |
              स्मृतियाँ  भी नागफनी   सी
              उर के घावों  को   सहलातीं |
              चीर-चीर कर पीर ह्रदय की
              एक  अनोखा  सुख दे  जातीं |
लिपट-लिपट कर मैं भुजंग सा चन्दन की शीतलता चाहूँ
ताप    समेटे    उर   के   घावों     को     शब्दों   से    सीता हूँ |








Friday, November 19, 2010

--दर्द की छाँव में |

जिंदगी   दर्द   की  छाँव    में |
बस गयी  मौत  के गाँव में |
हर घड़ी सहमी-सहमी लगे ,
हैं   शिकारी   लगे  दाँव  में  |

आश की साँस चलती रही |
हर घड़ी मौत छलती रही |
नैन  सपने  सँजोते  रहे, पर -
ह्रदय    पीर     पलती   रही |

हर    सहारा    बहाना    बना |
स्वार्थ का   ताना-बाना  बना |
जितने मरहम लगे घाव पर ,
घाव    उतना   पुराना    बना |


Tuesday, November 16, 2010

देश वही हँस पाता है--(बाल दिवस-१४नव. पर)

उपवन   जैसे    सुंदर   लगता है  फूलों   की   क्यारी  से |
घर आँगन भी खिल उठता है बच्चों की किलकारी से  |
बच्चों   में   ही    मानवता  का    उच्चादर्श    पनपता  है |
देश वही हँस पाता है जिस देश का बचपन हँसता  है |

Wednesday, November 10, 2010

हरकीरत 'हीर'--नीर भरी दुःख की बदली

क्या कहूं ? कभी-कभी ऐसी मनःस्थिति हो जाती   है या यूं कहें कि रचना संसार में डूबते-उतराते कुछ ऐसे मुकाम मिल जाते हैं जहाँ मस्तिष्क स्थिर हो जाता है और ह्रदय में छुपा दर्द का सागर अचानक आंदोलित हो उठता है | यह सब अनायास ही नहीं होता बल्कि कहीं जब यही दर्द पन्नों पर बिखरा हुआ मिलता है तो आँखें स्वतः गीली होने लगती हैं | 
          मैं हरकीरत 'हीर' की रचनाओं को जब भी समय मिलता है जरूर पढता हूँ |       हर कविता दिल तक पहुँचती है | अभी दीवाली पर नवीनतम पोस्ट - छोटी-छोटी  क्षणिकाएं पढ़ी, स्वयं को सामान्य नहीं रख सका |
  प्रकृति के सुकुमार कवि पन्त जी की पंक्तियाँ ----
                          वियोगी होगा  पहला  कवि , आह से  उमगा   होगा   गान
                          निकलकर आँखों से चुपचाप , बही होगी कविता अनजान
चुपचाप आँखों से निकलकर ही तो बह रही हैं  'हीर' की कवितायेँ |
    महादेवी वर्मा का गीत ------
                        "   मैं नीर भरी दुःख की बदली
    परिचय इतना इतिहास यही उमड़ी थी कल मिट आज चली "
कितनी करीब दिखती हैं 'हीर' काव्य की इन परिभाषाओं के ! वियोग का इतना मर्मश्पर्सी चित्रण , दिमाग से नहीं दिल से ही संभव है |
मेरे शब्दों में -------
           दीनों के घर में   उजाला करे   चाहे   छोटा सा दीप   वही सविता है
           प्यासों  की प्यास   बुझाये सदा   भरा कीच   तलाव    वही  सरिता  है
           न्याय के संग चले जो सदा   न झुके जो  कभी  नर  सो  नर सा है
           कवि से कविताई न पूछो सखे उर की जो व्यथा है वही कविता है
ह्रदय की व्यथा को कागज के पन्नों पर यूं ही बिखेरती रहिये 'हीर' जी ! बहुत कुछ मिल रहा है हिंदी साहित्य को आप से ! ब्लॉगों का क्या ? बहुत कुछ लिखा-पढ़ा जा रहा है , मगर आप की भावनाएं एवं अनुभूतियाँ अनंतकाल तक काव्यरूप में सबके सामने अपनी उपस्थिति का एहसास दिलाती रहें , यही हमारी ईश्वर से प्रार्थना है |


Saturday, November 6, 2010

कहीं पर दिवाली-कहीं पर दिवाला

अँधेरे   का  चारों   तरफ    बोलबाला |
कहीं पर  दिवाली-कहीं पर दिवाला  |
     महंगाई   ने    है    कमर    तोड़   डाली
     गरीबों   की   थाली  है  रोटी  से  खाली
     है   भ्रष्टों  की   चांदी-दलालों   की चांदी 
     नेताओं ने भारत की लुटिया  डुबा दी 
घोटालों का खेल-कहीं खेल में घोटाला |
कहीं  पर  दिवाली - कहीं   पर  दिवाला |
     पंचों-प्रधानों     की    लीला    निराली
     इलेक्सन   में   सारी हदें   तोड़ डाली
     वोटर ने  भी खूब  जमकर   छकाया
     चला    दाम-दारू   औ   मुर्गा  उड़ाया
मगर वोट-नोटों की गड्डी में  डाला |
कहीं पर  दिवाली- कहीं पर   दिवाला |
     भाई की महफ़िल का क्या है   नज़ारा
     चल   जाती   है गोली    मिलते    इशारा
     जगमग    हवेली   भला  क्या    कमी है
     जुआ और इंग्लिश की महफ़िल जमी है
पुलिस-नेता-अफसर का संगम निराला  |
कहीं पर  दिवाली  -  कहीं   पर   दिवाला |
     मिलावट-मिठाई   है   याकि   जहर है
     चारों तरफ बस   कहर ही   कहर   है
     धरम-जाति-वर्गों में हम सब बँटे हैं
     कुर्सी के चक्कर में   बड़के    फँसे  हैं
शहीदों के  सपनों को  ही    बेंच   डाला |
कहीं पर दिवाली - कहीं पर दिवाला |
     देखो    गरीबी  में   आटा    है     गीला
     बिना रंग डाले ही   चेहरा  है   पीला
     समोखन के घर में न है  एक पाई
     लिया ब्याज पर तब  दिवाली मनाई
बताओ  भला है  कहाँ पर   उजाला  ?
कहीं पर दिवाली-कहीं पर दिवाला 

    

Thursday, November 4, 2010

शुभ दीपावली

अँधियारे का नाश हो घर-घर हो उँजियार |
जीवन ज्योतिर्मय करे  दीपों   का  त्यौहार |

       प्रकाशपर्व दीपावली की बहुत-बहुत शुभकामनायें !

Wednesday, November 3, 2010

--झोपड़ी जलाएगा ?

आती है दीवाली रंग लाती ज़माने में
सारा समाज क्या खुशियाँ मनाता है ?
कहीं पर चलते हैं व्हिस्की के हज़ारों पैग
सारा धन-वैभव सिर्फ जुए में ही जाता है 
साकी के नज़रों में डूब डूब प्यालों में
पीता है कोई  मौज-मस्ती मनाता है
ज़ख्मों की तरह जो उभरी हैं धरती पर
पूंछो  झोपड़ियों  से   कैसे  मनाएँगी  ?
मिलता नहीं मिटटी का खिलौना जहाँ बच्चों को
झोपड़ी  मिठाई के खिलौने कहाँ पायेगी ?
जलाने को शेष नहीं रहा पास जिसके कुछ
क्या वह दीवाली में झोपड़ी जलाएगा ?
जिन्दगी ही बन गयी होली-दिवाली जिसकी
कैसे बेचारा वह दीवाली मनायेगा ?
 

Monday, November 1, 2010

लड़ाई जारी है--

जीवन में संघर्ष करते-करते जब कभी हिम्मत हारने लगती है तो किसी महान व्यक्तित्व की प्रेरणा पुनः साहस जगा देती है | अगर न्याय की लड़ाई लड़ी जाये तो इसमें हार-जीत कोई विशेष मायने नहीं रखते मगर शर्त यह है कि इस लड़ाई में स्वार्थ हावी न हो | जनऔर समाज के हित के लिए किया गया संघर्ष कभी व्यर्थ नहीं जाता | मेरा तो सदा से यही उद्देश्य और विचार रहा है कि गाँव को लुटेरों के चंगुल से छुडाया जाये | गाँव से समाज और देश तक हावी भ्रष्टाचारियों और भ्रष्ट व्यवस्था के मकडजाल को नोच डाला जाये | यह लड़ाई किसी एक व्यक्ति की नहीं बल्कि सम्पूर्ण प्रबुद्ध वर्ग की है | इस लड़ाई को तभी जीता जा सकता है जब आम अल्पशिक्षित-अशिक्षित जनता को उसके अधिकारों एवं कर्तव्यों के प्रति जागरूक करने का अनवरत अभियान चलाया जाये | यह हमारे गावों  का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि हमारे युवाओं में से ७० प्रतिशत तक शराब व अन्य नशाओं के आदी  हो चुके है | जिनसे गाँव के , समाज के ,देश के उत्थान की उम्मीद थी उन्हें नशे की भट्ठी में झोंककर भ्रष्टाचार का हथियार बनाया जा रहा है | गाँव-समाज का प्रबुद्ध वर्ग या तो मौन होकर मात्र  अपने तक सीमित होकर रह गया है या भ्रष्टाचार का ही   अंग बन गया है | ऐसे में परिवर्तन कहाँ संभव है ? दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियाँ यही तो कहतीं हैं--
        "  माना  मेरे   दिल में नहीं   आपके    दिल में सही
          हो किसी भी दिल में लेकिन आग जलनी चाहिए "
खैर मुझे तो एक महान व्यक्तित्व श्री अटल बिहारी बाजपेयी जो ४० वर्षों तक विपक्ष में रहे और मात्र ६ वर्षों तक सत्ता में ,की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ सदैव प्रेरणा देती रही हैं ----

                     गीत नया गाता हूँ
टूटी   हुई   वीणा    से फूटे    बासंती    सुर|
पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर|
  झरे सब पीले पात , कोयल की  कुहुक रात,
  प्राची में    अरुणिमा   की   रेख देख  पाता हूँ | गीत नया गाता हूँ
टूटे हुए सपनों   की  सुनी नहीं    सिसकी |
अंतर की व्यथा-कथा अधरों पर ठिठकी |
  हार नहीं  मानूंगा , रार  नहीं   ठानूंगा ,
  काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूँ |  गीत नया गाता हूँ