Wednesday, November 3, 2010

--झोपड़ी जलाएगा ?

आती है दीवाली रंग लाती ज़माने में
सारा समाज क्या खुशियाँ मनाता है ?
कहीं पर चलते हैं व्हिस्की के हज़ारों पैग
सारा धन-वैभव सिर्फ जुए में ही जाता है 
साकी के नज़रों में डूब डूब प्यालों में
पीता है कोई  मौज-मस्ती मनाता है
ज़ख्मों की तरह जो उभरी हैं धरती पर
पूंछो  झोपड़ियों  से   कैसे  मनाएँगी  ?
मिलता नहीं मिटटी का खिलौना जहाँ बच्चों को
झोपड़ी  मिठाई के खिलौने कहाँ पायेगी ?
जलाने को शेष नहीं रहा पास जिसके कुछ
क्या वह दीवाली में झोपड़ी जलाएगा ?
जिन्दगी ही बन गयी होली-दिवाली जिसकी
कैसे बेचारा वह दीवाली मनायेगा ?
 

2 comments:

  1. गरीबों का हर जगह और हर वक्त ही बुरा हाल है ..रही सही कसर महंगाई ने पूरी कर दी है..ऐसे में क्या दिवाली क्या होली..

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