Tuesday, August 17, 2010

ग़ज़ल

जीत कहूं या हार जिंदगी |
है कितनी दुश्वार ज़िन्दगी |
कभी कभी लगता था जैसे
है फूलों का हार ज़िन्दगी |
घूँट  हलाहल  के कह दूं , या-
कहूं सुधा की धार ज़िन्दगी |
ऊपर से तो खिली खिली ,पर -
भीतर  से पतझार  ज़िन्दगी |
कदम कदम पर कर बैठी है
संघर्षों से   प्यार ज़िन्दगी |
कभी वक़्त की शहजादी तो
कभी वक़्त की मार ज़िन्दगी |
मुड़ मुड़ कर करती रहती है
जीने   से  इन्कार  ज़िन्दगी |
जीना क्या मरना क्या उसका
मिली जिसे बीमार ज़िन्दगी |
शायद  इससे अच्छी  होगी
जीवन के  उस  पार ज़िन्दगी |

4 comments:

  1. वाह वाह वाह
    जिंदगी का पूरा हाल सुना दिया।
    मजेदार और रोचक लगा
    http://chokhat.blogspot.com

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  2. पेश की गई ग़ज़ल अपने मापदंड पर पूरी तरह खरी है...
    कदम कदम पर कर बैठी है
    संघर्षों से प्यार ज़िन्दगी |
    वाह...बहुत खूब
    कभी वक़्त की शहजादी तो
    कभी वक़्त की मार ज़िन्दगी
    सच बयान किया है आपने.

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  3. इस नए सुंदर से चिट्ठे के साथ आपका हिंदी ब्‍लॉग जगत में स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

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