Monday, February 28, 2011

नाक

( आज एक बाल कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ जो  सन २००० में प्रकाशित मेरे बाल कविता संग्रह    'बिल्ली का  संन्यास' शीर्षक पुस्तक में संग्रहीत है )

 
मुखड़े   को  सुन्दरता   देती -
है,  चेहरे  पर   सुन्दर  नाक |
सारे   अंग   जरूरी    हैं , पर-
नहीं किसी से कमतर नाक | 

            दो काली  आँखों  के  नीचे ,
           बीचे  बांध   सरीखी  नाक |
           मुख  से  पहले ऊपर  बैठी ,
           छोटी हो या बड़ी सी  नाक |

देखो कितनी अच्छी लगती-
है , तोते  की ठोर   सी नाक |
अलग से जैसे छोपी लगती ,
होती  जो  कंडौर  सी  नाक |

         कोई  भिन्डी  जैसी  लम्बी ,
         कोई दबी सी चिपटी नाक |
         कोई  फैले   नथुनों  वाली ,
         ज्यों लुहार की भट्ठी नाक |

तरह-तरह आकारों  वाली ,
मोटी हो  या  पतली  नाक  |   
मुखड़े का  भूगोल बनाती ,
होती  बहुत  जरूरी  नाक |

          अच्छे काम सदा करते जो ,
          ऊँची  रहती   उनकी  नाक |
         बुरे  काम  करनेवालों   की ,
         बिना कटाए कटती   नाक  |

Thursday, February 24, 2011

....मेरी कविता

महल का कब ? सड़क का साथ करती है मेरी कविता |
वख्त  से  भी  तो  दो- दो  हाथ  करती है  मेरी कविता |

नफरतों   से  झगड़ती  है  तो  अम्नोंचैन  की  खातिर ,
जहाँ  में  प्रेम  का   उन्माद   भरती  है   मेरी  कविता |

नहाकर  चांदनी   में   ये   कभी   लगती   परी   जैसी ,
कभी  आगों  की  दरिया से  गुजरती है  मेरी  कविता |

रंग  पर  रंग  का  मौसम   फुहारें    घन-घटाओं   की ,
फाल्गुन   में  भी सावन  बन  बरसती है  मेरी  कविता |

अंधेरो  की   सियासत  से     अकेली  जूझती  भी  है ,
जुगनुओं की तरह पल पल चमकती है मेरी कविता ||

शहर की  तंग  गलियों में  घुटन की पीर  पी-पी  कर ,
खेत-खलिहान  के  रस्ते   विचरती है   मेरी  कविता |

थपेड़े     झेलती   है      काँपती      आँसू    बहाती  है '
रोज  पतझड़ के साये में   सँवरती  है   मेरी  कविता | 

Monday, February 21, 2011

लोकतंत्र को निगल गया भ्रष्टाचार का अजगर ..

हाँ ! मैं देख रहा हूँ | क्या आपने नहीं देखा ? आप भी देख रहे हैं | हम सब देख रहे हैं , मगर तमाशबीन की तरह | कुछ करना  भी चाहें तो क्या करें ? सिर्फ हो-हल्ला ही तो मचा सकते हैं | मचा भी रहे हैं मगर कोई असर नहीं |
हाँ , तो हम सबने देखा - काफी समय पहले से जिस भ्रष्टाचार के भीमकाय भयंकर अजगर ने  देश के लोकतंत्र को निगलना शुरू किया था , अब पूरा का पूरा निगल गया - सिर से पाँव तक ! लोकतंत्र अब अजगर के पेट में है | वह अजगर की आँखों से ही थोडा-बहुत बाहर देख लेता है , उसी की साँस पर जिन्दा है ,बाहर आने को छटपटाता है | अजगर के पेट में फँसा बेचारा हाथ-पाँव मारता है मगर दूसरे ही पल आँखें मूँद लेता है | एक आम आदमी की तरह मौत से जूझ रहा है - बेचारा बेबस लोकतंत्र ! लगता है कि अब जान गई कि तब , पर दूसरे ही क्षण वह फिर हरकत में आ जाता है | मृतप्राय है पर जिजीविषा बाकी है |
     क्या कोई चमत्कार होगा ? कोई मसीहा आएगा इसे बचाने ? कौन फाड़ेगा अजगर का पेट ? पेट फाड़कर लकवाग्रस्त हो चुके लोकतंत्र को बड़ी सावधानी से बाहर निकालेगा,उसके क्षतिग्रस्त अंगों की मरहम-पट्टी  करेगा , खुली हवा में बाहर घुमायेगा | धीरे-धीरे घायल लोकतंत्र स्वस्थ हो जायेगा | तब वह बेचारा नहीं रहेगा  |
अगर फिर कभी अजगर  उसे दुबारा निगलने का प्रयास करेगा तो वह अपनी चारों बलिष्ठ भुजाओं से उसके जबड़ों को पकड़कर फाड़ देगा | भ्रष्टाचार का अजगर हमेशा-हमेशा के लिए ख़त्म हो जायेगा | लोकतंत्र की घर-गृहस्थी फिर से बसेगी, उसके आँगन में बच्चों की किलकारियाँ गूँजेगी और वह बड़ी शान से सीना चौड़ा करके पूरे संसार को अपनी बलिष्ठता और स्वतंत्रता की चुनौती  देगा |





Saturday, February 19, 2011

संत भरत मुनि एवं संत रविदास जी क़ी शुभ जयंती ( १८ फरवरी ) पर.....

     आज हमारे देश की दो महान विभूतियों का जन्म दिवस है---

पहला ---नाट्यशास्त्र के प्रणेता महाज्ञानी भरत मुनि महाराज का |
दूसरा ----महान संत रविदास ( रैदास )जी का |
               इन दोनों महान आत्माओं का कोटि-कोटि वंदन करता हूँ | इन महापुरुषों का स्मरण उनके महान जीवन और अनुकरणीय सुकृत्यों के लिए युगों-युगों तक किया जाता रहेगा |

                                  भरत मुनि 
       भरत मुनि जी प्राचीनतम संगीतवेत्ता थे | पुराणों के अनुसार जब देवताओं ने ब्रह्मा जी से एक ऐसे वेद की रचना करने का अनुरोध किया जो सामान्य आदमी द्वारा समझा जा सके तो उन्होंने पंचम वेद की रचना की , जो नाट्य वेद कहलाया | इसमें शब्द ऋग्वेद से , अभिनय यजुर्वेद से , गीत-संगीत सामवेद से और रस आदि अथर्ववेद से शामिल किये गए | नाट्य वेद की रचना के बाद ब्रह्माजी ने संत भरत मुनि से धरती पर इसके प्रचार-प्रसार के लिए कहा | 
               संत भरत मुनि ने 'नाट्यशास्त्र ' का सृजन २००-३०० ई० पू० के बीच किया जो नाट्यकला का आदिग्रंथ 
माना जाता है |


                              संत रविदास  
           संत रविदास जी ने धर्म  से मानवता को जोड़ने का अभूतपूर्व कार्य किया | सामाजिक बुराइयों को समाप्त करने का उनका प्रयास चिरस्मरणीय रहेगा | पंद्रहवीं शताब्दी में भक्ति आन्दोलन के प्रमुख संतों में उनका सर्वोच्च स्थान है | माना जाता है कि कबीर,मीरा,संत नामदेव जैसे महान भक्त कवि, संत रविदास  के समकालीन थे | कबीरदास जी ने उनकी प्रशंसा में लिखा था ,'साधुन में रविदास संत हैं ,सुपच ऋषि सौ मानिया|
हिंदू तुर्क दुई दीन बने हैं ,कछू नहीं पहचानिया |' मीरा जी ने भी लिखा ,' गुरु मिलिया रैदास जी ...' |
       संत रविदास जिन्हें संत रैदास भी कहा जाता है ,का जन्म बनारस के एक दलित (चर्मकार ) परिवार में हुआ था | वे  ईश्वर की भक्ति के साथ-साथ अपना पुश्तैनी व्यवसाय ( जूते बनाना ) भी  पूरे मन से जीवनपर्यंत करते रहे  | उन्होंने कहा कि कोई भी काम छोटा  या बड़ा नहीं होता , मेहनत और ईमानदारी से की हुई कमाई ही फलित होती है न क़ि शोषण और ठगी से | उनकी मान्यता थी क़ि घर-परिवार में रहकर अपने कर्तव्यों का सम्यक निर्वहन करके भी परमात्मा को पाया जा सकता है , उसे पाने के लिए कपडा रंगने या धूनी रमाने की कोई जरूरत नहीं | संत रविदास ने स्वच्छ मन और ईमानदारी से जीवन जीने वाले को ही सच्चा इन्सान बताया | उनका कहना था....".मन चंगा तो कठवत में गंगा "|
           संत जी ने  समाज को दिखाया कि व्यक्ति जन्म से नहीं बल्कि कर्म से महान बनता है | जाति-पांति के आधार पर ऊँच-नीच का भेदभाव करने वालों को उन्होंने कड़ी फटकार लगाई | उन्होंने कहा कि ऐसे विचार रखने वालों से  भगवान कभी खुश नहीं हो  सकता क्योंकि उसने तो सबको समान बनाया है , अहंकार मुक्त होने पर ही
सच्ची भक्ति संभव है |विभिन्न धर्मों में हो रहे पाखंड और अन्धविश्वास का उन्होंने जमकर विरोध किया | उन्होंने नफरत,और हिंसा का प्रतिकार प्रेम और अहिंसा से किया | इसीलिए वे लोगों के प्रेरणास्रोत बने |यह उनकी लोकप्रियता एवं भक्ति की पराकाष्ठा ही  थी कि उनके रचित चालीस भक्ति पद सिख धर्म के आदिग्रन्थ में शामिल किये गए | संत रविदास का जीवन एवं उनके विचार भारतीय समाज के लिए सदैव अनुकरणीय एवं प्रासंगिक रहेंगे | 





Monday, February 14, 2011

हे महाप्राण..विराट व्यक्तित्व......निराला

(निराला जयंती  पर )


हे महाप्राण
विराट व्यक्तित्व                                
निराला !
साहित्य के सूर्य
ह्रदय के हरिश्चंद
स्वाभिमान के हिमालय
किन शब्दों में करूँ
तुम्हारा वंदन !
हे माँ भारती के-
ललाट के चन्दन !

तुमसे सुख हार गया
जीवन में लड़ते-लड़ते
मगर दुःख साथ रहा
सदा-सदा ,उम्र भर
हे सरस्वती के अनन्य आराधक
अद्वितीय साधक
वाणी के वरद पुत्र
तुम्हारे व्यक्तित्व का विस्तार
ही तो है
तुम्हारा अप्रतिम रचना संसार

हे फक्कड़ युगद्रष्टा !
मनमौजी मलंग
साथ-साथ जन्म  लिए
तुम और अनंग
था तो मधुरिम बसंत
मगर तुम्हे भा गया
पतझड़ अनंत

हे सुन्दर काव्य-घन बरसानेवाले
बंधनमुक्त सर्जक
जीवन के मरुथल में
चले सदा नंगे पाँव
सुविधाओं को दुत्कारा
सिंहासन को ललकारा -
'अबे सुन बे गुलाब !'
हे राम की शक्तिपूजा
समर्पण के तुलसी
मन के कबीर
वात्सल्य के सूर
फुटपाथ के मसीहा
पत्थर तोडती बाला के
माथे पर झलकते श्वेद बिंदु
पेट-पीठ एक किये-
दो टूक कलेजे के
जख्मों के मरहम
'कल्लू बकरिहा '
'चतुरी चमार '
के यारों के यार !
हे प्रलय के आवाहक
'एक बार बस और नाच तू श्यामा'
और फिर अंत में
'दुःख ही जीवन की कथा रही'

हे महादेवी के वीर जी !
साक्षात् काव्यपुरुष
समय पर साहित्य के हस्ताक्षर
जीवन का हलाहल
हँस-हँस पीते रहे
कविता लिखी कहाँ
 कविता ही जीते रहे

चिर वन्दनीय है
तुम्हारा साहित्य सृजन
स्वीकारो
हे महाप्राण
कोटि-कोटि वंदन !  


Thursday, February 10, 2011

बसंत पंचमी की शुभ तिथि पर .....आ जा मातु भारती

(कल बसंत पंचमी का सुन्दर एवं पावन पर्व था | संयोगवश मुझे कल प्रातःकाल ही यात्रा पर जाना पड़ा | आज अभी शाम को वापस लौटा हूँ |  कल कला ,साहित्य और संगीत की देवी माँ सरस्वती का जन्मदिन था | साथ ही साथ कामदेव की भी जयंती थी | हिंदी साहित्याकाश के दैदीप्यमान सूर्य पं० सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' जी का भी जन्म दिवस था | यात्रा में होने के कारण ब्लॉग पर कल कुछ पोस्ट न कर सका )
        आज माँ वीणापाणि की वंदना के दो छंद पोस्ट करके माँ की पूजा-अर्चना अवश्य करना चाहूँगा |
          
                                    .....आ जा मातु भारती 
     
     घोर  तम  विदारती  प्रसारती   प्रकाशपुंज ,
     सुकृति   सुयश    छंद-बंध  को   सुधारती |
     लोभ मोह ईर्ष्या-पिशाचिनी विनाशती  माँ ,
     कवित-विवेक    रस    रचना      सँवारती |
     वीणा वर धारि कर   कमल सुआसनी  माँ ,
     धवल   सुवस्त्र        वेद मंत्रन     उचारती |
     मारती मदान्धता     संहारती  सकल दुष्टि,
     आ जा मातु भारती तू आ जा मातु भारती |

     आदिशक्ति   जगजानकी  तू है   त्रिकाल  रूप ,
     आज  तू  समाज  में  विराज  मातु   दाहिनी |
     शक्ति के समेत   विष्णु  ब्रह्म  हे पुरारि   नाथ ,
     काली  हे   कराल रूप    पाप-ताप    दाहिनी |
     साजि दे समाज अम्ब कवियों की भावना भी ,
     करि   दे   अभय     पाहिमाम   विश्वपाहिनी |
     मातु  हंसवाहिनी  तू आ जा रे  बजाती  वीन ,
     सिंह  पे सवार  मातु   आ जा    सिंहवाहिनी |
  



Monday, February 7, 2011

कुछ बासंती छंद ...

चिड़ियन  सी चहक चमक चंचलता चपला सी ,
चंदा  की  चाँदनी   सी  चित  की  सितलाई है |
चन्दन  सी  चारु  महक  चटकीली  चंपा  सी ,
चकित    चकात   जात    चटक   गोराई   है |
कचक  कचोट चोट  चितवनि  सुलोचनि की ,
रुचिर    सुचक्री      चितचोरनी     बनाई  है |
चकई  चकोर  प्रीति   चलत  सुचाल  ब्याल ,
चित चोरिबे  को चली   चित  में   समाई  है |

लखिकै चहुँ ओर  सुनैनन सों  जस मोरनी कंठ  घुमाय गयी |
चमकी-दमकी बिजुरी बनिकै  बिजुरी जियरा पै गिराय गयी |
रूप की रानी सयानी जवानी सों पानी मा आगि लगाय गयी |
उर पीर उठै  न घटे  न बढे  अस  नैन सों  तीर  चलाय गयी  |

सखि लागेहु बौर रसाल की डाल सुगंध समीर हू डोलन लागे |
फूलि रहीं सरसों  अलिहूँ सखि !  कोष पराग के खोलन लागे |
प्रीति भरी रससानी सी बानी में कोकिल को मन बोलन लागे |
स्वाती के बूँद लखौं अजहूँ पिय आये नहीं कछु नीक न लागे |

ऋतुएँ नहि सोहैं बसंत बिना  निशि चंद बिना  कवि छंद बिना |
नहि सोहै सुमन मकरंद बिना जिमि कामिनि प्रेम प्रबंध बिना |
भगवान न सोहत भक्त बिना   वन सोहै   न  मत्त गयंद  बिना |
छलकै रस कुम्भ  सुरेन्द्र चहै  पर  नारि  न सोहत कंत बिना |

Saturday, February 5, 2011

नव दोहे

जंगल  के  कानून में  , न्याय का हो सम्मान |
मछली चाहे मगर से  ,  जैसे       जीवनदान |

घर-घर अँधियारा घुसा ,सपना हुआ विहान |
मुट्ठी में  सूरज  लिए  ,   हँसता है  शैतान |

घड़ियाली आँसू  भरे , नैनों की बरसात |
जाने कैसे दिन लिखे,  जाने  कैसी रात |

सदा  छला   जाता  रहा,  बेबस वन हर बार |
पोल खुली फिर भी जमा, राजा रँगा सियार |

जहर भरी फुफकार से, मची है भागम-भाग |
बीच सड़क पर नाचते ,  आस्तीन  के  नाग |

मन मनमानी  कर रहा, गूँगा हुआ  जमीर |
भरी सभा में खिंच रही, द्रुपदसुता की चीर |

मौसम ने कुछ यूँ किया, धरती से खिलवाड़ |
वन-उपवन मुरझा गए, खिले झाड़-झंखाड़ |

तेरे  तो  दिन  चार  हैं,  मेरे   वख्त  तमाम |
पतझड़ ने पाती लिखी, है   बसंत  के  नाम |

आज हाशिये पर हुए , कर्ण और  हरिचंद |
मुख्यपृष्ठ पर उभरते , जाफ़र औ जयचंद  | 

Friday, February 4, 2011

...बसंत अगवानी कौन करेगा ?

बौरी हुई आम डालियों पे  उल्लुओं  का डेरा ,
कोकिला  ने   कुहुक  लगाई   कौन   सुनेगा ?
दाने-दाने को  जहाँ  तरस रही   जिन्दगी है ,
मालयी  समीर  भला    पेट    कैसे    भरेगा  ?
छाया  पतझार   जहाँ   बारहों  महीने    वहाँ ,
आइके    बसंत   एक बार    काव     करेगा  ?
चीथड़ों  में लिपटी   सिसकती   बसंती, कहो -
गाँव   में   बसंत-अगवानी    कौन   करेगा ?

Tuesday, February 1, 2011

'हिस्सा.....

भेड़िया जैसा
वहशी आँखों से घूरता
थाने का दारोगा बोला -
'क्यों बे !
कहाँ से आया है ?
क्या मुसीबत लाया है ?'
थर-थर कांपता..
शरीर पर चढ़े चीथड़ों को ढांपता..
सहमता...गिड़गिड़ाता..
हरखू बोला ;
'माई-बाप !
गड़हिया गाँव से आया हूँ..
घर में चोरी हो गयी...
चोर सब कुछ उठा ले गए
कुछ भी नहीं बचा..हमारे पास
अब तो बस , आप ही की है आश
हुजूर ! मुझे न्याय दिलाइये
मुझे   बचाइए
नहीं तो
थाने तक आने के जुर्म में
वे हमें सतायेंगे
हम खाली पेट भी
जिंदा नहीं रह पाएंगे '
दारोगा हँसा....बाघ की हँसी
बुदबुदाया--'साले बेईमान चोर !
सब उठा ले गए
हमारा हिस्सा भी खा गए !'
फिर घूमा और डपटकर बोला--
'जा , भाग जा
आइन्दा जब चोरी हो
और कुछ बच जाये
तभी मेरे पास आना
कंगाल बनकर...खाली हाथ
थाने में मुँह मत दिखाना '