फगुनाया सूरज उठा , अरुणिम बालस्वरुप |
आँगन-आँगन बाँटता, अँजुरी-अँजुरी धूप |
रजनी रूप सँवारती, कजरे-कजरे केश |
बदरी-बदरी चंद्रमा , आये अपने देश |
गोरी ठाढ़ी द्वार पर, पिय-पथ रही निहार |
मदिरा-मदिरा नैन हैं , अंग-अंग कचनार |
कविता कामिनि के सभी ,टूट गए अनुबंध |
दोहे जैसी देह थी ,हुई सवैया छंद |
फागुन गुन-गुन गा रहा, पिए गुनगुनी धूप |
सरसों सरसों मन लगे , टेसू टेसू रूप |
सूखि गयी लकड़ी भई,पिया मिलन की चाह |
अब घर आ जा जोगिया,जोगिनि देखे राह |
धवल चाँदनी सा खिला, गोरी तेरा रूप |
इन्द्रधनुष के रंग,जब पड़े फागुनी धूप |
राग और वैराग में , रही न कोई जंग |
एक रंग दोनों रँगे , पिए दूधिया भंग |
नैन सैन,चितवन,चुभन, मान और मनुहार |
अंगुरी दाबे रस चुवै, गुझिया जैसा प्यार |
फागुन में भी पिया जब, लिए न घर का हाल |
भाभी के नैना झरैं, देवर बना रुमाल |
फागुन की सीढ़ी चढ़ा, फिसल गया वैराग |
गिरा अनंगी रंग में, नस-नस फूटी आग |
फागुन वृन्दावन गयो , भूलि गयो निज नाम |
दोहे जैसी देह थी ,हुई सवैया छंद |
फागुन गुन-गुन गा रहा, पिए गुनगुनी धूप |
सरसों सरसों मन लगे , टेसू टेसू रूप |
सूखि गयी लकड़ी भई,पिया मिलन की चाह |
अब घर आ जा जोगिया,जोगिनि देखे राह |
धवल चाँदनी सा खिला, गोरी तेरा रूप |
इन्द्रधनुष के रंग,जब पड़े फागुनी धूप |
राग और वैराग में , रही न कोई जंग |
एक रंग दोनों रँगे , पिए दूधिया भंग |
नैन सैन,चितवन,चुभन, मान और मनुहार |
अंगुरी दाबे रस चुवै, गुझिया जैसा प्यार |
फागुन में भी पिया जब, लिए न घर का हाल |
भाभी के नैना झरैं, देवर बना रुमाल |
फागुन की सीढ़ी चढ़ा, फिसल गया वैराग |
गिरा अनंगी रंग में, नस-नस फूटी आग |
फागुन वृन्दावन गयो , भूलि गयो निज नाम |
राधे-राधे रमि गयो, वन-वन खोजत श्याम |
अद्भुत..सुंदर और सुगठित दोहे सुरेन्द्र जी.. होली का इंतज़ार शुरू करवा दिया आपने.. :)
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ..फाल्गुन आ ही गया
ReplyDeletebahut sundar
ReplyDeleteholi ki agrim shubhkamnaye
बहुत सुन्दर दोहे सुरेन्द्र जी
ReplyDeleteअरे वाह ! झंझट भाई वाह! रस से सराबोर कर दिया आपने.क्या कहने .
ReplyDelete" फागुन वृन्दावन गयो , भूलि गयो निज नाम |
राधे-राधे रमि गयो, वन-वन खोजत श्याम "
फगुनाया सूरज उठा , अरुणिम बालस्वरुप |
ReplyDeleteआँगन-आँगन बाँटता, अँजुरी-अँजुरी धूप |
her rang ke dohe
गोरी ठाढ़ी द्वार पर, पिय-पथ रही निहार |
ReplyDeleteमदिरा-मदिरा नैन हैं , अंग-अंग कचनार |
और
फागुन की सीढ़ी चढ़ा, फिसल गया वैराग |
गिरा अनंगी रंग में, नस-नस फूटी आग |
सुरेन्द्र भाई जी, ये है वो चीज़ जिसको सुनके, पढ़के मन पुलकित हो जाता है सभी दोहे अद्भुत और रस से भरे ..
क्या कहूं फागुन कि मस्ती लादी आपने तो !!
फागुन की सीढ़ी चढ़ा, फिसल गया वैराग |
ReplyDeleteगिरा अनंगी रंग में, नस-नस फूटी आग |
वाह क्या फाल्गुन है ...आपने तो बहुत सुन्दरता और अर्थपूर्ण तरीके से समझा दिया
जीतनी तारीफ करू ....वह कम ही है ! बहुत - बहुत धन्यवाद..
ReplyDeleteसभी दोहे उम्दा , एक से बढ कर एक, बधाई सुरेन्द्र जी।
ReplyDeleteअरे भाई दिल जीत लिया आपने!!
ReplyDeleteआपकी रचना में कथ्य और संवेदना का ऐसा सहकार है जिसका मकसद इस संसार को फगुआहट के रंग से सराबोर कर देना है।
आप सफल हुए हैं।
bahut hi sundar , utkrisht , behtarin !!
ReplyDeleteसुरेन्द्र जी ,आखिर फागुन आ ही गया -- बहुत सुंदर सजीला यह फागुन का महिना --क्या बात है अदभुद ---
ReplyDeleteफागुन की सीढ़ी चढ़ा, फिसल गया वैराग |
गिरा अनंगी रंग में, नस-नस फूटी आग |
नैन सैन,चितवन,चुभन, मान और मनुहार |
ReplyDeleteअंगुरी दाबे रस चुवै, गुझिया जैसा प्यार |.......
सभी दोहे लाज़वाब.....
‘गुझिया जैसा प्यार’...यह उपमा तो बहुत खूब है...
प्रभावी अभिव्यक्ति के लिए आपको बधाई।
मज़ा आ गया जी ! कविता को पढ़ने से मन प्रफ़ुल्लित हो उठा !
ReplyDeleteसुंदर सजीले और सजीव दोहे . आभार .
ReplyDeleteराग और वैराग में , रही न कोई जंग |
ReplyDeleteएक रंग दोनों रँगे , पिए दूधिया भंग
सुंदर सजीव ..फागुनी दोहे...
Excellent creation Surendr ji. I am short of words to praise the wonderful couplets on 'Phagun'.
ReplyDeleteाति सुन्दर समझ नही आ रहा किस किस दोहे की तारीफ करूँ। लाजवाब लाजवाब लाजवाब। बधाई।
ReplyDeleteफागुन गुन-गुन गा रहा, पिए गुनगुनी धूप |
ReplyDeleteसरसों सरसों मन लगे , टेसू टेसू रूप |....
सुंदर प्रस्तुति,
manmohak dohe
ReplyDeletebdhaai ho
आपकी रचना कमाल की सुन्दर है... हर दोहे मे होली की खूबसूरती विराजी है.. अद्भुत ,..सादर
ReplyDeleteवाह ...बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteआज तो पहली लाइने पढ़ते ही आनंद आ गया ...बड़ा प्यारा लिखते हो यार बस यह झंझट समझ नहीं आया :-))
ReplyDeleteइसके स्तर के प्रशंशात्मक शब्द कहाँ से लाऊं ढूंढकर ??????
ReplyDeleteआभार लीजिये हमारा...हमारा सौभाग्य है जो इस स्तर की रचनाओं को पढने का सुअवसर हम पा रहे हैं...
प्रियवर सुरेन्द्र जी
ReplyDeleteसस्नेह अभिवादन !
फागुन के दोहे पढ़ कर मन महक उठा …
कविता कामिनि के सभी ,टूट गए अनुबंध ।
दोहे जैसी देह थी ,हुई सवैया छंद ॥
अरे वाह ! फिदा हो गए आप पर हम तो यह दोहा पढ़ कर …
सुनिए हमारी भी -
हर दोहे ने छू लिये , मन वीणा के तार !
सांसों में बजने लगी , रस भीनी झंकार !!
हार्दिक बधाई !
मंगलकामनाएं !!
♥होली की अग्रिम शुभकामनाएं !!!♥
- राजेन्द्र स्वर्णकार
full of romance in romantic 'fagun'.
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति। बधाई।
ReplyDeletesurendra ji sach kahu to maza aa gaya. doho main behna vaise hi khud main anand ki prapti hai
ReplyDeleteनैन सैन,चितवन,चुभन, मान और मनुहार |
ReplyDeleteअंगुरी दाबे रस चुवै, गुझिया जैसा प्यार |
फागुन में भी पिया जब, लिए न घर का हाल |
भाभी के नैना झरैं, देवर बना रुमाल |
पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ पर आपके ब्लॉग पर आकर प्रसंता हुई जितनी तारीफ़ की जाय कम है ।
क्या खूब झरने की फुहार की तरह रिम झिम कविता लिखी है
हमारी शुभकामनाये आपके साथ है,
मेरे पोस्ट पे आने तथा अपना
बहुमूल्य सुझाव देने के लिए आपका धन्यवाद.
राग और वैराग में, रही न कोई जंग ।
ReplyDeleteएक रंग दोनों रँगे, पिए दूधिया भंग ।
वाह, सुरेन्द्र जी , वाह।
इन दोहों में काव्य के समस्त गुण हैं।
इन अप्रतिम और परिपूर्ण दोहों को मैंने बार-बार पढ़ा।
बधाई स्वीकार करें।
फगुनाया सूरज उठा , अरुणिम बालस्वरुप |
ReplyDeleteआँगन-आँगन बाँटता, अँजुरी-अँजुरी धूप
bahut sundar rang se likhe hain.
bahut sundar dohe ..lagaa ki fagun dvaar par bas khdaa hi hai ...
ReplyDeleteफगुनाया सूरज उठा , अरुणिम बालस्वरुप |
ReplyDeleteआँगन-आँगन बाँटता, अँजुरी-अँजुरी धूप
सुन्दर अतिसुन्दर दोहे यह वाला तो हमें बहुत अच्छा लगा ,बधाई
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteफागुन गुन-गुन गा रहा, पिए गुनगुनी धूप |
ReplyDeleteसरसों सरसों मन लगे , टेसू टेसू रूप |
बहुत खूबसूरत रचना.. होली के रंग में सराबोर.....
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