Tuesday, November 23, 2010

गीत....अंधियारा जीता हूँ

इक सूनापन , इक सन्नाटा ,इक अँधियारा जीता हूँ |
भरा-भरा सा लगता जग को फिर भी रीता-रीता हूँ |
             सूरज की किरणें तो  थककर
             वापस  लौट  गयीं अपने  घर |
             शीतल स्निग्ध चांदनी भी तो
             कर न सकी उजियारा अंतर |
अमृत है , मदिरा कि हलाहल पीकर जिसको बहक रहा,
दहक  रहा  पर   जान  न   पाता  मरता हूँ  या   जीता हूँ |
              इक कोलाहल  सा  उठता है
              इक  तूफ़ान  भयंकर  आता |
              खो जाती सपनों की दुनिया
              एक सुहाना घर ढह    जाता |
चारों ओर  भीड़ है  लेकिन  एक  अकेला   पथराया सा ,
सूनी-सूनी   आँखों  से    बस    इक   सन्नाटा   पीता   हूँ   |
              स्मृतियाँ  भी नागफनी   सी
              उर के घावों  को   सहलातीं |
              चीर-चीर कर पीर ह्रदय की
              एक  अनोखा  सुख दे  जातीं |
लिपट-लिपट कर मैं भुजंग सा चन्दन की शीतलता चाहूँ
ताप    समेटे    उर   के   घावों     को     शब्दों   से    सीता हूँ |








14 comments:

  1. स्मृतियाँ भी नागफनी सी
    उर के घावों को सहलातीं |
    चीर-चीर कर पीर ह्रदय की
    एक अनोखा सुख दे जातीं

    बहुत खूबसूरत गीत है ....सच को कहती हुई पंक्तियाँ हैं ..

    ReplyDelete
  2. मुझे भी वही पंक्तियाँ पसंद आईं जो संगीता जी को आईं हैं...
    बहुत भी मोहक रचना..

    ReplyDelete
  3. स्मृतियाँ भी नागफनी सी
    उर के घावों को सहलातीं |
    चीर-चीर कर पीर ह्रदय की
    एक अनोखा सुख दे जातीं

    yea line aur sabhi se kuch jayada hi behtarin hai. sunder rachna.

    ReplyDelete
  4. ताप समेते उर के घावों को शब्दों से सीता हूं।
    सुन्दर रचना बधाई।

    ReplyDelete
  5. चारों ओर भीड़ है लेकिन एक अकेला पथराया सा ,
    सूनी-सूनी आँखों से बस इक सन्नाटा पीता हूँ |

    बहुत खूबसूरत कविता!

    ReplyDelete
  6. हर एक पंक्ति बहुत उम्दा. किसी एक पंक्ति को टेग करना मुश्किल. शुक्रिया.
    ---
    कुछ ग़मों के दीये

    ReplyDelete
  7. गीत उम्दा है। बधाई।

    ReplyDelete
  8. sangeetaji,poojaji,sharadji,Dr santay dani sahab,amit bhai,sahil bhai,sagar sahab!
    blog par aane aur apni bahumooly tippadiyon
    se utsahvardhan karne ke liye hardik aabhar!

    ReplyDelete
  9. स्मृतियाँ भी नागफनी सी
    उर के घावों को सहलातीं |
    चीर-चीर कर पीर ह्रदय की
    एक अनोखा सुख दे जातीं |
    लिपट-लिपट कर मैं भुजंग सा चन्दन की शीतलता चाहूँ
    ताप समेटे उर के घावों को शब्दों से सीता हूँ |

    यही तो होता है जितना चाहे भाग लो स्मृतियाँ पीछा नही छोडतीं……………बेहद उम्दा प्रस्तुति।

    ReplyDelete
  10. वाह...वाह...वाह....

    लाजवाब !!!!

    मर्म को छूती भावुक प्रवाहमयी अतिसुन्दर रचना...

    मन मुग्ध कर गयी ...वाह !!!

    ReplyDelete
  11. भरा-भरा सा लगता जग को फिर भी रीता-रीता हूँ |
    हृदयस्पर्शी !!!
    सुन्दर गीत!

    ReplyDelete
  12. भरा-भरा सा लगता जग को फिर भी रीता-रीता हूँ |

    गहन संवेदनाओं की बेहद मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति. आभार.
    सादर
    डोरोथी.

    ReplyDelete
  13. सूरज की किरणें तो थकक वापस लौट गयीं अपने घर |
    शीतल स्निग्ध चांदनी भी तो
    कर न सकी उजियारा अंतर |
    अमृत है , मदिरा कि हलाहल पीकर जिसको बहक रहा,
    दहक रहा पर जान न पाता मरता हूँ या जीता हूँ |

    बहुत खूबसूरत गीत है .

    ReplyDelete