Thursday, December 30, 2010

कुछ ऐसा हो जाये नए साल में

(हम किसी शुभ अवसर,शुभ आरम्भ या नववर्ष पर एक दूसरे को हार्दिक शुभकामनायें  सदा से देते चले आ रहे हैं | इस परंपरा में 'सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः' की सर्वकल्याण भावना निहित है ,जो हमारी भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है | हम दूसरों के दुःख में दुखी हों और दूसरों के सुख में सुखी- न कि ईर्ष्या करें | हम व्यक्ति , समाज और देश के उत्थान एवं मंगलमय भविष्य की कामना ही कर सकते हैं|क्या घटित होता है -शुभ अथवा अशुभ ? इस पर अपना बस कहाँ ! फिर भी हम तो यही कामना करेंगे कि सब कुछ अच्छा ही हो आनेवाले नए साल में !)

कुछ ऐसा हो जाये नए साल में | हर प्राणी  सुख पाये  नए साल में
               छंटे अँधेरा मिटे  उदासी
               हर आँगन हो पूरनमासी
सूरज सोन लुटाये नए साल में | नया  सवेरा   आये   नए साल  में
               मिटे घोटालों का घनचक्कर
               सत्यनिष्ठ हों  नेता , अफसर
भ्रष्टाचार लजाये नए साल में | रिश्वत  शरण   न  पाए  नए  साल में
               जीवित रहे न कोई दरिंदा
               इंसानियत न हो  शर्मिंदा
बिटिया कालेज जाये नए साल में | कुशल से वापस आये नए साल में
               अख़बारों की खबर हो अच्छी
               खबर- लूट , हत्या , दहेज़ की
छपकर कभी न आये नए साल में | सद्साहित्य समाये  नए साल में
               बहे ज्ञान-विज्ञान की गंगा
               मान और सम्मान तिरंगा
गगन तलक लहराए नए साल में | देश की शान  बढ़ाये  नए साल में

  




Monday, December 27, 2010

कह झंझट झन्नाय...

                   दो कुण्डलियाँ 
  ' राजा ' ने   तो   कर   दिया   दूर   दूर  संचार |
  करूणानिधि का हाथ है फिर क्या सोच-विचार |
  फिर क्या सोच-विचार शिष्य का धर्म निभाया |
  लूट-पाट   कर  देश  गुरू  के   चरण   चढ़ाया |
मनमोहन,सोनिया जाएँ तो कहाँ को कहाँ को जाएँ ?
भ्रष्टाचार   मिटायें    कि    अब    सरकार   चलायें ?

  घोटालों  का  दौर है  घपलों  की  भरमार |
  हर कुर्सी पर जमे हैं   रंगे   हुए    सियार |
  रंगे  हुए   सियार  इन्हें  अब  कौन उतारे ?
  कौन है ऐसा गधा   दुलत्ती  खींच  के मारे ?
कह   झंझट   झन्नाय   सुनो  हे   भारतवासी |
देश  बन   गया   बेईमानी  का ,  काबा-काशी |

Tuesday, December 21, 2010

एक पर्वत हिला के देखेंगे

स्वयं  को   आजमा   के   देखेंगे |
एक   पर्वत   हिला    के    देखेंगे |
सुना, जालिम है बड़ा  ताकतवर,
चलो   पंजा    लड़ा   के   देखेंगे |
चाँद तारों की सजी महफ़िल में,
एक   सूरज  उगा    के    देखेंगे |
आग  बस आग की  जरूरत है,
चाँदनी    में    नहा  के   देखेंगे |
हारकर बैठना आदत  में नहीं ,
जंग   आगे   बढ़ा   के    देखेंगे |
भग्न मंदिर के इस कंगूरे पर,
एक   दीपक  जला  के  देखेंगे |
रात मावस की बड़ी काली है ,
एक  जुगनू   उड़ा    के   देखेंगे |


Saturday, December 18, 2010

अमर शहीद लाहिड़ी जी के ८४वें बलिदान दिवस(१७ दिस.२०१०) पर....

आज  अमर शहीद  राजेंद्र नाथ लाहिड़ी का ८४वाँ बलिदान दिवस है | इस जांबाज  स्वतंत्रता संग्राम  सेनानी को मात्र  २६ वर्ष की अल्पायु  में  १७ दिसंबर १९२७ को गोंडा (उ. प्र.) जेल में  फाँसी दे दी गयी  थी | जुर्म था--आज़ादी की लड़ाई में हथियारों की खरीद के लिए काकोरी रेलवे स्टेसन पर ट्रेन रोककर सरकारी खजाना लूटना | 
             अंग्रेजों से लड़ी जानेवाली  लड़ाई को और मजबूती देने के उद्देश्य से क्रांतिकारियों की बैठक में निश्चित किया गया कि ब्रिटिश  माउजर खरीद के लिए धन की व्यवस्था सरकारी खजाना लूटकर किया जाये | इसे अंजाम दिया गया | इसमें शामिल क्रन्तिकारी थे --पं. राम प्रसाद 'बिस्मिल' , ठाकुर रोशन सिंह , नवाब अशफाक उल्ला खां , और राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी | लखनऊ के वर्तमान जी पी ओ भवन की अदालत में जज हेल्टन द्वारा इन चारों क्रांतिकारियों को फाँसी की सजा सुनाई गयी | राजेद्र नाथ लाहिड़ी को गोंडा जेल भेज दिया गया , जहाँ १७ सितम्बर १९२७ को इन्हें फाँसी दे दी गयी |
            लाहिड़ी जी का जन्म ३० जून १९०१ को वर्तमान बांगलादेश के  जनपद-पावना के मोहनपुर गाँव में हुआ था | इनके पिताजी का नाम श्री  क्षिति मोहन लाहिड़ी एवं माताजी का नाम श्रीमती बसंत कुमारी था | प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय स्तर पर प्राप्त करने के उपरांत लाहिड़ीजी ने  उच्च शिक्षा के लिए काशी विद्यापीठ बनारस में प्रवेश लिया | यहाँ इनको क्रांति भक्त सान्याल साहब का सानिद्ध्य मिला और ये रिपब्लिकन पार्टी के जांबाज सिपाही बन गए | यहीं से लाहिड़ीजी का संपर्क चन्द्र शेखर आज़ाद ,सरदार भगत सिंह ,ठाकुर रोशन सिंह ,पंडित राम प्रसाद बिस्मिल ,नवाब असफाक उल्ला खां  सरीखे  अन्य  देशभक्त  क्रांतिकारियों से बना और आज़ादी की लड़ाई में पूरी तरह कूद पड़े | लाहिड़ी जी सबसे कम उम्र के थे |
         पहले फाँसी की तारीख़ १९ दिसंबर १९२७ नियत की गयी थी | चन्द्र शेखर आजाद जी १५ दिसंबर १९२७ को गोंडा आकर गाँधी पार्क की झाड़ियों में छिप गए थे  | उन्होंने गोंडा के क्रातिकारियों के साथ बैठक कर लाहिड़ी जी को गोंडा जेल से निकालने की योजना बनाई |गोंडा जेल के चारों तरफ खेत थे | बगल लगभग ३०० मी .की दूरी पर मौजूद अरहर के खेत से जेल के अन्दर तक एक सुरंग खोदकर लाहिड़ी जी को जेल से मुक्त कराने की योजना पर अमल किया ही जाना था कि सभा में मौजूद एक गद्दार ने इसकी सूचना पुलिस अधीक्षक को दे दी |फिर क्या था , अंग्रेज अफसरों ने नियत तिथि से दो दिन पूर्व ही १७ दिसंबर १९२७ को फाँसी दिए जाने का आदेश दे दिया |  
      फाँसी दिए जाने से पूर्व लाहिड़ी जी ने गीता  का पाठ किया , कसरत की | जेलर के यह  पूंछने पर कि जिस शरीर को फाँसी मिलनी  है , कसरत करके उसे और मजबूत करने का क्या मतलब है ?, लाहिड़ी जी ने जवाब दिया ,'मैं मरने नहीं जा रहा हूँ बल्कि आजाद भारत में पुनः जन्म लेने जा रहा  हूँ |' उन्होंने गोंडा की जनता से अपील किया कि फाँसी के समय जब वे 'वन्दे मातरम' का उदघोष करें तो इसका जवाब जेल के बाहर चारों तरफ से मिले | वही हुआ भी ! भारी सुरक्षा व्यवस्था होते हुए भी जेल-दीवार के चारों ओर के खेतों में हजारों देशभक्त एवं क्रन्तिकारी योद्धा रात से ही खेतों में छुपे प्रातः ४ बजे का इंतजार करते रहे | प्रातः ४ बजे इस आज़ादी के वीर सिपाही के गले में जब फाँसी का फंदा डाला गया तो 'वन्दे मातरम' की हुंकार अंतिम आवाज़ बनकर निकली जिसके जवाब में बाहर से हजारों कंठों ने 'वन्दे मातरम' उदघोष के साथ इस अमर शहीद को अंतिम सलामी दी | आज भी जेल के अन्दर उनका बलिदान-स्थल और  बाहर कुछ दूरी पर उनकी पवित्र समाधि मौजूद है |प्रति वर्ष  जनपदवासी उनके अमर बलिदान को याद करके उनकी समाधि पर श्रद्धा सुमन चढाते हैं ----

            देश की खातिर ही जीना था देश की खातिर मरना था |
            किसी  भी तरह   भारतमाता    की   पीड़ा   को हरना था |
            एक जुनूँ ,उन्माद एक-आजाद   हो   अपना  प्यारा वतन ,
            आज़ादी   की    बलिवेदी   पर    हँसते-हँसते   चढ़ना   था |

           कीड़ों और मकोड़ों जैसा जीवन क्या सौ साल जियें ?
           कायर बनकर करें गुलामी अपमानों का जहर पियें |
           इससे अच्छा स्वाभिमान से देश का मस्तक ऊँचा हो,
          रहें सिंह की तरह शान से, चाहे साल- दो साल जियें |

         छब्बीस साल उम्र होती है सिर्फ खेलने -खाने की |
         पढ़ने-लिखने की होती है या धन-धाम बनाने की |
         मगर लाहिड़ी जैसे भारत माँ के अमर सपूतों की ,
         छब्बीस साल उम्र होती है फाँसी पर चढ़ जाने की |

       आज  शहीदों के  सपनों  को   तोड़   रहे   हैं   लोग |
       भारतमाता  की   किस्मत   को  फोड़  रहे  हैं  लोग |
      अमर शहीदों ने जिस पर कुर्बान ज़वानी कर डाली,
      अपने  उसी  वतन  का लहू   निचोड़  रहे  हैं  लोग |

Tuesday, December 14, 2010

बाँसुरी और तबला

मन की बाँसुरी से
नहीं निकलती
अब सुरीली तान..
तन के तबले की
थाप भी  
करती है भांय-भांय..
लगता है शायद
टूटने लगी है
बांसुरी की साँस
और
तबले पर मढ़ा चाम
ढीला पड रहा है..

तितली और भंवरा

खिले फूल पर
बैठी तितली
बड़ी देर से
नहीं उड़ी..
लगता है
किसी बदजात भँवरे ने
उसके
सुनहले परों को
कहीं से नोच दिया है..


गुलाब और कमल

देवता के शीश  पर
चढ़ा गुलाब 
बगल में पड़े हुए  
कमल से बोला ,
'मेरी जैसी सुन्दरता तुझमे कहाँ ?
काँटों में रहकर भी खिला हूँ ,
मैं हर पल
मुस्कुराने का सिलसिला हूँ |'
कमल बोला,'क्यों शेखी बघारता है ?
डींगें मारता है
लान के गमलों में खिलने वाले
तू विस्तार क्या जाने ?
मौसम की मार क्या जाने ?
तूने पहले कांटे उगाये हैं
फिर फूल आये हैं
मैंने कीचड़ में जन्म लिया
फिर भी उसमे नहीं सना
अथाह सरोवर की गहराई नापकर
सर्वोच्च सतह पर आकर
पूरे मन से खिला हूँ ,
मैं जिंदगी जीने की कला हूँ |'


Friday, December 10, 2010

महँगाई

  सब्जी..
 नखरीली प्रेमिका की तरह
इठलाती है..
निगाहों के पास मगर
पहुँच से दूर ...
हम देखते हैं घूर-घूर ..
टमाटर गालों की लाली
गोभी का फूल हँसी निराली
धनिया की महक
छूने को मन करता है..
मगर वह दूर हट जाती है
मेरी जेबों को टटोलकर
बड़ी अदा से कहती है..
'इंतजार में बड़ा मज़ा है
जल्दबाजी में न आना
दूर से ही देखते रहना
मगर हाथ मत लगाना'..



Wednesday, December 8, 2010

धिक् साखी सामंत की..

धिक्  साखी सामंत की , धिक् बोलो !
        मुहफट लज्जारहित सयानी
       लटक-झटक नखरही गुमानी
       जहरबुझी  जिह्वा  जगजानी
चैनलिया इन्साफ के जरिये
किसी के   जीवन अंत  की , धिक् बोलो
      टी आर पी   बढ़ानेवाली
     असभ्यता सरसाने वाली
     संस्कृती  झरसाने वाली
काली-अंग्रेजियत नमूना
मीका-कथा  अनंत  की , धिक् बोलो
  तड़क-भड़क कतरन की गुडिया
   सेक्स उभारक     जादू पुड़िया
   नज़र-नज़ारा  नजरी कुडिया
चुना स्वयं वर ठोकर मारी 
टी वी    वाले     कंत    की , धिक् बोलो 
  बड़बोली   आईटम    धमाका 
  डाले रोज   इमोशनल   डाका 
  क्या होगा अब देश का काका ?
नारी की गौरव-गरिमा में 
घोल रही  छल-छंद   की  , धिक् बोलो

Monday, December 6, 2010

'सरकारी वाहन '...'फ़िल्मी दुनिया'...'विधायकी चिंता'


   सरकारी वाहन
साहब तो विभाग में घुसते ही
भ्रष्टाचार  की दुहिता
राजकुमारी रिश्वतसंहिता से
मैरेज कर चुके हैं 
और सरकारी वाहन- 
दहेज़ में पा चुके हैं !       
         फ़िल्मी दुनिया
आजकल -
फ़िल्मी दुनिया के पीछे 
सारी दुनिया चल रही है |
गाँव की भोली-भाली-
फुलमतिया भी 
मल्लिका शेरावत 
बन रही है |
     विधायकी चिंता
ये सर की करें  चिंता  या कार  की करें |
या   बीहड़ों   में  बैठे   सरदार   की  करें |
झंझट ये हैं विधायक ,मजबूरियां भी हैं ,
चिन्ता करें तुम्हारी या घर-बार की करें | 


Wednesday, December 1, 2010

चौराहे पर खड़ा कबीरा.......

चौराहे पर खड़ा कबीरा अलख जगाए रे |
सारी दुनिया पागल समझे हँसी उड़ाए रे |
       राम-रहीम    नाम   पर    ठेकेदारी   होती  है |
       बेबस  इंसानियत तो सौ-सौ   आंसू  रोती है |
       नफरत की पौधें रोपी  जातीं निर्मल  मन में ,
       मात्र स्वार्थ की इस समाज में खेती होती है |
ढाई आखर हलक में जैसे डंक चुभाए रे |
सारी दुनिया पागल समझे हँसी उड़ाए रे |
       देशप्रेम   की  ढोल पीटते  जाफ़र औ जैचंद |
       गद्दारों ने देश की पूँजी किया  बैंक में बंद |
       उजले कपड़ों में काले दिलवाले   हैं अगुआ ,
       भांडों की चाँदी, भूषण के मूक हो रहे छंद |
'वीरों का कैसा बसंत ?' कोई याद दिलाए रे |
सारी   दुनिया  पागल  समझे   हँसी   उड़ाए रे |
       लोकतंत्र   घायल  वोटों  के   चक्कर-मक्कर  में |
       देश दाँव पर लगा है बस कुर्सी के चक्कर में |
       नैतिकता  का   दामन    चिंदी-चिंदी   है    देखो  ,
       खिंची   हुई   तलवारें   घोटालों    के  चक्कर में | 
'चारा' तो कोई  ताजमहल  की ईंट  चबाए रे  |
सारी   दुनिया   पागल समझे  हँसी  उड़ाए रे   |  
       नेता-पुलिस-माफियाओं   के   पक्के   रिश्ते हैं  |
       इनकी  चक्की में  गरीब-बेबस ही  पिसते हैं  |
       ऊँची  कुर्सी  मिलती   है   गुंडों-दादाओं    को  ,
       निर्दोषों   पर  ही कानून   शिकंजे   कसते   हैं |
रामराज  में  भी   सीता  निर्वासन पाए रे |
सारी दुनिया पागल समझे हँसी  उड़ाए रे |
       ट्राफिक-पुलिस भरी सड़कों पर हफ्ता करे वसूल |
       डंडों   के  बल   चलता   थानों   का  अंग्रेजी- रूल  |
       नेताओं    के   चमचों   की     ही   दखलंदाजी   से ,
       जंगलराज   रहा   है    देखो    सरेआम   फल-फूल |
सत्तालोभी  , आदर्शों  की   ढोल  बजाएँ  रे |
सारी दुनिया पागल समझे  हँसी  उड़ाए रे |
       वोटों के सौदागर सब कुछ जानके हैं अनजान |
       इक दूजे पर कीचड़ फेंकें   कितने   हुए   महान !
       जनता तो मुहरा है , इनको  कुर्सी हासिल   हो -
       फिर तो देश रहे या जाये याकि   बने  शमसान |
कोई    इनके   हाथों  में   दर्पण   पकड़ाए  रे | 
इनका असली चेहरा तो इनको दिखलाये रे |
             चौराहे पर खड़ा कबीरा अलख जगाए रे |
             सारी दुनिया पागल समझे हँसी उड़ाए रे |