इक सूनापन , इक सन्नाटा ,इक अँधियारा जीता हूँ |
भरा-भरा सा लगता जग को फिर भी रीता-रीता हूँ |
सूरज की किरणें तो थककर
वापस लौट गयीं अपने घर |
शीतल स्निग्ध चांदनी भी तो
कर न सकी उजियारा अंतर |
अमृत है , मदिरा कि हलाहल पीकर जिसको बहक रहा,
दहक रहा पर जान न पाता मरता हूँ या जीता हूँ |
इक कोलाहल सा उठता है
इक तूफ़ान भयंकर आता |
खो जाती सपनों की दुनिया
एक सुहाना घर ढह जाता |
चारों ओर भीड़ है लेकिन एक अकेला पथराया सा ,
सूनी-सूनी आँखों से बस इक सन्नाटा पीता हूँ |
स्मृतियाँ भी नागफनी सी
उर के घावों को सहलातीं |
चीर-चीर कर पीर ह्रदय की
एक अनोखा सुख दे जातीं |
लिपट-लिपट कर मैं भुजंग सा चन्दन की शीतलता चाहूँ
ताप समेटे उर के घावों को शब्दों से सीता हूँ |
स्मृतियाँ भी नागफनी सी
ReplyDeleteउर के घावों को सहलातीं |
चीर-चीर कर पीर ह्रदय की
एक अनोखा सुख दे जातीं
बहुत खूबसूरत गीत है ....सच को कहती हुई पंक्तियाँ हैं ..
मुझे भी वही पंक्तियाँ पसंद आईं जो संगीता जी को आईं हैं...
ReplyDeleteबहुत भी मोहक रचना..
स्मृतियाँ भी नागफनी सी
ReplyDeleteउर के घावों को सहलातीं |
चीर-चीर कर पीर ह्रदय की
एक अनोखा सुख दे जातीं
yea line aur sabhi se kuch jayada hi behtarin hai. sunder rachna.
ताप समेते उर के घावों को शब्दों से सीता हूं।
ReplyDeleteसुन्दर रचना बधाई।
चारों ओर भीड़ है लेकिन एक अकेला पथराया सा ,
ReplyDeleteसूनी-सूनी आँखों से बस इक सन्नाटा पीता हूँ |
बहुत खूबसूरत कविता!
हर एक पंक्ति बहुत उम्दा. किसी एक पंक्ति को टेग करना मुश्किल. शुक्रिया.
ReplyDelete---
कुछ ग़मों के दीये
गीत उम्दा है। बधाई।
ReplyDeletesangeetaji,poojaji,sharadji,Dr santay dani sahab,amit bhai,sahil bhai,sagar sahab!
ReplyDeleteblog par aane aur apni bahumooly tippadiyon
se utsahvardhan karne ke liye hardik aabhar!
झंझट के झटके झनकदार हैं
ReplyDeleteकैनन का एस एक्स 210 : खरीद लूं क्या (अविनाश वाचस्पति गोवा में)
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अमिताभ बच्चन ने ट्रैक्टर चलाया और ट्विटर पर बतलाया
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स्मृतियाँ भी नागफनी सी
ReplyDeleteउर के घावों को सहलातीं |
चीर-चीर कर पीर ह्रदय की
एक अनोखा सुख दे जातीं |
लिपट-लिपट कर मैं भुजंग सा चन्दन की शीतलता चाहूँ
ताप समेटे उर के घावों को शब्दों से सीता हूँ |
यही तो होता है जितना चाहे भाग लो स्मृतियाँ पीछा नही छोडतीं……………बेहद उम्दा प्रस्तुति।
वाह...वाह...वाह....
ReplyDeleteलाजवाब !!!!
मर्म को छूती भावुक प्रवाहमयी अतिसुन्दर रचना...
मन मुग्ध कर गयी ...वाह !!!
भरा-भरा सा लगता जग को फिर भी रीता-रीता हूँ |
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी !!!
सुन्दर गीत!
भरा-भरा सा लगता जग को फिर भी रीता-रीता हूँ |
ReplyDeleteगहन संवेदनाओं की बेहद मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति. आभार.
सादर
डोरोथी.
सूरज की किरणें तो थकक वापस लौट गयीं अपने घर |
ReplyDeleteशीतल स्निग्ध चांदनी भी तो
कर न सकी उजियारा अंतर |
अमृत है , मदिरा कि हलाहल पीकर जिसको बहक रहा,
दहक रहा पर जान न पाता मरता हूँ या जीता हूँ |
बहुत खूबसूरत गीत है .