बौरी हुई आम डालियों पे उल्लुओं का डेरा ,
कोकिला ने कुहुक लगाई कौन सुनेगा ?
दाने-दाने को जहाँ तरस रही जिन्दगी है ,
मालयी समीर भला पेट कैसे भरेगा ?
छाया पतझार जहाँ बारहों महीने वहाँ ,
आइके बसंत एक बार काव करेगा ?
चीथड़ों में लिपटी सिसकती बसंती, कहो -
गाँव में बसंत-अगवानी कौन करेगा ?
कोकिला ने कुहुक लगाई कौन सुनेगा ?
दाने-दाने को जहाँ तरस रही जिन्दगी है ,
मालयी समीर भला पेट कैसे भरेगा ?
छाया पतझार जहाँ बारहों महीने वहाँ ,
आइके बसंत एक बार काव करेगा ?
चीथड़ों में लिपटी सिसकती बसंती, कहो -
गाँव में बसंत-अगवानी कौन करेगा ?
सुन्दर ! उल्लुओं का डेरा है....
ReplyDeleteकोकिला की कुहुक ज़माना जरुर सुनेगा !
ReplyDeleteचिथड़ों में लिपटी सिसकती बसंती, अब -
ReplyDeleteगाँव में बसंत-अगवानी कौन करेगा !
झंझट जी,
आपकी कविता के सारे प्रश्न आज हमारे सामने मुह बाए खड़े हैं !
काश! इनके उत्तर मिल पाते !
चिथड़ों में लिपटी सिसकती बसंती, अब -
ReplyDeleteगाँव में बसंत-अगवानी कौन करेगा ?
Jhanjhat ji bahut acchi rachna .....ek karaa vyangya.........
बसंत का सुन्दर स्वागत.
ReplyDeleteप्रधान जी या अगर प्रधानिन हैं तो उनके हसबैंड ..! यही कर लेंगे अगवानी सुरेन्द्र भाई ...आप क्या कम समझते हो हमरे गाँव को का ...अगर कुछ दिक्कत हुई तो ...बी डी सी ..मेंबर हैं ग्राम सेवक हैं अपने लेखपाल जी भी आ जायेंगे ...और अगर आपका बसंत ...इसे भी बड़ा हुआ तो ब्लाक प्रमुख जी और 'बी डी ओ' साहेब ...तो सुरेश कलमाड़ी से भी अच्छा कर लेते हैं ....'वो' काम स्वागत वाला !.....
ReplyDeleteआपने दुखती रग दबा दी सुरेन्द्र जी ...मुझे अपना गाँव और उसके दलाल याद आ गए !!
सुन्दर ! उल्लुओं का डेरा है....
ReplyDeleteकोकिला की कुहुक ज़माना जरुर सुनेगा
अनुत्तरित प्रश्न !
ReplyDeleteबेहतरीन काव्य !
वास्तविकताओं से अवगत करवा दिया ....इनका कोई जबाब नहीं ...चलो देखते हैं
ReplyDeleteबसंती और बसंत के माध्यम से बहुत कुछ कह दिया आपने.
ReplyDeleteबसंत तो बसंत है इसके आते ही लोग स्वतः ही इसकी आगवानी करते है।
ReplyDeleteआपके प्रश्न का उतार कौन देगा?
ReplyDeleteझंझट जी,
ReplyDeleteआपने छंद के माध्यम से आधुनिक माहौल
का बड़ा सटीक चित्र प्रस्तुत किया है। बधाई!
इसे पढ़ कर पढ़ कर मुझे अपना एक दोहा
याद आ गया।
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शहरीपन ज्यों-ज्यों बढ़ा, हुआ वनों का अंत।
गमलों में बैठा मिला, सिकुड़ा हुआ बसंत॥
सद्भावी - डॉ० डंडा लखनवी
बहुत खुबसूरत रचना !
ReplyDeleteचिथड़ों में लिपटी सिसकती बसंती, कहो -
ReplyDeleteगाँव में बसंत-अगवानी कौन करेगा ?
सच कहा ... लाजवाब व्यंग लिखा है ... इस समाज की सही दुर्दशा का वर्णन ...
बसंत का यह रूप ,बहुत कम लोग दिखा पाते हैं...
ReplyDeleteसाधुवाद आपका...
basant ka swagat badti hui arabpatiyon ki bheed hi kar legi kyonki gareeb ke jeevan me to patjhad hi patjhad hai .bahut yatharthvadi rachna .badhai .
ReplyDeleteचिथड़ों में लिपटी सिसकती बसंती, समाज की दुर्दशा का वर्णन ...,
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया रचना.
ReplyDeleteप्रासंगिक.
आपकी कलम को शुभ कामनाएं.
बहुत खुबसूरत रचना
ReplyDeleteचिथड़ों में लिपटी सिसकती बसंती, समाज की दुर्दशा
उत्तम व प्रासंगिक...
ReplyDeleteसिर्क एक शब्द... वाह...
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