Wednesday, September 29, 2010

खड़ा कबीरा अलख जगाता---

इधर-उधर  लड़ने से पहले खुद    अपने से    लड़कर देख |
किसी   परिंदे   जैसा  पहले    पर  फैलाकर    उड़कर  देख |
नफरत की  दीवार  ढहाकर     प्यार की   खेती-बारी   कर ,
हरियाली फिर चैनोअमन की वतन में अपने मुड़कर देख |
टूटी हुई    पतंग-जिन्दगी ,    बेमकसद     क्यों   ढोता है ?
उड़ेगा फिर से आसमान में     एक बार   तो  जुड़कर देख |
कण-कण में मालिक    बसता है     क़ैद नहीं    दीवारों में ,
मीरा औ रसखान की तरह   अपने  अन्दर   घुसकर देख |
धर्म के ठेकेदारों की परवाह न कर    बस  दिल की सुन ,
खड़ा कबीरा अलख जगाता   तू भी   शामिल होकर देख | 

1 comment:

  1. बेहद खूबसूरत संदेश देती रचना।

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