Saturday, December 31, 2011

हर प्राणी सुख पाए नए साल में

कुछ ऐसा हो जाए  नए साल में |
मानवता मुस्काये  नए साल में |
भूखा कोई न सोये, इंसान  यहाँ ,
हर प्राणी सुख पाए नए साल में |
....   ......    ......   ......   ......  .....
नव वर्ष की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनायें .......

Friday, December 16, 2011

तीर से ना कमान से पूँछव

                      अवधी-गीतिका 

पूँछा चाहव  तौ शान से पूँछव |
देश  के   हुक्मरान   से पूँछव |

राजा  अन्दर-चिदंबरम बाहर,
चाल ! हाई कमान  से  पूँछव |

देश  माँ  बेईमानी  केतनी  है ?
पहिले अपने ईमान से पूँछव |

घाव पायन तौ सिर्फ अपनेन से,
तीर  से  ना  कमान   से  पूँछव |

देशभक्ती कै  काव मतलब है,
कौनों सीमप जवान से पूँछव |

तीर   कैसन  लगा  करेजे मा ,
कामिनी  के कमान से पूँछव |

हारे   नेता  कै  हाल   कैसन  है,
कौनौ कूकुर -किरान से पूँछव |

Thursday, December 1, 2011

(रिपोस्ट ..यह लघुलेख फरवरी २०११ में पोस्ट किया था | मन की आवाज़ पर पुनः पोस्ट कर रहा हूँ |)


लोकतंत्र को निगल गया भ्रष्टाचार का अजगर ..

हाँ ! मैं देख रहा हूँ | क्या आपने नहीं देखा ? आप भी देख रहे हैं | हम सब देख रहे हैं , मगर तमाशबीन की तरह | कुछ करना  भी चाहें तो क्या करें ? सिर्फ हो-हल्ला ही तो मचा सकते हैं | मचा भी रहे हैं मगर कोई असर नहीं |
हाँ , तो हम सबने देखा - काफी समय पहले से जिस भ्रष्टाचार के भीमकाय भयंकर अजगर ने  देश के लोकतंत्र को निगलना शुरू किया था , अब पूरा का पूरा निगल गया - सिर से पाँव तक ! लोकतंत्र अब अजगर के पेट में है | वह अजगर की आँखों से ही थोडा-बहुत बाहर देख लेता है , उसी की साँस पर जिन्दा है ,बाहर आने को छटपटाता है | अजगर के पेट में फँसा बेचारा हाथ-पाँव मारता है मगर दूसरे ही पल आँखें मूँद लेता है | एक आम आदमी की तरह मौत से जूझ रहा है - बेचारा बेबस लोकतंत्र ! लगता है कि अब जान गई कि तब , पर दूसरे ही क्षण वह फिर हरकत में आ जाता है | मृतप्राय है पर जिजीविषा बाकी है |
     क्या कोई चमत्कार होगा ? कोई मसीहा आएगा इसे बचाने ? कौन फाड़ेगा अजगर का पेट ? पेट फाड़कर लकवाग्रस्त हो चुके लोकतंत्र को बड़ी सावधानी से बाहर निकालेगा,उसके क्षतिग्रस्त अंगों की मरहम-पट्टी  करेगा , खुली हवा में बाहर घुमायेगा | धीरे-धीरे घायल लोकतंत्र स्वस्थ हो जायेगा | तब वह बेचारा नहीं रहेगा  |
अगर फिर कभी अजगर  उसे दुबारा निगलने का प्रयास करेगा तो वह अपनी चारों बलिष्ठ भुजाओं से उसके जबड़ों को पकड़कर फाड़ देगा | भ्रष्टाचार का अजगर हमेशा-हमेशा के लिए ख़त्म हो जायेगा | लोकतंत्र की घर-गृहस्थी फिर से बसेगी, उसके आँगन में बच्चों की किलकारियाँ गूँजेगी और वह बड़ी शान से सीना चौड़ा करके पूरे संसार को अपनी बलिष्ठता और स्वतंत्रता की चुनौती  देगा |

Friday, November 18, 2011

चल मेरे मीत नदी-तीर चलें

संग-सँग  राँझा  चलें , हीर  चलें |
चल  मेरे  मीत   नदी -तीर चलें |

चलें कुंजों की घनी छावों में |
प्यार  के  रंग  भरे गाँवों  में |
मस्त भँवरे हैं, गुनगुनाते हैं |
रस में डूबे हैं , गीत  गाते हैं |

दिल की तनहाइयों को चीर, चलें |

समां   बसंत   की   सुहानी है |
जहाँ    महकती   रातरानी है |
चाँदनी धरा-तल पे बिखरी है |
रूप  की  धवलपरी   उतरी है |

ऐसे में मन को कहाँ धीर ? चलें |

परिंदे    प्रेम-धुन     सुनाते हैं |
सैकड़ों    तारे     मुस्कराते हैं |
लताएँ    झूम-झूम   जाती हैं |
डालियाँ   चूम-चूम   जाती हैं |

प्यार  के  डोर बंधी पीर, चलें |

सिर्फ हरियाली ही हरियाली है |
हाय,  कैसी   छटा   निराली है !
कोई   बंदिश  है  ना  बहाना है |
एक   दूजे   में    डूब   जाना है |

आज हम तोड़ के जंजीर चलें |

Wednesday, November 2, 2011

प्यास तो सिर्फ प्यास होती है

जिंदगी   जब    उदास  होती  है |
तू    मेरे   आस-पास    होती  है |
बुझ गई गर  तो प्यास ही कैसी , 
प्यास तो   सिर्फ प्यास  होती है |

तू जहाँ पर थी वहीँ , पदचिन्ह  तेरे  ढूंढता हूँ |
तू गयी पर मैं तेरी,यादों से तुझको पूंछता हूँ |

एक  ज़माना  पहले  जैसी, अब  भी  लगती हो |
आँखों  ही  आँखों  में   बातें,  करती   लगती हो |
चाल वही-मुस्कान वही- नज़रों  का  बाँकापन ,
उम्र न कुछ कर सकी,उम्र को ठगती लगती हो | 


Sunday, October 16, 2011

.....हे मातृ-भू करुणाकरा !

तम- नाश करने के लिए, कुछ कर दिखाना है हमें |
आलोक  भरने  के   लिए,  दीपक  जलाना   है हमें |
हो   देश  का  कोना  कोई,  रोता   जहां   इंसान  हो |
दुर्भिक्ष  का  तांडव  हो या  घायल हुआ सम्मान हो |

निबलों पे अत्याचार हो, या  भ्रष्टता का  भार हो |
या विषधरों के अंक में, चन्दन का घर-संसार हो |
सारे  दुखों के अंत हित,  धनु-शर  उठाना  है हमें |
रोते  हुए  हर मनुज को, फिर  से  हँसाना  है हमें |

फन-धारियों ने डँस लिया,सरसब्ज़ हिन्दुस्तान को |
वे  कर  रहे  नीलाम हैं अब, मुल्क  के  सम्मान को |
घनघोर  जंगल-राज  जब , छाई  घटा  काली  यहाँ |
फिर,कौन  सा  आलोक ? कैसा पर्व ? दीवाली कहाँ ?

हम सब मनुजता की कसौटी,पर चलो खुद को कसें |
इक  बार  अपनी  सभ्यता पर, ठह-ठहा करके  हँसें |
हर वर्ष क्या  रावण  जलाने ,से कलुष मिट जाएगा ?
याकि  फिर  दीपक जलाने से, तमस  कट  जाएगा ?

बस इसलिए अनुरोध है,पहले  स्वयं  में झाँक लें |
आगे बढ़ें,फिर इस अँधेरे, की भी ताकत आँक लें |
फिर  दीप  घर-घर  में जलाने, के लिए आगे बढ़ें |
हर  अधर  पर  मुस्कान  लाने, के लिए आगे बढ़ें |

आओ कि हम  संकल्प लें, घनघोर तम  विनशायेंगे | 
संसार  में  सुख-शांति  का, आलोक   हम   फैलायेंगे |
अपना वतन,अपना चमन,अपना गगन,अपनी धरा |
सब कुछ  समर्पित है  तुझे,  हे  मातृ-भू  करूणाकरा |


Saturday, October 1, 2011

...आ जा सिंहवाहिनी

आदिशक्ति   जगजानकी   तू   है   त्रिकाल-रूप ;
सदा   तू   समाज  में , रही  है   मातु    दाहिनी | 
शक्ति  के  समेत  विष्णु, ब्रह्म, हे पुरारि !  मातु-
काली,    हे   कराल रूप !     पाप-ताप दाहिनी  |
साजि दे समाज , मातु ! कवियों की भावना भी ;
करि    दे    अभय ,   पाहिमाम !  विश्व पाहिनी |
मातु  हंसवाहिनी, तू   आ  जा  रे  बजाती  बीन ;
सिंह   पे   सवार   मातु    आ   जा  सिंहवाहिनी |

प्रेरत   ही   मधु-कैटभ  मारन,  भार   उतारन   श्रीहरि  जागे |
मातु भवानी- सुरूप विशाल, लखे   जमदूत कराल   हु  भागे |
जोग औ भोग तिहूँ पुर कै सुख, देति  जे  पुत्रन को बिन मांगे |
माई कै आँचल छोडि 'सुरेन्द्र', न हाथ पसारिहौं आन के आगे |

जाकी कृपा विधि सृष्टि रचैं, हरि पालैं, विनाश करैं त्रिपुरारी |
वाणी स्वरूप धरे जगती, शुचि बुद्धि विवेकमयी  अधिकारी |
सीता बनीं सँग राघव के, अघपुंज- दशानन  कै  कुल  तारी |
लाल बेहाल 'सुरेन्द्र', भला जननी सम को जग में हितकारी

        माँ की तामस पूजा.... अनुचित 

जगजननी   जो   पालती   हैं   जग, जीव सब ,
किसी   असहाय   का , वो   रक्त   नहीं  चाहतीं |
जिन्हें करि ध्यान,लेत साधक सुज्ञान-ज्योति ,
सुरा    ज्ञाननाशिनी   पे ,  कृपा   नहीं   वारतीं |
सत-चित-आनंद    की  ,  तेजयुत   रूप-राशि ,
तामस -  आचारियों  को,  भव    न    उबारतीं |
अरे नर ! त्यागि   दे  कुपंथ,  सत्य   पंथ   धर ,
आदिशक्ति  मातु आज,  क्रोध    में    पुकारतीं  |

चाहता है गर, जग-जननी  प्रसन्न हों तो ,
बलि नाम पर, तू  क्यों  पशु  है  चढ़ा रहा ? 
अरे  मूढ़ ! करि बदनाम, तू उपासना  को ,
मतिमंद !  मदिरा  का , ढेर   ढरका   रहा ?
तामस आहार औ विचार सों, विहार  करि,
नाहक में सिद्धि का, क्यों ढोंग है  रचा रहा ?
स्वयं तो बिगाड़ता है , लोक-परलोक सब,
दूसरों को, पापी ! पथ  नाश का दिखा रहा |

होतीं जो प्रसन्न मातु, मदिरा चढाने से तो ,
सुरासेवियों  पे  ही  वो, तीनों  लोक वारतीं |
दुराचारियों  के  भ्रष्ट-पंथ पे  जो रीझतीं तो ,
तामसी- तमीचरों   के,  कुल  न  उजारतीं |
अरे  मूढ़ !  ढूंढता  है, कहाँ जगजननी  को ,
होता  गर  ऐसा  तो, सुधर्म   न   संवारतीं |
धारतीं  न भूल के, कभी  भी नरमुंड-माल ,
काली  सदा  बकरे  का,  मुंडमाल   धारतीं |

पर-उपकार   के   सरिस  नहिं  महापुण्य, 
नहिं   महापाप  पर-पीड़ा   के   समान है |
जीवों  पर  दया कर, चले  सत्य पंथ  नर ,
एक ही अहिंसा,कोटि-यज्ञ  की ऊंचान  है |
प्रेम सों रिझाइ के, लगाइ  के लगन, तन-
मन-धन    अर्पण,  पूजा   का  विधान है |
माँ ने जो कहा है, सोई कहत सुरेन्द्र,बलि-
पशु  की  चढ़ाना, जननी  का  अपमान है |

रो रहे जो मातु के, अभागे लाल झोपडी में,
गले   से  लगाके  मीत,  उनको   हँसाइ  दे | 
देश  में  घुसे है  जो,  लुटेरे  बक-वेश धारी,
क्रान्ति की मशाल बारि, देश से  भगाइ  दे |
गर  वो  उजाड़ते  हैं, तेरी  फूस  झोपडी तो,
तू  भी  दस-मंजिले  में, आग   धधकाइ  दे |
बलि चाहती हैं तो, समाज के निशाचरों का,
शीश काटि-काटि आज, काली को चढाइ दे |

जगजननी  सों  बँधी, जब  से   सनेह  डोर,
जगी  प्रेम-ज्योति, घनघोरिनी  अमां गयो |
एक   रूप-मातु, हर  रूप   में   दिखाई  पड़े ,
सोई  घनश्याम, सोई  राम  औ  रमा  भयो |
कामदास को मिली,प्रतीति भक्ति भावना में,
प्रेम  का  अथाह   धन, पल   में  कमा  गयो |
तात-मात-भ्रात  सोई, मेरो  सब  नात सोई,
पद   जलजात   सोई,  उर   में   समां   गयो | 







Wednesday, September 14, 2011

अपने भारतवर्ष की पहचान है हिंदी

अपने     भारतवर्ष      की     पहचान    है    हिंदी |
गौरव है ,   गरिमा  है ,    हिन्दुस्तान    है    हिंदी | 


तुलसी    की   चौपाई   और  कबीरा    की   साखी ,
सूर - श्याम   की   मनमोहक   मुस्कान  है  हिंदी |


जायसी   के  'पद्मावत' में  यह  ' नागमती की पीर'
प्रेम   दिवानी   मीरा    का    'विषपान'    है   हिंदी |


केशव  का  पांडित्य   और   रसलीन  की  रसधारा,
श्याम  रंग   में   रँगी    'भक्त  रसखान'   है    हिंदी |


खुसरो   की   मुंहबोली ,  नूरमुहम्मद   की   प्यारी,
रहिमन   के   मन   बसी -  रसीली  तान  है  हिंदी |


भूषण   की   ललकार ,  सुभद्रा   की   'झांसी वाली',
कभी   शब्द    तो   कभी   शब्द -संधान   है   हिंदी |


महाप्राण    की   ' पथ  पर - पत्थर तोड़ रही  बाला ' ,
दादू   औ   रैदास    का   'हरिगुण गान'    है    हिंदी |


दिनकर  की ' हुंकार '  बिहारी  की ' नावक  के  तीर '
नीर  भरी   दुःख   की  बदली   अनजान   है    हिंदी  |


नागर - 'खंजन  नयन ' यही  बच्चन  की  मधुशाला ,
घनानंद    की   ' आँगन   खड़ी   सुजान '   है    हिंदी  |


भोजपुरी,  अवधी, ब्रजभाषा , मैथिलि  का लालित्य ,
माँ   के   आँचल    जैसी  -  ममतावान   है      हिंदी  |


आओ   करें   प्रणाम   मातृभू    की  इस  ममता  को ,
भारत  और   भारती     का    सम्मान    है       हिंदी  | 

Tuesday, August 30, 2011

अलिखित

मुझे लिखना है 
हाँ , बहुत कुछ लिखना है
किन्तु 
कहाँ से शुरू करूँ ?
क्या लिखूँ प्रारंभ में ?

एक पंक्ति में
लटकते हुए 
अनगिनत
रंगीन बल्बों की तरह 
कई-कई बातें ....
शिकायतें , आक्रोश , क्षोभ-
ग्लानि , दुःख , पश्चाताप...
और 
इन्हीं के बीच 
दिपदिपाते जुगनू 
क्षणिक खुशियों के !

किस को कहाँ स्थान दूँ ?
कहाँ-कहाँ टाँक दूँ ?
किस-किस को ...

बस 
इसी कशमकश में 
जूझने लगता हूँ ..
जब भी उठाता हूँ-
कलम और कागज़  
और
हर बार रह जाता है 
अलिखित 
बहुत कुछ......


Tuesday, August 16, 2011

अन्ना का समर्थन करें

आप  सभी  को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ ..

आइये हम सब  भ्रष्टाचार मुक्त भारत निर्माण के लिए-- सम्माननीय  अन्ना हजारे जी के नेतृत्व में-- जन लोकपाल बिल बनाने के लिए--संवेदनहीन एवं तानाशाह सरकार के विरुद्ध जारी देशव्यापी जन आन्दोलन को अपना पूर्ण समर्थन देकर इसे सफल बनाएँ.....

Friday, August 5, 2011

....बड़े लोग हैं !

चाँद   तारे  दिखाते,  बड़े   लोग  हैं |
देश   आगे   बढाते,  बड़े   लोग  हैं |
छीनकर रोटियाँ,हम गरीबों की ये ,
एक  टुकड़ा  दिखाते, बड़े  लोग  हैं |

माँगने   वोट  आते,  बड़े  लोग  हैं |
जीत संसद में जाते, बड़े  लोग  हैं |
झूठे वादों की घुट्टी पिलाकर हमें ,
कोठी अपनी बनाते,  बड़े  लोग हैं |

योजनायें    बनाते ,   बड़े लोग  हैं |
हक करोड़ों का खाते, बड़े  लोग हैं |
देखने  को   हमारी  फटी  जिंदगी ,
हेलीकाप्टर से आते, बड़े  लोग  हैं |

आग   पहले    लगाते,  बड़े   लोग   हैं | 
फिर  बुझाने  भी आते, बड़े   लोग   हैं |
राख हो जातीं जब अम्न की बस्तियाँ,
तब  कुआँ  ये   खुदाते, बड़े   लोग   हैं |

टू  जी   टेल्फोन  खाते,  बड़े   लोग  हैं |
राष्ट्र मंडल     चबाते ,    बड़े   लोग  हैं |
लाल बत्ती   मिले  या  मिलें  गड्डियाँ ,
रोज़  बिकते- बिकाते,  बड़े   लोग  हैं |

Wednesday, July 27, 2011

ये भारत है प्यारे ! बिलायत नहीं है

ज़माने   की  नज़रे  इनायत   नहीं है |
मगर फिर भी कोई शिकायत नहीं है |

उसी  के   हैं   चर्चे , तुम्हारे  शहर  में ,
जो अब इस जहां में,सलामत नहीं है |  

यहाँ  लोग  पूजेंगे, जब  हम न  होंगे  
ये भारत है  प्यारे!  विलायत नहीं है | 

जो  सच  बोलता है , अकेला  खड़ा है ,
उसे आज  हासिल , हिमायत नहीं है |

जो शब्दों में उतरा, वो है दर्द दिल का ,
मेरा  शेर  'झंझट' , हिकायत  नहीं है |

Monday, July 18, 2011

कोई ऐसी प्रीति करे तो

                 कोई ऐसी प्रीति करे तो 
प्रेम भवन की ड्योढ़ी पर ही, काट के अपना शीश धरे तो || कोई ऐसी प्रीति करे तो ||
      
               डरता   कहाँ   मरण  के  भय से 
               कोई     प्यार    निभाये      ऐसे 
               जल जाना ही जिसकी परिणति 
               नेह   पतिंगे   का   ज्यों   लौ  से 
प्रेम यज्ञ  की ज्वाला में , बन हव्य ,स्वयं को हवन करे तो ||कोई ऐसी प्रीति करे तो ||

               मछली जल में ही जीती है 
               सदा   प्रेम अमृत  पीती  है 
               पर विछोह होते ही पल में 
               प्राण निछावर  कर देती है 
कोई देवता के चरणों में , अर्पित जीवन सुमन करे तो ||कोई ऐसी प्रीति करे तो ||

               प्रीति  चन्द्र से  करे चकोरी 
               निरखे सदा  प्रेम रस  बोरी 
               जीवन   इंतज़ार  में   बीते 
               मगर न टूटे आश की डोरी 
अगम,अलभ्य रूप से ऐसी , चाहत की इक डोर जुड़े तो || कोई ऐसी प्रीति करे तो ||

               जहाँ वासना.... ..प्यार कहाँ है?
               काम जहाँ... निष्काम कहाँ है ?
               त्याग और बलिदान का पथ है, 
               प्रेम यहाँ..........आराम कहाँ है ?
प्रेम दिवानी मीरा सा, हँस-हँस कोई विषपान करे तो || कोई ऐसी प्रीति करे तो ||
               

Saturday, July 9, 2011

इंसान और राक्षस

दिल करता है 
नोच डालूँ नकाब 
अपने चेहरे का 

नोच-नोच कर फेंक दूं 
वे सारे पर सुर्खाब के  
जो लोगों ने 
जबरदस्ती 
मुझमे जमा रक्खा है 

मैं 
जो अब तक 
आदमी नहीं बन सका 
बेवजह 
लोगों ने 
फ़रिश्ता बना रक्खा है 

भरी बाज़ार में नंगा कर दूँ
अपने अंतस में छिपे शैतान को 
और
 चिल्ला-चिल्ला कर बता दूँ
हर खासो आम को 
अपनी असलियत 
दिखा दूँ ...
शराफत के परदे में 
पल रही हैवानियत 

जिंदगी और मौत 
में 
क्या फर्क है ....
भूल जाऊँ
पश्चाताप की आग में जलूँ
और जलकर 
यदि निखर सकूँ कुंदन सा
तो निखर जाऊँ 

और यदि नहीं 
तो अपने अंतस के राक्षस को 
मजबूती से पकड़कर 
उसी के साथ.....
अपने इंसान के हाथों 
फाँसी का फंदा बनाकर 
खड़ा-खड़ा  झूल जाऊँ 


Thursday, June 30, 2011

साँप आस्तीन के, कंठ चूमने लगे

बाग़   सूखने   लगे | 
झाड़   झूमने   लगे | 

साँप   आस्तीन  के ,
कंठ    चूमने    लगे |

क्रान्ति का घोष था ,
लोग   ऊँघने    लगे |

हम  तो  आदर्श को ,
सिर्फ   पूजने   लगे |

देखिये  तो !  मधुप-
स्वर्ण   सूंघने   लगे |

उसने सच कह दिया ,
लोग    ढूँढने     लगे |

गाँव     के     पहरुए ,
गाँव     लूटने    लगे |

हम  स्वयं  का  पता ,
खुद   से  पूंछने  लगे |

स्वार्थ  के  सिन्धु  में ,
हंस      डूबने     लगे |

शूल   ने    छू   लिया ,
ज़ख्म   पूरने     लगे  | 

Tuesday, June 21, 2011

इक दूजे के लिए

नया-नया दरोगा था 
एक दिन गश्त में 
खूंखार हिस्ट्रीशीटर को पा गया 
विधायक जी का पालतू 
गब्बर सिंह 
अचानक पुलिस  की चपेट में आ गया 

विधायक जी ...
जा रहे थे विदेश 
मिला सन्देश 
कार दौड़ाये
सीधे पुलिस स्टेशन आये 

इधर दरोगा जी ..
दहशत दिखा रहे थे 
पर्दाफाश करने को 
डंडा उठा रहे थे 
इन्स्पेक्टर के
 खूंखार चेहरे को देखकर 
हो रही थी 
गब्बर सिंह की हालत खराब 
इतने में देखा ..
नेता जी आ गए 
आँखों में ख़ुशी के आँसू छलके 
निकले यही कलाम ...
'मेरे महबूब तुझे सलाम !'

इधर दरोगा  ने 
नेताजी को देखा ..
ठोंका बड़ा सलाम 
अरे हुज़ूर! हो गया आपका काम 

गब्बर सिंह को छोड़ दिए 
ये कहते हुए ..
'हम बने तुम बने इक दूजे के लिए '  

Thursday, June 16, 2011

उर की जो व्यथा है वही कविता है

दीनों  के  घर  में  उजाला  करे  चाहे  छोटा सा दीप वही सविता है |
प्यासों  की  प्यास बुझाये सदा   भरा  कीच तलाव  वही सरिता है |
न्याय  के  संग चले  जो  सदा   न झुके जो कभी नर सो नर सा है |
कवि से कविताई न पूँछो सखे  उर की जो व्यथा है वही कविता है |

Saturday, June 4, 2011

लोकराज में जो हो जाये थोड़ा है

                                                         
                    "  लोकराज में जो हो जाये थोड़ा है "

                  जनता के सर  पड़ता  रोज  हथौड़ा है |   
                  लोकराज में   जो  हो  जाये   थोड़ा है |

कहीं  का पत्थर  और कहीं का रोड़ा है |
भानमती ने  अच्छा   कुनबा  जोड़ा  है |
मनमोहन तो ताक धिना धिन  नाचे हैं ,
दिल्ली - महारानी  का  सीना चौड़ा है |
                  यू पी ने  हर राज्य को पीछे  छोड़ा है |
                 लोकराज  में जो हो  जाये    थोड़ा  है |

पब्लिक को वादों का तोहफा  देता है |
बेईमानी, लफ्फाजी    कर   लेता  है |
घोटालों का बाप जो  दादा  गुंडों का ,
वही आज के दौर का असली नेता है |
                सदन तलक जा पहुंचा मगर भगोड़ा है |
                लोकराज  में   जो   हो  जाये  थोड़ा  है |

मंत्री से संतरी   सभी  तो    चंगे   हैं |
भ्रष्टाचार में करते  हर-हर    गंगे  हैं |
अफसर-बाबू-पुलिस जो रंगबिरंगे हैं ,
देखो सब के सब  हम्माम में नंगे हैं |
              इन्हीं सबों ने मिलकर देश निचोड़ा है |
              लोकराज में  जो  हो  जाये  थोड़ा  है |

महँगाई   द्रौपदी-चीर   सी   बढ़ती  है |
सुरसा   जैसी   मुँह  फैलाये  हँसती है |
निगल रही जिन्दगी गरीबों की,डायन-
महलों में ही  सजती और  सँवरती है |
         सैयाँ बहुत कमाएँ मगर सब थोड़ा है |
         लोकराज  में  जो हो  जाये थोड़ा  है |

घर-घर टी. वी. नंगा नाच दिखाती है |
कम कपड़ों में  महँगे अंग लखाती है |
मर्यादा-तहजीब  बेंच   बाजारों    में ,
देखो अब  राखी  इन्साफ सुनाती है |
           तार-तार सभ्यता ,  प्रदर्शन भोंड़ा है |
           लोकराज  में  जो हो जाये   थोड़ा है |

सौ  में  सत्तर  लोग   आज  भी  निर्धन हैं |
धोता गिलास ढाबे पर देश का  बचपन है |
आज़ादी तो मिली  मगर  बस महलों को ,
सड़कों  पर  आबाद  हमारा   जन-गन है |
          झोपड़पट्टी वतन के तन पर फोड़ा है |
          लोकराज   में  जो  हो जाये   थोड़ा है |

आतंकी मेहमान बने हैं  क्यूँ आखिर ?
सत्ताधर अनजान बने हैं क्यूँ आखिर ?
'फाँसी दो'  फैसला  अदालत करती है ,
सिंहासन बेकान बने हैं  क्यूँ आखिर ?
            देश पे  मरनेवालों   का  दिल  तोड़ा  है |
            लोकराज  में  जो  हो   जाये   थोड़ा है |

मज़हब  और  धर्म    की    ठेकेदारी  है |
मंदिर-मस्जिद जंग  अभी तक जारी है |
'ढाई आखर-प्रेम'  न  कोई   पढ़ा  सका ,
इंसानी   रिश्तों    की    ये   लाचारी है |
            भारत है अखंड- हमने कुछ तोड़ा है |
            लोकराज  में जो हो जाये   थोड़ा है |

चमचागीरी ,  चाटुकारिता   हावी  है |
इज्ज़त  से  जीने  में  बड़ी खराबी  है |
दो रोटी के लिए  जिस्म बिक जाते हैं,
कैसे कह दूँ ? मौसम यहाँ  गुलाबी है |
         सच्चाई से  कलम ने भी  मुँह मोड़ा है |
         लोकराज  में  जो हो   जाये   थोड़ा है |           



Monday, May 30, 2011

राधिका और बाँसुरी

साँस-साँस में बसी थीं,दोनों जग से निराली '
इनके सिवा  न कृष्ण  की  थी कोई साँस री |
अधरों  से खेलती थीं , साथ साथ  रहती थीं ,
सारे जग  की बुझातीं, आत्मा  की प्यास री |
नाचते थे धुनि  सुनि , नारद- विरंचि- शिव ,
प्रकृति भी , गोपियों की श्वाँस प्रति श्वाँस री |
वाह रे कन्हैया ! कभी जान नहीं पाया कोई ,
बाँसुरी थी राधिका  कि  राधिका थीं बाँसुरी | 

Saturday, May 21, 2011

रेडियो रोता है

उसकी बातें क्यूँ  करते हो ?
वो  तो भारत का नेता है  !
एम.पी. है , एम.एल.ए. है 
मिनिस्टर है , कुछ भी है ..
सेन्ट्रल लाटरी का बम्पर विजेता है |


तुमने जिताया है , संसद पहुँचाया है ,
राजधानी दिखलाया है ..
उसने भी इलेक्सन में लाखों उड़ाया है ..
क्या बुरा ?
आज वह तुम्हीं से लेता है...भारत का नेता है !

रोना  है रोते रहो,
जागो या सोते रहो ..
वह तो होशियार है -
जगता है... देश सोता है !

उसके रोने का ढंग भी अजीब है-
कभी चम्बल, कभी बेहमई
कभी भागलपुर , कभी पंजाब
कभी असम
तो कभी कश्मीर में रोता है ..

झंझट ! तुम मरो या जियो
कोई परवाह नहीं
मगर जब वो मरता है...तो रेडियो रोता है |   


Monday, May 16, 2011

" उजला कौआ "...............(रिपोस्ट )


बचपन में दादी मुझे सुलाने के लिए कहतीं भैया सो जा, नहीं तो उजला कौवा आ जायेगा | मै डरकर सो जाता |दादी ने एक दिन एक किस्सा सुनाया था | एक था राजा, राजा बड़ा बहादुर था | अपनी प्रजा के सुखदुख का हमेशा ध्यान रखता था | राजा के राज्य में काले कौवों की संख्या बहुत थी | प्रजा सुखी थी तो उनका जूठन खाकर कौए भी खुश होकर काँव- काँव करते पेड़ों पर , मुंडेरों पर उड़ते, बैठते और मँडराते रहते थे |मगर एक दिन पश्चिम दिशा के जंगल की ओर से झाँव-झाँव , खाँव-खाँव की आवाज आने लगी | लोग कौतूहलवश उसी ओर देखने लगे | तभी बड़े-बड़े डैनो वाले उजले रंग के दैत्याकार कौए आसमान में मडराने लगे | देखते ही देखते उन्होंने काले कौवों पर हमला बोल दिया | जब तक राजा के सिपाही कुछ कर पाते , उजले कौवों का झुण्ड वापस लौट गया लेकिन काफी संख्या में काले कौवों को नोच फाड़कर |काँव -काँव करने वाले कौए चीख चिल्ला रहे थे | कुछ घायल पड़े कराह रहे थे तो कुछ मृतप्राय हो चुके थे | दयालु राजा ने घायल कौवों का इलाज़ करवाया और जो मर गए थे उनका अंतिम संस्कार | फिर तो यह घटना अक्सर घटित होने लगी | थक-हारकर राजा ने पश्चिम के जंगलों में अपना शांतिदूत भेजा | वहां से उजले कौवों के सरदार ने सन्देश भिजवाया कि यदि राजा उसके अधीन हो जाये तो काले कौवों पर हमला नहीं करेंगे बल्कि रोज़ एक-एक का थोड़ा-थोड़ा खून पियेंगे और कभी कभार थोड़ा मांस भी खायेंगे जिससे काले कौए आराम से इसे बर्दाश्त करने के आदी हो जायेंगे | राजा का राजकाज भी चलता रहेगा और उनका पेट भी भरता रहेगा | राजा ने शर्त मान ली | काले कौए धीरे-धीरे कम होने |                                                 

                           तब से कई वर्षों बाद ----------
                                    
                आज देखा कि एक काला कौवा रोटी के जुगाड़ में इधर-उधर भाग रहा है | कभी पेड़ की डाल पर बैठता है तो कभी उड़कर जमीन पर आ जाता है और बर्तन साफ़ कर रही घरैतिन से बस थोड़ी दूरी पर सतर्क बैठ जाता है |दांव मिलते ही पड़ा हुआ बचाखुचा जूठन चोंच में दबाकर भाग जाता है और छत की मुंडेर पर बैठकर खा रहा है | बीच बीच में कांव -कांव की कर्कश आवाज से अपनी बिरादरी के लोंगो को भी बतलाता जा रहा है कि भूख  लगी हो तो आ जाओ , पेट भरने को अभी यहाँ रोटी के टुकड़े और सीझे चावल काफी हैं | दो -चार कौए कांव-कांव करते और आ गए |तभी जोर-जोर से गाड़ियों की घरघराहट और हार्न बजने की आवाज सुनाई देने लगी | गाँव के बच्चे , कुछ नंगे तो कुछ अधनंगे सभी कुलांचे भरते गाड़ियों की ओर दौड़े | गाड़ियों की झांव-झांव आवाज ने पूरे गाँव को चौंका दिया | सभी घरों के मर्द बाहर निकल आये तो औरतें किवाड़ों को आधा खोल बाहर झाँकने लगीं | अचानक सभी गाड़ियाँ गाँव के बीचोबीच नेताजी के दरवाजे पर रुक गयीं | गाड़ी में से सफ़ेद लकझक कुर्ता पाजामा पहने दो तीन व्यक्ति कई असलहा धारियों के साथ बाहर निकले और सबकी ओर दोनों हाथ जोड़ हवा में हिलाते हुए बोले  "भैया ,राम राम "|
                                     नंगे-अधनंगे बच्चे जो ठिठक कर रुक गए थे और देख रहे थे , वे धीरे-धीरे पीछे वापस लौटने लगे | दौड़ते हुए उल्टे पाँव आते लडको से ,लकड़ी के सहारे धीरे धीरे आ रहे जगन लोहार ने पूछा , "कौन है रे , कौन आया है " लड़के सुर में सुर मिलाकर चिल्लाये ....

                   काला कौवा  काँव काँव  , उजला कौवा खाँव खाँव  |
                   काला कौवा जूठन खाय, उजला कौवा मांस चबाय |  
                   काला कौवा  पानीपून ,  उजला  कौवा  पीवै  खून  |
                    हांड मांस का न्यौता है , राजा से  समझौता  है |

                   भागो भैया भागो !   उजला कौआ आया   है.....    
  

Monday, May 9, 2011

काहू में मगन कोऊ काहू में मगन है

          माया  के अपार मोहजाल  में भुलान  कोऊ ,
          कोऊ   राम नाम   में   लगाय  रह्यो  मन है |
          कामिनी  कमान नैन  बींधि गयो  काहू उर ,
          कोऊ   भाव भगति   भुलाय  दियो   तन है |
          कोऊ दोऊ हाथन सों बाँटि रह्यो भुक्ति-मुक्ति ,
          कोऊ  दोऊ  हाथ   सों  बटोरि   रह्यो  धन है |
          साधो !  ऐसा    जग   है     बेढंगा    बहुरंगा ,
          कोऊ काहू  में मगन  कोऊ काहू में मगन है | 

Monday, May 2, 2011

हम अपना सूरज लाये हैं

                          ( १ मई --मजदूर दिवस पर  ......देश के मेहनतकशों के नाम )

क्या कुछ तेरे पास नहीं है ?
अरे जरा अपनी ताक़त को 
जान और पहचान तो भाई !

       तेरे दो  मज़बूत हाथ हैं 
       हाथों में हल है कुदाल है 
       हँसिया, खुरपा और फावड़ा 
       जिनसे तू बंज़र धरती  भी 
       चीर चीर जीवन उपजाता
तेरे दो मज़बूत हाथ हैं 
हाथों में दमदार हथौड़ा 
याकि बंसुला और रुखानी 
मिलों और कारखानों की 
बड़ी दैत्याकार मशीनें 
जिन्हें चलाकर 
लहू से अपने 
देश की तू किस्मत लिखता है
       तुझमे तो मेहनत का बल है 
       साहस का पहाड़ जैसा तू 
       तुझ जैसा कर्तव्यपरायण 
       भला विश्व  में और कौन है ?

फिर भी तू कितना सहता है !

       बना है क्यों भाड़े का टट्टू
       लोगों के हाथों का लट्टू 
       बिलकुल एक भिखारी जैसा 
       भाग्य और भगवान भरोसे..
       
       क्यों ऐसा जीवन जीता है ? 
       मात्र दया पर जिंदा रहना 
       सीख लिया क्यों आखिर तूने ?

आज न कोई मालिक नौकर 
सब के सब इंसान बराबर 
स्वाभिमान से जिंदा रहना 
और शान से जीवन जीना 
अपने अधिकारों की खातिर 
लड़ना पड़े तो खुलकर लड़ना 
यही सत्य है ...और नहीं कुछ 

       हाथों में जलती मशाल ले 
       अपने जीवन का अँधियारा 
       तुझको ही है आज मिटाना.. 

तेरा सूरज क़ैद किये जो 
मुट्ठी में हैं बंद किये जो 
जोर लगाके खोल दे मुट्ठी  
तोड़ दे हाथ मरोड़ दे मुट्ठी 

       जो तुझको भरमाते आये 
       सपनों में भटकाते आये 
       तेरा चैन चुराते आये 
       उल्टे  पाठ पढ़ाते आये 
       कभी तेरा सम्मान न समझा 
       कभी तुम्हें इंसान न समझा        
       नोच दे इनका आज मुखौटा 
       असली चेहरा दिखा दे सबको 
       भलीभाँति ये बता दे इनको... 

अब हम और नहीं रोयेंगे 
अब हम और नहीं सोयेंगे

जाग उठे हम-जगी ज़वानी 
जागी खेती जगी किसानी 
खेत ज़गे खलिहान जगे हैं 
धरती की संतान जगे हैं 
हम भी हैं इंसान-जगे हैं 

शहरों के फुटपाथ जगे हैं  
झोपड़पट्टे  साथ जगे हैं 
आज करोड़ों हाथ जगे हैं 
मिलों के गर्द गुबार ज़गे हैं 
हम  धरती के भार ज़गे हैं 
गद्दारों के काल ज़गे है 
सोकर सालोंसाल, ज़गे हैं 
       
       अपना हक लेने आये हैं 
       हम अपना सूरज लाये हैं 

अब हमको भरमाना छोड़ो
अब हमको भटकाना छोड़ो 
जाति-धरम के दाँव चलाकर 
आपस में लड़वाना   छोड़ो..

       भागो-हटो हवाला वालों 
       रोज़बरोज़ घोटाला वालों 
       शांति और सुख हरने वालों 
       हरियाली  को  चरने वालों 
       सिर्फ तिजोरी भरने वालों 
       देश का सौदा करने वालों 

देश को अब नीलाम करो मत 
और इसे बदनाम करो मत 
लोकतंत्र की चीर हरो मत 
देश का बंटाधार करो मत 

       हमें छलावा नहीं चाहिए 
       हमें भुलावा नहीं चाहिए 
       हमको अपना अमन चाहिए 
       हमको अपना वतन चाहिए 
       हमको अपनी धरती प्यारी 
       हमको अपना गगन चाहिए 

अपना हक लेने आये हैं ...
हम अपना सूरज लाये हैं..

Tuesday, April 26, 2011

...जरूरी तो नहीं

चन्द  लफ़्ज़ों  का  असर  हो.... ये जरूरी  तो  नहीं |
मेरे   नगमों   में   हुनर हो...... ये  जरूरी  तो  नहीं |

दिल से लिखता हूँ , ग़ज़ल है   कि  ग़ज़ल  जैसी है ,
मेरी  आहों  में  बहर  हो...... ये   जरूरी   तो   नहीं |

सिर्फ   साँसों  का  सफ़र है ......ये  जिंदगी  अपनी ,
रोज़  घुट-घुट  के  गुज़र  हो ...ये  जरूरी  तो  नहीं |

उसके घर के बगल में. अपना घर है.. क्या कहना ,
अब  उसकी  मुझ पे नज़र हो....ये  जरूरी तो नहीं |

दर्द  पी पी  के  ही  जीना  है ...........जिंदगी  यारों ,
उम्र  जलवों  में  बसर  हो ......ये जरूरी  तो  नहीं |

कहते  हो  आदमी जहरीला है ...साँपों  सा  मगर ,
सभी  साँपों  में  ज़हर  हो......ये  जरूरी  तो  नहीं | 

अपनी दीवानगी से खुश हूँ ..क्यूँ  अफ़सोस करूँ ,
होश  में  सारा  शहर  हो......ये  जरूरी  तो  नहीं |   


Wednesday, April 20, 2011

आज़ाद देश के हैं..जरा मुस्कुराइए !

आप  यूँ   न  रोइए .....आँसू   बहाइए !
आज़ाद  देश  के  हैं...जरा मुस्कुराइए !

       भुखमरी  है  देश  में  फैली  तो  क्या हुआ ?
       सोने से भरी उनकी तिजोरी तो क्या हुआ ?
       झोपड़ी  है  रोती  सिसकती  तो क्या हुआ ?
       बँगलों में कैद देश की हस्ती तो क्या हुआ ?

गोरे गए तो कालों की खिदमत बजाइए !
आज़ाद   देश  के  हैं... जरा  मुस्कुराइए !

       देखो  चोर, माफिया.. आज़ाद हैं यहाँ |
       भेंडियों  के झुण्ड ही.. आबाद  हैं यहाँ |
       आज़ाद  हुए  राज-काज  देखने वाले |
       आज़ाद हैं वतन की लाज बेंचने वाले |

गद्दारों को अदब से जरा..सर झुकाइए !
आज़ाद  देश  के  हैं ...जरा मुस्कुराइए !

       आतंकवाद .... खून  की  बौछार  देखिए |
       कश्मीर में  अलगाव की  फुंकार  देखिए |
       जनता की जरा चीख औ  पुकार  देखिए |
       नेताओं का अपने वतन से प्यार देखिए |

बापू  का नाम...आइए, जमके भुनाइए !
आज़ाद देश के हैं ......जरा  मुस्कुराइए !

       वोट  का  अधिकार है.....बस वोट दीजिए |
       आराम  बड़ी  चीज़ है.. .सर ढक के सोइए |
       हल्दी में  पीली ईंट का... ..चूरन मिलाइए |
       खाकर ज़हर भी....मौत के दर्शन न पाइए | 

घपले भी हैं..घोटाले भी..खुल के कमाइए !
आज़ाद  देश  के  हैं ..... जरा  मुस्कुराइए !  

   
        

Friday, April 15, 2011

यही जिन्दगी , यही है जीना

( इस रचना को आज मैं पुनः पोस्ट कर रहा हूँ क्योंकि जब इसे ब्लाग पर पहली बार पोस्ट किया था तब मैं लगभग अपरिचय की स्थिति में ब्लाग जगत का नवागंतुक ही था | अतः यह रचना सुधी पाठकों और विद्वान रचनाकारों तक नहीं पहुँच पायी )


     गम     खाना    औ    आँसू   पीना |    
     यही    जिन्दगी ,  यही   है   जीना |

     पीर      पुरानी         घाव      पुराने ,
     नित्य   नयी     साँसों    से    सीना |

     पीते       पीते        उम्र       गुजारी,
     मगर   कहाँ   आ   सका    करीना ?

     बिखरी   लट  , आँखों   में   दहशत ,
     कहते    हैं    सब     उसे     हसीना |

     सभी    देश     की      बातें    करते ,
     अमर  शहीदों    का    हक   छीना |

     श्वेतवसन      चेहरे       ने      देखा ,
     दर्पण   को    आ    गया     पसीना |

     नागफनी      हो    गए     आचरण ,
     पल-पल  मरना   पल-पल  जीना |

Monday, April 11, 2011

.....सिंहासन को झुकना ही पड़ा

    आखिर सिंहासन को झुकना ही पड़ा .....जनता के आगे !

सत्याग्रह के समक्ष असत्य ने घुटने टेक दिए | 'स्वतंत्र भारतवर्ष' के दूसरे गाँधी और समग्र अहिंसक जनक्रांति के दूसरे जय प्रकाश नारायण के रूप में देश की जनता को अन्ना हजारे जैसा समर्थ युगपुरुष मिल ही गया | जन लोकपाल बिल लाकर,भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे देश को उबारने की मुहिम के प्रथम चरण को उम्मीद से अधिक ही सफलता मिली | सत्य और अहिंसा के अनुयायी, सत्याग्रही सम्माननीय अन्ना हजारे के ९७ घंटे के उपवास के दौरान पूरे देश के कोने-कोने में जैसे बिजली दौड़ गयी | हर जाति, धर्म और वर्ग के बुज़ुर्ग , युवा , बच्चे , महिलायें प्रबुद्ध ,अनपढ़ , रिक्शाचालक ,  मजदूर  ,किसान और संगठन ; भ्रष्टाचार-हनन के इस आन्दोलन में जी-जान से शामिल हुए | सिंहासन हिलता देख, वही सरकार जिसने  कुछ समय पूर्व अन्ना जी द्वारा लिखे पत्र का जवाब देना जरूरी नहीं समझा था - जंतर-मंतर पर नतमस्तक हो गयी |
       लोकतंत्र में लोक जीता ----तंत्र हारा !
      यह जीत पूरे देश के उस अधिसंख्य वर्ग की जीत है जो  भ्रष्टाचारियों के मकडजाल में फँसे देश के  असहाय
लोकतंत्र में कदम-कदम पर मौत से पहले ही कई-कई बार मरते रहने को विवश है | जन लोकपाल बिल का मसौदा भारत सरकार द्वारा अधिसूचित किया जा चुका है किन्तु इस सफलता के एक दिन बाद ही राजनीति के  मदारियों ने अपनी-अपनी जादूगरी दिखानी शुरू कर दी  है | कोई अन्ना जी पर ही मिथ्यारोपण कर रहा है तो कोई मुद्दे को ही भटकाने में लगा है | अन्ना जी 'भ्रष्टाचारमुक्त ग्राम सुराज' के द्वारा 'भ्रष्टाचारमुक्त भारत' का पुनर्निर्माण करने के उसी संकल्प पर कर्मरत हैं जिसका सपना कभी महात्मा गाँधी ने देखा था |
    तो आइये ... हम सब अन्ना जी के नेत्रित्व में और किरण वेदी , केजरीवाल , स्वामी अग्निवेश, योग गुरु रामदेव जैसे स्वच्छ छवि वाले सभी 'देशहित चिंतकों' के 'राष्ट्र कल्याण मिशन' से जुड़कर इसे  कामयाब बनाने में अपना सम्पूर्ण सहयोग करें | ईमानदार , स्वच्छ और जनहितकारी लोकतंत्र की परिकल्पना के साथ-साथ अखंड, स्वाभिमानी एवं विश्वशिरमौर भारतवर्ष  के निर्माण यज्ञ  में अपने  पवित्र भावों  की आहुति  डालने में कदापि पीछे न रहें | स्वयं को भ्रष्टाचार से अलग रखते हुए हम जहां कहीं भी हों इसके विरुद्ध पूरी ताकत के साथ खड़े  होकर इसका जमकर  मुकाबला करें |   

      क्योंकि यह जीत  नवरात्रि के शुभ  अवसर पर मिली है, अतः 'आदिशक्ति माँ  जगदम्बा' की कृपा को प्रणाम करना चाहूँगा .......

        जेहि प्रेरत ही  मधु  कैटभ  मारन,  भार   उतारन   श्रीहरि  जागे |
        जासु  भवानी   कै  रूप  विशाल,  लखे  यमदूत  कराल  हु  भागे |
        जोग औ भोग  तिहूँ पुर कै सुख, देति जो  पुत्रन  को  बिन  माँगे |
        माई कै आँचल  त्यागि 'सुरेन्द्र', न  हाथ पसारिहौं आन के आगे |

        जाकी कृपा  विधि श्रृष्टि रचैं,प्रभु पालें, विनाश  करैं  त्रिपुरारी |
        सुवाणी स्वरूप धरे जगती,शुचि बुद्धि,विवेकमयी  अधिकारी |
        माँ सीता बनी संग राघव के, अघपुंज  दशानन कै कुल तारी |
        लाल बेहाल 'सुरेन्द्र' भला , जननी सम को जग में हितकारी |
         

Monday, April 4, 2011

.... कुछ न कहें तो अच्छा है

सब कुछ देखें  अधर  न खोलें,   कुछ न कहें तो अच्छा है |
उनमें  हम भी  शामिल हो लें,  कुछ  न कहें  तो अच्छा है |

परदे   के   पीछे   की   बातें ,  परदे    में    ही    रहने    दें ,
सच्चाई  का  राज  न  खोलें , कुछ  न  कहें  तो अच्छा है |

बाज़ारों   से   कई   मुखौटे ,  खरीद   लाने    के   दिन   हैं ,
असली चेहरा  कभी न खोलें, कुछ  न  कहें  तो अच्छा है |

महज़ स्वार्थ के  दलदल में, सम्बन्ध  धँसे ,   मजबूरी  है ,
कठपुतली   सा  नाचें  खेलें,  कुछ  न  कहें  तो  अच्छा है |

दाँतों  के  चंगुल  में   जिह्वा,  जैसे   विभीषण   लंका   में ,
रावण  के  हमराही  हो  लें,  कुछ  न  कहें   तो  अच्छा है |

पर   उपदेश  कुशल   बहुतेरे ,   बड़ा    पुराना    ढर्रा    है ,
पहले  अपना  ह्रदय  टटोलें, कुछ  न  कहें  तो  अच्छा है |

अधरों  पर  ताला  अनजाना  और   आँसुओं  पर   पहरे ,
भीतर-भीतर सब कुछ पी लें, कुछ न कहें  तो अच्छा है |

एक ज़िन्दगी भार सरीखी, साँस - साँस   धिक्कार भरी ,
चलो अनमनेपन  से जी लें, कुछ  न कहें  तो  अच्छा है |

Monday, March 28, 2011

देश की अखंडता बचाइये

देश के लिए  जिए जो , देश के लिए लड़े जो ,
देश   के   लिए  मिटे जो ,   उनको  नमन है |
सारे  सुख-साज़-राज  त्यागि ,कूदे  देश की-
स्वतंत्रता की  आग में जो  उनको  नमन है |
हो गए शहीद , आज  तक  गुमनाम  हैं जो ,
भारती  के  भाल    लाल,  उनको   नमन है |
देश  की  स्वतंत्रता   ही   जिनका  था  धर्म,
चूमे फाँसी फंद शान से जो उनको नमन है |

शान्ति , सदभाव ,  सर्वधर्म -  समभाव  की ,
सदा  से  मेरे  देश  में   परम्परा   महान  है |
एक ओर श्याम की  विरह में दिवानी मीरा ,
एक   ओर  श्याम  रंग    डूबा   रसखान  है |
राम का आदर्श ,  गुरु नानक   का  उपदेश ,
सार जिन्दगी  में   ढाई आखर  का ज्ञान है |
आपसी लड़ाई में  , मिटा  दिया   इसे कहीं ,
तो कैसे कह पाओगे  कि  भारत महान है ?

द्वेष  रखने  से   फूट   देश  में  बढ़ेगी  मीत ,
हो   सके  तो    द्वार-द्वार   प्रेम    उपजाइए |
एकता जरूरी है  , भुला के सारा भेद आज ,
देश   है   पुकारता   कि  एक   बन  जाइए |
जाति या धरम चाहे भाषाएँ अनेक किन्तु ,
सारे   भारती   हैं ,  भारतीयता   जगाइए |
राष्ट्र  खतरे  में , कहीं हो न जाए खंड-खंड ,
मीत  आज  देश  की  अखंडता   बचाइए |


Wednesday, March 23, 2011

होते हैं जो शहीद कभी मर नहीं सकते

आज शहीदे आज़म सरदार भगत सिंह एवं  उनके अभिन्न क्रन्तिकारी साथी राजगुरु और सुखदेव की   पुण्य तिथि है  | सांडर्स हत्या प्रकरण में २३ मार्च १९३१ को इन भारतमाता के अमर पुत्रों को अंग्रेजों द्वारा 
 फाँसी की सजा दे दी गयी | देश की आज़ादी के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले इन्ही क्रन्तिकारी शहीदों की देन है हमारे देश की आज़ादी | 
       मात्र २३ वर्ष ३ माह २५ दिन की उम्र में सरदार भगत सिंह को फांसी दीगयी| अन्य क्रांतिकारियों  की  तुलना में सरदार भगत सिंह की लड़ाई कुछ लीक से हटकर थी |  जहाँ अनगिनत आज़ादी के योद्धा  देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने के लिए अपने प्राण हथेलियों  पर रखकर जूझ रहे थे , वहीं सरदार भगत सिंह देश को अंग्रेजों की दासता के साथ-साथ साम्राज्यवाद के चंगुल से भी मुक्त किये जाने का संकल्प लिए आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे थे | उनका मानना था कि जब तक  देश की सर्वोच्च सत्ता में   किसानों  और  मजदूरों  का  वर्चस्व  नहीं  होगा ,देश को वास्तविक  आज़ादी  नहीं  मिल  सकती |  उनकी  विचारधारा    शत प्रतिशत प्रासंगिक होते हुए भी आज तक अधर में ही है |  स्वार्थलोलुप राजनेता उनकी  विरासत को छिन्न-भिन्न करने में लगे हैं |
       हम सरदार भगत सिंह के सपनों का भारत बनाने में स्वयं का जितना योगदान कर सकें, कम है | सरदार भगत सिंह एवं उनके साथी क्रांतिकारियों, राजगुरु और सुखदेव के अमर बलिदान के प्रति  हमारी सच्ची श्रद्धांजलि भी यही होगी |

    और अंत में बस इतना ही.........
                                                   अन्याय जो बर्दास्त कभी कर नहीं सकते |
                                                   बन्दूक, तोप से भी वे कभी डर नहीं सकते |
                                                   हर दिल  में    सदा रहते  शूरवीर  की   तरह ,
                                                   होते हैं जो   शहीद   कभी मर   नहीं   सकते |

                                                    गुंडों का नहीं है ये दलालों का नहीं है |
                                                    डंडों का नहीं है   ये हवालों का नहीं है |
                                                    यह देश है  हमारे शहीदों की अमानत ,
                                                    यह   देश,   देश बेंचनेवालों   का नहीं है |
           

Saturday, March 19, 2011

होली कै हुडदंग

(आप सभी को सपरिवार रसरंग पर्व होली की हार्दिक मंगलकामनाएं | दिलों की दूरियाँ ख़त्म हों , नजदीकियां बढ़ें |
प्रेम की गंगा में सराबोर हों | आसुरी वृत्तियों का नाश हो  , सदवृत्तियों का विकास हो | हर प्राणी प्रसन्न और सुखी हो | अपना भारत विश्व का शिरमौर बनें , हार्दिक कामना है |
       आज होली पर मैं अपनी एक, मंचीय अवधी रचना  प्रस्तुत कर रहा हूँ , उम्मीद है अच्छी लगेगी )

                          "भरी फागुनी उमंग आज अंग-अंग म़ा"

अबकी साल  मचाऊ होली  म़ा ऐसन   हुडदंड
कहूँ अबीर गुलाल चलै औ कहूँ धकाधक रंग

              खेलैं बूढ़ औ जवान  लरिकन  संग मा
              भरी फागुनी उमंग आज अंग-अंग मा

होरिहारन कै फ़ौज चली है बाजै मारू बाजा
एक रंग मा रंगिगे सगरौ रंक होंय या राजा

लिहे हाथ  पिचकारी  अठिलाय कै चली
भीगी भीगी देह सारी  बल खाय कै चली
संगे सखी-सहेली सारी अरराय  कै चली
जीजा भागे देखौ साली डुडुवाय  कै चली

           सालिन बीच फँसे जीजाजी  भूली हक्की-बक्की
           जाड़ के मारे थर-थर काँपैं दाँत चलै जस चक्की

कुरता होइ गवा रुमाल इ बनाय कै चली
औ पिराय दूनव गाल  अघवाय  कै चली

          हारि   मानि  बैठे  हैं   मैदाने जंग मा ..
          खेलैं बूढ़ औ जवान लरिकन संग मा...

जेकरे कबौ बोल न फूटै    बनी हैं  आज सयानी
मिलै न रंग तबौ नहवावैं भरि-भरि गगरा पानी
रंग   भरी  है  झोली   इनकै  रंग   भरी  है बोली
यहि कोने  से  वहि कोने तक  छूटैं  जैसै  गोली

उडै  लाल रंग    मंगिया के बीच परै
केऊ बेही   अनबेही  न जनाय  परै
         झूमैं पेड़ औ पकडिया नयी तरंग मा ...
         खेलैं बूढ़ औ जवान लरिकन संग मा ...भरी फागुनी उमंग आज अंग अंग मा


 

Tuesday, March 15, 2011

नव गीत

आने को आया है मौसम मनभावन 

           आग राग गाती हैं मौसमी  बहारें |
           सूखे जले पत्तों को बुहारतीं बयारें |

गालों पर फागुन है आँखों में सावन ...

          कोयल मृदुबैनी है तन-मन की काली |
          कौए से  करवाती  शिशु की रखवाली |

छलनाओं के कर में सपनों का दरपन...

           इच्छायें ऊँची ज्यों कचरे पर कचरा |  
           हाथों से गर्दन तक फूलों का गजरा  |

कोठे पर मन बैठा मंदिर में नरतन.....

          आशा तो फ्यूज बल्ब होल्डर में अटकी |
          जीत  हाथ  आते  ही मछली सी छटकी |

गले बँधी टाई सा हार का अपनपन ....