बाग़ सूखने लगे |
झाड़ झूमने लगे |
साँप आस्तीन के ,
कंठ चूमने लगे |
क्रान्ति का घोष था ,
लोग ऊँघने लगे |
हम तो आदर्श को ,
सिर्फ पूजने लगे |
देखिये तो ! मधुप-
स्वर्ण सूंघने लगे |
उसने सच कह दिया ,
लोग ढूँढने लगे |
गाँव के पहरुए ,
गाँव लूटने लगे |
हम स्वयं का पता ,
खुद से पूंछने लगे |
स्वार्थ के सिन्धु में ,
हंस डूबने लगे |
शूल ने छू लिया ,
ज़ख्म पूरने लगे |
सुरेन्द्र जी
ReplyDeleteवाह..क्या खूब...बहुत लाजवाब
स्वार्थ के सिन्धु में ,
ReplyDeleteहंस डूबने लगे |
...सच्चाई बता दी......जबर्दस्त
करीब १५ दिनों से अस्वस्थता के कारण ब्लॉगजगत से दूर हूँ
ReplyDeleteस्वार्थ के सिन्धु में ,
ReplyDeleteहंस डूबने लगे |
शूल ने छू लिया ,
ज़ख्म पूरने लगे
वाह धारा प्रावाह ...और बेहद सटीक.
बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteबेशक अच्छा लिखते हैं आप
ReplyDeleteस्वार्थ के सिन्धु में ,
ReplyDeleteहंस डूबने लगे |
शूल ने छू लिया ,
ज़ख्म पूरने लगे
बहुत अच्छी रचना....... सच कहती हुई.......
उसने सच कह दिया,
ReplyDeleteलोग ढूँढने लगे|
गाँव के पहरुए,
गाँव लूटने लगे|
बहुत सुंदर रचना बन पड़ी है.
'हम स्वयं का पता ,
ReplyDeleteखुद से पूंछने लगे'
हालात का अच्छा चित्रण, भई वाह!
क्रान्ति का घोष था ,
ReplyDeleteलोग ऊँघने लगे
उसने सच कह दिया ,
लोग ढूँढने लगे
स्वार्थ के सिन्धु में ,
हंस डूबने लगे
सुभान अल्लाह...छोटी बहार में कमाल की ग़ज़ल हर शेर बेहतरीन है...दाद कबूल करें.
नीरज
हम स्वयं का पता ,
ReplyDeleteखुद से पूंछने लगे |
स्वार्थ के सिन्धु में ,
हंस डूबने लगे |
bahut hi badhiyaa
गाँव के पहरुए ,
ReplyDeleteगाँव लूटने लगे |
उम्दा अभिव्यक्ति.....
लाजवाब....
ReplyDeleteबेहतरीन रचना सुरेन्द्र भाई....
सादर...
आज के हालत की सच्चाई बयान कर दी
ReplyDeleteधन्यवाद
आपके दिए झटकों में
ReplyDeleteहम तो झुलने लगे
इस खूबसूरत प्रस्तुति के लिए
बहुत खूब , बहुत खूब कहने लगे.
एक पोस्ट लिखी कर अब
आपका इंतजार करने लगे.
जरा कंधा थपथपा दीजियेगा झंझट भाई.
स्वार्थ के सिंधु में
ReplyDeleteहँस डूबने लगे ... सरीक कहा है ..अच्छी प्रस्तुति
हम स्वयं का पता,
ReplyDeleteख़ुद से पूछने लगे।
छोटी बहर में बहुत ही अच्छी ग़ज़ल कही है आपने। बधाई।
सच कहा कि निश्चित लोग खोजने लगेंगे
ReplyDeleteउसने सच कह दिया ,
ReplyDeleteलोग ढूँढने लगे |
गाँव के पहरुए ,
गाँव लूटने लगे |
छोटे बहर की उम्दा ग़ज़ल....
हम तो आदर्श को ,
ReplyDeleteसिर्फ पूजने लगे |
waah!!!...kya khub farmaya!!!!
hum sirf aadarsho ko pujna aur unki charcha karna jaante hain....aadarshon ko apnana nahi.....
एक एक लफ्ज सच है आज के परिप्रेक्ष्य मे।
ReplyDeletebahut hi badhiya , har line behtareen ....
ReplyDeletegaanv ke pehruve gaanv lootne lage .
ReplyDeleteगाँव के पहरुवे ,गाँव लूटने लगे .छोटी बहर की सार्थक ग़ज़ल ,जीवन का प्रतिबिम्ब उभारती ,विद्रूपों को बे नकाब करती .बधाई .
ReplyDeleteक्रान्ति का घोष था ,
ReplyDeleteलोग ऊँघने लगे |
छोटी बहर में गई गई उम्दा ग़ज़ल के लिए बधाई बधाई स्वीकार करें सुरेन्द्र भाई|
हम स्वयं का पता ,
ReplyDeleteखुद से पूंछने लगे |
hello Surendra ji
aapki kavita puri bahot achchi hai par ye do line mind-blowing hain.........Surendre ji aapbhi ek baar mere blog ka anusaran kare.......meri blog site hai.......www.shikhakhare.blogspot.com
आपके झटके के सिन्धु में सब डूबने लगे.बहुत बढ़िया.
ReplyDeleteस्वार्थ के सिन्धु में ,
ReplyDeleteहंस डूबने लगे | बहुत ही सुन्दर और चुटीली कविता !
सुरेन्द्र जी घोर कलयुग आ गया -सब उल्टा पुल्टा -हंस चुनेगा दाना पानी कौवा मोती खायेगा
ReplyDeleteदेखिये तो ! मधुप-
स्वर्ण सूंघने लगे |
उसने सच कह दिया ,
लोग ढूँढने लगे |
गाँव के पहरुए ,
गाँव लूटने लगे |
bahut umda kavita...regrds era
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना...
देखिये तो ! मधुप-
ReplyDeleteस्वर्ण सूंघने लगे | सुंदर पंक्तियाँ...बधाई.
द्वार पाल द्वार पर
हाय ऊँघने लगे.
कोयलें स्तब्ध हैं
काग कूकने लगे.
शब्द-भेदी बाण भी
लक्ष्य चूकने लगे.
छोटी बहर की बेहतरीन बेहतरीन बेहतरीन ग़ज़ल.बधाई आपको.
ReplyDeleteक्रान्ति का घोष था ,
ReplyDeleteलोग ऊँघने लगे
उसने सच कह दिया ,
लोग ढूँढने लगे
स्वार्थ के सिन्धु में ,
हंस डूबने लगे
गांव के पहरुये
गाँव लूटने लगे
सभी शेर इतने अच्छे हैं कि समझ नही पा रही किसे किस की तारीफ करूँ। बेहतरीन गज़ल के लिये बधाई।
सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ ज़बरदस्त रचना! बधाई!
ReplyDeleteस्वार्थ के सिंधु में
ReplyDeleteहँस डूबने लगे sachchayee ko kholkar rakh di aapne.....bahut achcha kiya.
बहुत खूबसूरत रचना, सुन्दर रचना पढ़वाने के लिए आभार.
ReplyDeleteसुंदर रचना
ReplyDeleteशब्द थोड़े,भाव पूरे।
ReplyDeleteबहुत लाजवाब ... सार्थक ... सटीक ... कुछ शब्दों में लंबी बात ... गहरी बात ...
ReplyDeleteवाह....छोटी बहर की क्या सुदर गीतमयी गज़ल है.....अति सुन्दर....
ReplyDeleteहम स्वयं का पता ,
ReplyDeleteखुद से पूछने लगे ।
बहुत बढ़िया शेर....वाह।
छोटी बहर की यह ग़ज़ल अच्छी लगी, शिल्प और भाव, दोनों बेहतरीन।
स्वार्थ के सिन्धु में ,
ReplyDeleteहंस डूबने लगे |
शूल ने छू लिया ,
ज़ख्म पूरने लगे
बहुत ही अच्छा लिखा है ।
हम स्वयं का पता ,
ReplyDeleteखुद से पूछने लगे
वाह,
आभार,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
गाँव के पहरुए ,
ReplyDeleteगाँव लूटने लगे |
हम स्वयं का पता ,
खुद से पूंछने लगे |
बहुत ही सटीक और उम्दा लिखा है...
हम स्वयं का पता ,
ReplyDeleteखुद से पूंछने लगे |
स्वार्थ के सिन्धु में ,
हंस डूबने लगे
मेरे प्रिय भाई सुरेन्द्र सिंह जी ...जब भी आप लिखते हैं मौलिकता होती है उसमे ..जिस विधा में भी लिखें छंद , ग़ज़ल, रुबाई, क्षणिका, सब कुछ कभी आपने सामाजिक दायित्वों से नही डिगते ..
बधाई हो भैया जी !!
छोटे बहर की शानदार गज़ल के लिए बहुत बधाई।
ReplyDeleteयह शेर तो अनूठा मुहावरा गढ़ता है...
देखिये तो ! मधुप-
स्वर्ण सूंघने लगे |
...वाह!
usne sach keh diya,log dhondhane lage.Bhai ji apki rachna kuch logon par prahar karti hai. is samay isi rachana ki jaroorat hai. JAI MATAJI.
ReplyDeletehum swyam ka pata khud se puchne laga.....bahut khub......
ReplyDeletejai hind jai bharat