Monday, March 28, 2011

देश की अखंडता बचाइये

देश के लिए  जिए जो , देश के लिए लड़े जो ,
देश   के   लिए  मिटे जो ,   उनको  नमन है |
सारे  सुख-साज़-राज  त्यागि ,कूदे  देश की-
स्वतंत्रता की  आग में जो  उनको  नमन है |
हो गए शहीद , आज  तक  गुमनाम  हैं जो ,
भारती  के  भाल    लाल,  उनको   नमन है |
देश  की  स्वतंत्रता   ही   जिनका  था  धर्म,
चूमे फाँसी फंद शान से जो उनको नमन है |

शान्ति , सदभाव ,  सर्वधर्म -  समभाव  की ,
सदा  से  मेरे  देश  में   परम्परा   महान  है |
एक ओर श्याम की  विरह में दिवानी मीरा ,
एक   ओर  श्याम  रंग    डूबा   रसखान  है |
राम का आदर्श ,  गुरु नानक   का  उपदेश ,
सार जिन्दगी  में   ढाई आखर  का ज्ञान है |
आपसी लड़ाई में  , मिटा  दिया   इसे कहीं ,
तो कैसे कह पाओगे  कि  भारत महान है ?

द्वेष  रखने  से   फूट   देश  में  बढ़ेगी  मीत ,
हो   सके  तो    द्वार-द्वार   प्रेम    उपजाइए |
एकता जरूरी है  , भुला के सारा भेद आज ,
देश   है   पुकारता   कि  एक   बन  जाइए |
जाति या धरम चाहे भाषाएँ अनेक किन्तु ,
सारे   भारती   हैं ,  भारतीयता   जगाइए |
राष्ट्र  खतरे  में , कहीं हो न जाए खंड-खंड ,
मीत  आज  देश  की  अखंडता   बचाइए |


Wednesday, March 23, 2011

होते हैं जो शहीद कभी मर नहीं सकते

आज शहीदे आज़म सरदार भगत सिंह एवं  उनके अभिन्न क्रन्तिकारी साथी राजगुरु और सुखदेव की   पुण्य तिथि है  | सांडर्स हत्या प्रकरण में २३ मार्च १९३१ को इन भारतमाता के अमर पुत्रों को अंग्रेजों द्वारा 
 फाँसी की सजा दे दी गयी | देश की आज़ादी के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले इन्ही क्रन्तिकारी शहीदों की देन है हमारे देश की आज़ादी | 
       मात्र २३ वर्ष ३ माह २५ दिन की उम्र में सरदार भगत सिंह को फांसी दीगयी| अन्य क्रांतिकारियों  की  तुलना में सरदार भगत सिंह की लड़ाई कुछ लीक से हटकर थी |  जहाँ अनगिनत आज़ादी के योद्धा  देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने के लिए अपने प्राण हथेलियों  पर रखकर जूझ रहे थे , वहीं सरदार भगत सिंह देश को अंग्रेजों की दासता के साथ-साथ साम्राज्यवाद के चंगुल से भी मुक्त किये जाने का संकल्प लिए आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे थे | उनका मानना था कि जब तक  देश की सर्वोच्च सत्ता में   किसानों  और  मजदूरों  का  वर्चस्व  नहीं  होगा ,देश को वास्तविक  आज़ादी  नहीं  मिल  सकती |  उनकी  विचारधारा    शत प्रतिशत प्रासंगिक होते हुए भी आज तक अधर में ही है |  स्वार्थलोलुप राजनेता उनकी  विरासत को छिन्न-भिन्न करने में लगे हैं |
       हम सरदार भगत सिंह के सपनों का भारत बनाने में स्वयं का जितना योगदान कर सकें, कम है | सरदार भगत सिंह एवं उनके साथी क्रांतिकारियों, राजगुरु और सुखदेव के अमर बलिदान के प्रति  हमारी सच्ची श्रद्धांजलि भी यही होगी |

    और अंत में बस इतना ही.........
                                                   अन्याय जो बर्दास्त कभी कर नहीं सकते |
                                                   बन्दूक, तोप से भी वे कभी डर नहीं सकते |
                                                   हर दिल  में    सदा रहते  शूरवीर  की   तरह ,
                                                   होते हैं जो   शहीद   कभी मर   नहीं   सकते |

                                                    गुंडों का नहीं है ये दलालों का नहीं है |
                                                    डंडों का नहीं है   ये हवालों का नहीं है |
                                                    यह देश है  हमारे शहीदों की अमानत ,
                                                    यह   देश,   देश बेंचनेवालों   का नहीं है |
           

Saturday, March 19, 2011

होली कै हुडदंग

(आप सभी को सपरिवार रसरंग पर्व होली की हार्दिक मंगलकामनाएं | दिलों की दूरियाँ ख़त्म हों , नजदीकियां बढ़ें |
प्रेम की गंगा में सराबोर हों | आसुरी वृत्तियों का नाश हो  , सदवृत्तियों का विकास हो | हर प्राणी प्रसन्न और सुखी हो | अपना भारत विश्व का शिरमौर बनें , हार्दिक कामना है |
       आज होली पर मैं अपनी एक, मंचीय अवधी रचना  प्रस्तुत कर रहा हूँ , उम्मीद है अच्छी लगेगी )

                          "भरी फागुनी उमंग आज अंग-अंग म़ा"

अबकी साल  मचाऊ होली  म़ा ऐसन   हुडदंड
कहूँ अबीर गुलाल चलै औ कहूँ धकाधक रंग

              खेलैं बूढ़ औ जवान  लरिकन  संग मा
              भरी फागुनी उमंग आज अंग-अंग मा

होरिहारन कै फ़ौज चली है बाजै मारू बाजा
एक रंग मा रंगिगे सगरौ रंक होंय या राजा

लिहे हाथ  पिचकारी  अठिलाय कै चली
भीगी भीगी देह सारी  बल खाय कै चली
संगे सखी-सहेली सारी अरराय  कै चली
जीजा भागे देखौ साली डुडुवाय  कै चली

           सालिन बीच फँसे जीजाजी  भूली हक्की-बक्की
           जाड़ के मारे थर-थर काँपैं दाँत चलै जस चक्की

कुरता होइ गवा रुमाल इ बनाय कै चली
औ पिराय दूनव गाल  अघवाय  कै चली

          हारि   मानि  बैठे  हैं   मैदाने जंग मा ..
          खेलैं बूढ़ औ जवान लरिकन संग मा...

जेकरे कबौ बोल न फूटै    बनी हैं  आज सयानी
मिलै न रंग तबौ नहवावैं भरि-भरि गगरा पानी
रंग   भरी  है  झोली   इनकै  रंग   भरी  है बोली
यहि कोने  से  वहि कोने तक  छूटैं  जैसै  गोली

उडै  लाल रंग    मंगिया के बीच परै
केऊ बेही   अनबेही  न जनाय  परै
         झूमैं पेड़ औ पकडिया नयी तरंग मा ...
         खेलैं बूढ़ औ जवान लरिकन संग मा ...भरी फागुनी उमंग आज अंग अंग मा


 

Tuesday, March 15, 2011

नव गीत

आने को आया है मौसम मनभावन 

           आग राग गाती हैं मौसमी  बहारें |
           सूखे जले पत्तों को बुहारतीं बयारें |

गालों पर फागुन है आँखों में सावन ...

          कोयल मृदुबैनी है तन-मन की काली |
          कौए से  करवाती  शिशु की रखवाली |

छलनाओं के कर में सपनों का दरपन...

           इच्छायें ऊँची ज्यों कचरे पर कचरा |  
           हाथों से गर्दन तक फूलों का गजरा  |

कोठे पर मन बैठा मंदिर में नरतन.....

          आशा तो फ्यूज बल्ब होल्डर में अटकी |
          जीत  हाथ  आते  ही मछली सी छटकी |

गले बँधी टाई सा हार का अपनपन ....
       

Thursday, March 10, 2011

फागुन के रस माते दोहे

       फगुनाया सूरज  उठा , अरुणिम बालस्वरुप |
       आँगन-आँगन बाँटता,  अँजुरी-अँजुरी   धूप |

       रजनी  रूप   सँवारती,  कजरे-कजरे    केश |
       बदरी-बदरी    चंद्रमा ,  आये   अपने     देश |

       गोरी  ठाढ़ी  द्वार  पर, पिय-पथ  रही  निहार |
       मदिरा-मदिरा नैन हैं ,  अंग-अंग   कचनार |

       कविता कामिनि के सभी ,टूट गए अनुबंध |
       दोहे    जैसी      देह     थी ,हुई  सवैया  छंद |

       फागुन गुन-गुन गा रहा, पिए गुनगुनी धूप |
       सरसों सरसों मन लगे , टेसू      टेसू    रूप |

       सूखि गयी लकड़ी भई,पिया मिलन की चाह |
       अब घर आ जा जोगिया,जोगिनि  देखे  राह |

       धवल चाँदनी सा  खिला,  गोरी   तेरा   रूप |
       इन्द्रधनुष  के  रंग,जब  पड़े  फागुनी   धूप |

       राग   और  वैराग में ,  रही  न   कोई  जंग |
       एक   रंग  दोनों  रँगे , पिए   दूधिया   भंग |

     नैन सैन,चितवन,चुभन, मान और मनुहार |
     अंगुरी दाबे  रस  चुवै,  गुझिया  जैसा  प्यार |

    फागुन में भी पिया जब, लिए न घर का हाल |
    भाभी   के   नैना   झरैं,   देवर   बना   रुमाल |

     फागुन  की सीढ़ी चढ़ा, फिसल  गया   वैराग |
     गिरा अनंगी रंग  में,  नस-नस  फूटी   आग |

     फागुन  वृन्दावन गयो , भूलि गयो निज  नाम |
     राधे-राधे  रमि   गयो,  वन-वन खोजत श्याम |

Saturday, March 5, 2011

कविता......, खर्चती साँसें......

                  कविता ..

     जो भी व्यक्त हो रही है 
     कविता नहीं है 
     कविता है वह 
     जो व्यक्त होना चाहते हुए भी
     अव्यक्त है
     बंद है अंतस में
     उस भँवरे की तरह
     जो साँझ होते ही
     बंद हो जाता है
     कमल की पंखुड़ियों में
     कविता और भँवरा
     दोनों को इंतज़ार है
     सुबह  के सूरज का  
     ताकि बंधनमुक्त हो
      उड़ सकें
     वे अपने
     उन्मुक्त आकाश में
     किन्तु दोनों के
     सूरज हैं अलग-अलग
     भँवरा
     मुक्त हो जाता है
     आते ही  
     अपने सूरज के
     पर कविता
     जीती है
     एक सतत घुटन
     अपने सूरज की
     अनवरत प्रतीक्षा में....

                  खर्चती साँसें.....

      बेवजह ही
     खर्च होती जा रही हैं
     जिंदगी की साँसे...
     उन
     फुटकर रुपयों की तरह
     जो नोट से टूटकर
     इस  महँगाई में
     जाने अनजाने
     राशन
    आलू-प्याज..
    की खरीदारी पर
    जेबों से खुद बखुद
    निकलकर
    खर्च हुए  जा रहे हैं....  


Thursday, March 3, 2011

महाशिवरात्रि पर ..भावी हू मेटि सकैं त्रिपुरारी

भाल पे चन्द्र जटाओं में गंग  सुकंठ  पे  ब्याल  रहा   फुफकारी |
हाथ त्रिशूल विराजत नाथ के   देवों  के देव  की है  छवि न्यारी |
वाम   सुसाजति   मातु महा   जननी जग की  जग पालनहारी |
और जो देव  करें  सो करें  पर   भावी  हू  मेटि  सकैं   त्रिपुरारी |


गौर शरीर पे भस्म  चिता की  ये बाबा जी  देखो  लगाये हुए हैं | 
तीनिहु लोक के मालिक आप   पहाड़ पे   धूनी   रमाये   हुए हैं |
वेश   असुंदर   धारे  हुए   पर   सुन्दर   सृष्टि    सजाये    हुए हैं |
आप  मे  विश्व समाया  हुआ पर   भक्तों  मे आप समाये  हुए हैं |