नोच डालूँ नकाब
अपने चेहरे का
नोच-नोच कर फेंक दूं
वे सारे पर सुर्खाब के
जो लोगों ने
जबरदस्ती
मुझमे जमा रक्खा है
मैं
जो अब तक
आदमी नहीं बन सका
बेवजह
लोगों ने
फ़रिश्ता बना रक्खा है
भरी बाज़ार में नंगा कर दूँ
अपने अंतस में छिपे शैतान को
और
चिल्ला-चिल्ला कर बता दूँ
हर खासो आम को
अपनी असलियत
दिखा दूँ ...
शराफत के परदे में
पल रही हैवानियत
जिंदगी और मौत
में
क्या फर्क है ....
भूल जाऊँ
पश्चाताप की आग में जलूँ
और जलकर
यदि निखर सकूँ कुंदन सा
तो निखर जाऊँ
और यदि नहीं
तो अपने अंतस के राक्षस को
मजबूती से पकड़कर
उसी के साथ.....
अपने इंसान के हाथों
फाँसी का फंदा बनाकर
खड़ा-खड़ा झूल जाऊँ
मैं
ReplyDeleteजो अब तक
आदमी नहीं बन सका
बेवजह
लोगों ने
फ़रिश्ता बना रक्खा है
Khoob..... Man ko Udwelit karati panktiyan...
ऐसा अंतर्द्वंद ही इंसान तो आम इंसान से अलग करता है ..अच्छी अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत खतरनाक इरादे है झंझट भाई आपके.
ReplyDeleteजो आपकी नेक नियति का बयान कर रहे हैं.
आप ईश्वर के करीब जा रहें हैं,ऐसा आपकी
छटपटाहट से जाहिर है.
प्रभु शान्ति प्रदान करें.
ओम् शान्ति,शान्ति,शान्ति !
Bahut umda rachana . aabhar
ReplyDeleteऔर यदि नहीं
ReplyDeleteतो अपने अंतस के राक्षस को
मजबूती से पकड़कर
उसी के साथ.....
अपने इंसान के हाथों
फाँसी का फंदा बनाकर
खड़ा-खड़ा झूल जाऊँ
vyathit bhavpravan abhivyakti.
ऐसे अंतर्द्वंद्व और अंतर्विरोधों के बीच झूलती मानसिकता की अच्छी तस्वीर बनाई है आपने. बढ़िया.
ReplyDeletebaahut he sundar
ReplyDeleteबेहद गहन चिन्तन्।
ReplyDeleteआज आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
ReplyDelete...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर
जलकर
ReplyDeleteयदि निखर सकूँ कुंदन सा
तो निखर जाऊँ
वाह आत्म मंथन का अद्भुत उदाहरण है ये कृति| बधाई बन्धुवर|
बेहतर है मुक़ाबला करना
जलकर
ReplyDeleteयदि निखर सकूँ कुंदन सा
तो निखर जाऊँ
जल कर निखरने में ही सभी की भलाई है .
संसद और विधानसभा में बैठने वाले लोगों का आत्ममंथन लग रहा है ये
ReplyDeleteमजबूती से पकड़कर
ReplyDeleteउसी के साथ.....
अपने इंसान के हाथों
फाँसी का फंदा बनाकर
खड़ा-खड़ा झूल जाऊँ
......अंतर्द्वंद..अच्छी अभिव्यक्ति
अंतर्द्वंद्व और अंतर्विरोधों की अच्छी तस्वीर, बधाई
ReplyDeleteआत्म मंथन और अंतर्द्वंद्व की सार्थक और सशक्त अभिव्यक्ति ...
ReplyDeleteजिंदगी और मौत
ReplyDeleteमें
क्या फर्क है ....
भूल जाऊँ
पश्चाताप की आग में जलूँ
और जलकर
यदि निखर सकूँ कुंदन सा
तो निखर जाऊँ
waah, bahut badhiyaa
अपने आप से झुझते हुए इंसान का चित्रण,
ReplyDeleteजिंदगी और मौत
ReplyDeleteमें
क्या फर्क है ....
भूल जाऊँ
पश्चाताप की आग में जलूँ
और जलकर
यदि निखर सकूँ कुंदन सा
तो निखर जाऊँ ........
आत्म मंथन की अद्भुत और सशक्त अभिव्यक्ति........
लाजवाब रचना.......
वाह वाह ! ऐसा अंतर्द्वंद !!
ReplyDeleteअदितिय रचना कहीं आदमी जिंदा है आप में जो चीखना चाहता है बाहर आना चाहता है , यह हर मनुस्या की मनः स्थिति है जो जिंदा है जो केवल जी नही रहा है ,
अदभुद शब्द-शिल्प अदभुद विचार !
यह वो जीवन है जो हम जी रहे हैं या शायद वो हमैन खींच रहा है अंत की ओर !!
लोग मार चुके हैं अपने जमीर को और उनके भीतर कहीं वो आदमी नही जिंदा जो ऐसे अंतर्द्वंद को पैदा करे !
{{ केवल कॉमेंट के लिए कुछ लाइन्स कॉपी और पेसटे करना यही करते हैं ब्लॉग जगत के लोग }} sorry if i heart some -once feelings !
इसी स्वगत कथन खुद से गुफ़्त -गू के दौरान निषेचित और प्रसवित होती है रचना .जिसके भीतर का यह आदमी ज़िंदा है उसके सुधार की शुरुआत हो चुकी है ."गिरतें हैं शह-सवार ही मैदाने जंग में ,वह तिफ्ल क्या जो रेंग के घुटने के बल चले ".बहुत अच्छी रचना खुद से खुद को मिलवाती हुई .भाई पार्थ यदि ब्लोगिये भी आम को ख़ास बतलातें हैं तो वह भी तो इसी समाज के उप -उत्पाद हैं .इतर ग्रह वासी तो नहीं हैं न .इसमें बुरा मान ने की क्या बात है ?अंतर -दर्शन तो अंतर दर्शन है जब हो जाए ठीक .जो करवादे उसका शुक्रिया .
ReplyDeleteक्या नेक इरादे हैं ज़नाब के...बधाई
ReplyDeleteThe inner turmoil, churning, anxiety and helplessness originated due to atrocities in our society is beautifully expressed in this creation . Very impressive indeed.
ReplyDeleteहर आदमी इस अंतर्द्वंद्व से कभी न कभी गुजरता है। लेकिन इस अनुभूति को केवल आप ही शब्दों में बांध सकते हैं।
ReplyDeleteएक उत्कृष्ट कविता के लिए बधाई।
ये हमारी सच्चाई है ,हममे ही राक्षस छुपा होता है जिससे अघोषित युद्ध चलता रहता है.ये हमारी ईमानदारी है कि हम इसे स्वीकार करें .बहुत अच्छी लगी
ReplyDeleteहमेशा की तरह अच्छी रचना .. बधाई l
ReplyDeleteबहुत खूब ... आत्ममंथन करती है रचना .... अपने आप से लड़ती है ... बदलाव की शुरुआत इसी से होती है ...
ReplyDeleteकाश राक्षसी प्रवृत्ति वाले आपकी बात समझ पाते.
ReplyDeleteप्रिय ब्लोग्गर मित्रो
ReplyDeleteप्रणाम,
अब आपके लिये एक मोका है आप भेजिए अपनी कोई भी रचना जो जन्मदिन या दोस्ती पर लिखी गई हो! रचना आपकी स्वरचित होना अनिवार्य है! आपकी रचना मुझे 20 जुलाई तक मिल जानी चाहिए! इसके बाद आयी हुई रचना स्वीकार नहीं की जायेगी! आप अपनी रचना हमें "यूनिकोड" फांट में ही भेंजें! आप एक से अधिक रचना भी भेजें सकते हो! रचना के साथ आप चाहें तो अपनी फोटो, वेब लिंक(ब्लॉग लिंक), ई-मेल व नाम भी अपनी पोस्ट में लिख सकते है! प्रथम स्थान पर आने वाले रचनाकर को एक प्रमाण पत्र दिया जायेगा! रचना का चयन "स्मस हिन्दी ब्लॉग" द्वारा किया जायेगा! जो सभी को मान्य होगा!
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हेल्लो दोस्तों आगामी..
अंतरात्मा की आवाज ! अच्छा होता सभी इसी तरह की सोंच और सुधर के आदि होते और दूसरो पर अंगुली उठाने के बदले अपने अन्दर झाँक कर देखते और झुझालातें ! बहुत सुन्दर कविता !
ReplyDeleteअंतर्द्वंद्व की सशक्त अभिव्यक्ति
ReplyDeleteसुरेन्द्र जी बड़ी ही ओजपूर्ण और झटके देने वाली रचना...सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteकाश ये अनुभूति हिन्दुस्तान के रहनुमाओं को भी हो .
ReplyDeletes
मन के भीतर से उपजे गहरे भाव।
ReplyDelete------
TOP HINDI BLOGS !
सुरेन्द्र भाई, लाज़वाब कर दिया आपने......
ReplyDeleteसादर...
आपके इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवारीय चर्चा मंच पर भी आप तशरीफ लाएं और अपने सुझावों से अवगत कराएं लिंक-http://charchamanch.blogspot.com/
ReplyDeleteशायद कुछ आचरणों पर बहुत ही सूक्ष्म और तीक्ष्ण कटाक्ष है.यह आत्म-मंथन होने लगे तो जग में एक चहरे पे कई चहरे न हों.
ReplyDeleteबेहद खुबसुरती से आपने चित्रित किया है इंसान के अंदर बसे हुए शैतान को। वैसे हर इंसान के अंदर एक शैतान रहता है। खुबसुरत रचना। आभार।
ReplyDeleteभरी बाज़ार में नंगा कर दूँ
ReplyDeleteअपने अंतस में छिपे शैतान को
और
चिल्ला-चिल्ला कर बता दूँ
हर खासो आम को
अपनी असलियत
दिखा दूँ ...
शराफत के परदे में
पल रही हैवानियत
बुद्धि का अंकुश ही इस हैवान को
इन्सान बनाए रखता है ||
बहुत बढ़िया प्रस्तुति ||
बेवजह
ReplyDeleteलोगों ने
फ़रिश्ता बना रक्खा है ....
बढ़िया प्रस्तुति....... आभार।
पश्चाताप की आग में जलूँ
ReplyDeleteऔर जलकर
यदि निखर सकूँ कुंदन सा
तो निखर जाऊँ !
Waah ! Antardwand ko paribhashit karne ka kya khoob tarika bataya aapne... Badhai..
सुरेन्द्र भाई ,
ReplyDeleteछन्द बद्ध कविता में तो आपको महारथ हासिल है ही मगर छन्द मुक्त कविता में भी आपका जवाब नहीं ! आदमी के बस आदमी बने रहने की अकुलाहट का आपने जो शब्द चित्र उकेरा है उसे पढ़कर निशब्द हूँ !
आभार !
मन के शैतान को बाहर लाना आसान नहीं है ..
ReplyDeleteये द्वंध ता उम्र चलता है ..मन की भीतर
कौन सचा कौन झूठा ....कोई साबित नहीं कर पाया
आपको बधाई की आपने अपने मन के सच को लिखने की हिम्मत की
हर इंसान...दो चहेरे लिए पूरी उम्र जीता है ..........
--
मैं
ReplyDeleteजो अब तक
आदमी नहीं बन सका
बेवजह
लोगों ने
फ़रिश्ता बना रक्खा है
मर्मस्पर्शी एवं भावपूर्ण काव्यपंक्तियां....
bahut hi bebak abhivyakti!!!!!!!!
ReplyDeleteसुन्दर रचना बधाई
ReplyDeleteभाई सुरेन्द्र जी आपकी यह कविता बहुत ही सुंदर है बधाई |आपकी टिप्पणियाँ भी बहुत प्रभावशाली असर छोड़ती हैं |
ReplyDeleteबहुत ही उत्तेजनात्मक कविता है.. और हर एक की सच्चाई भी.. अच्छी लगी..
ReplyDeleteपरवरिश पर आपके विचारों का इंतज़ार है..
आभार
kash ye netaaon ke man ka antardwand hotaa!!!
ReplyDeletebahut hi khub likha hai apne,,,,,,
ReplyDeletejai hind jai bharat
aadenniya surendra ji.. aapke baare mein bahut kuch kahna hai...civil engineering se hindi mein snatkottar aapke hindi ke prati agadh prem ko pradarshir karta hai...hazaron kavitayein sirf dil mein kampan paida kar pati hain..per aapki kavitayein jhakjhor deti hain... aapne likha samman ke layak samjhta nahi logon ne kar diya..main kahta hoon ..shradha to natmastak hoti ho shradheya agar koi...aap samman ke patra hain..isliye samman ka ye samman hai ye to..aur aap mere padosi hain..bahhnan se gonda kitni door hai..phir eun hi kisi roj mulakat hogi phir baithege phir baat hogi...
ReplyDeleteबस सोच रही हूँ कि कितने लोग संसार में हैं ऐसे जो इस तरह से अपने को देख पाते हैं.....
ReplyDeleteयदि इस तरह देख पायें तो स्थान ही कहाँ बचे किसी शैतान के लिए...
अप्रतिम रचना !!!!
वन्दनीय...अनुकरणीय चिन्तन...
ReplyDeleteयकीन मानिए झंझट साहब ये पंक्तियाँ एक आवेग में बहा लेजाती हैं पूरी की पूरी शख्शियत को मेरी, तेरी, काले चोर की ,उस बिजूके की ,रोबो की, जो कहता है -वोट मिला भाई वोट मिला ,पांच साल का वोट मिला .
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लगा ! लाजवाब प्रस्तुती!
ReplyDeleteमेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com/
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
राक्षस को मारिए भाई जी ख़ुद फांसी पर झूलना मूर्खता हे...बहुत अच्छी रचना
ReplyDeleteऔर यदि नहीं
ReplyDeleteतो अपने अंतस के राक्षस को
मजबूती से पकड़कर
उसी के साथ.....
अपने इंसान के हाथों
फाँसी का फंदा बनाकर
खड़ा-खड़ा झूल जाऊँ
अंतस को झकझोरती हुई बेहतरीन रचना.
waiting for new creation
ReplyDeleteकाश मानव ऐसा कर पाए ....बेहतरीन रचना के लिए आभार !
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनायें ..
bahut hi achi rachna...
ReplyDeletejai hind jai bharat
मैं
ReplyDeleteजो अब तक
आदमी नहीं बन सका
बेवजह
लोगों ने
फ़रिश्ता बना रक्खा है
वाह भाई जी क्या गज़ब का साहस दिखाया है इस बार....अनुकरणीय !