" लोकराज में जो हो जाये थोड़ा है " जनता के सर पड़ता रोज हथौड़ा है | लोकराज में जो हो जाये थोड़ा है | कहीं का पत्थर और कहीं का रोड़ा है | भानमती ने अच्छा कुनबा जोड़ा है | मनमोहन तो ताक धिना धिन नाचे हैं , दिल्ली - महारानी का सीना चौड़ा है | यू पी ने हर राज्य को पीछे छोड़ा है | लोकराज में जो हो जाये थोड़ा है | पब्लिक को वादों का तोहफा देता है | बेईमानी, लफ्फाजी कर लेता है | घोटालों का बाप जो दादा गुंडों का , वही आज के दौर का असली नेता है | सदन तलक जा पहुंचा मगर भगोड़ा है | लोकराज में जो हो जाये थोड़ा है | मंत्री से संतरी सभी तो चंगे हैं | भ्रष्टाचार में करते हर-हर गंगे हैं | अफसर-बाबू-पुलिस जो रंगबिरंगे हैं , देखो सब के सब हम्माम में नंगे हैं | इन्हीं सबों ने मिलकर देश निचोड़ा है | लोकराज में जो हो जाये थोड़ा है | महँगाई द्रौपदी-चीर सी बढ़ती है | सुरसा जैसी मुँह फैलाये हँसती है | निगल रही जिन्दगी गरीबों की,डायन- महलों में ही सजती और सँवरती है | सैयाँ बहुत कमाएँ मगर सब थोड़ा है | लोकराज में जो हो जाये थोड़ा है | घर-घर टी. वी. नंगा नाच दिखाती है | कम कपड़ों में महँगे अंग लखाती है | मर्यादा-तहजीब बेंच बाजारों में , देखो अब राखी इन्साफ सुनाती है | तार-तार सभ्यता , प्रदर्शन भोंड़ा है | लोकराज में जो हो जाये थोड़ा है | सौ में सत्तर लोग आज भी निर्धन हैं | धोता गिलास ढाबे पर देश का बचपन है | आज़ादी तो मिली मगर बस महलों को , सड़कों पर आबाद हमारा जन-गन है | झोपड़पट्टी वतन के तन पर फोड़ा है | लोकराज में जो हो जाये थोड़ा है | आतंकी मेहमान बने हैं क्यूँ आखिर ? सत्ताधर अनजान बने हैं क्यूँ आखिर ? 'फाँसी दो' फैसला अदालत करती है , सिंहासन बेकान बने हैं क्यूँ आखिर ? देश पे मरनेवालों का दिल तोड़ा है | लोकराज में जो हो जाये थोड़ा है | मज़हब और धर्म की ठेकेदारी है | मंदिर-मस्जिद जंग अभी तक जारी है | 'ढाई आखर-प्रेम' न कोई पढ़ा सका , इंसानी रिश्तों की ये लाचारी है | भारत है अखंड- हमने कुछ तोड़ा है | लोकराज में जो हो जाये थोड़ा है | चमचागीरी , चाटुकारिता हावी है | इज्ज़त से जीने में बड़ी खराबी है | दो रोटी के लिए जिस्म बिक जाते हैं, कैसे कह दूँ ? मौसम यहाँ गुलाबी है | सच्चाई से कलम ने भी मुँह मोड़ा है | लोकराज में जो हो जाये थोड़ा है | |
Saturday, June 4, 2011
लोकराज में जो हो जाये थोड़ा है
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देश का सटीक खाका खींच दिया है ... बहुत अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteबेहद संवेदनशील और यथार्थ को प्रस्तुत करता व्यंग्य दिल पर चोट करता है।
ReplyDeleteमहँगाई द्रौपदी-चीर सी बढ़ती है |
ReplyDeleteसुरसा जैसी मुँह फैलाये हँसती है |
निगल रही जिन्दगी गरीबों की,डायन-
महलों में ही सजती और सँवरती है |
सैयाँ बहुत कमाएँ मगर सब थोड़ा है |
लोकराज में जो हो जाये थोड़ा है |... amazing
देश पे मरनेवालों का दिल तोड़ा है |
ReplyDeleteलोकराज में जो हो जाये थोड़ा है |
श्रेष्ठ रचना
आद. झंझट जी,
ReplyDeleteजी तो कर रहा है हर पंक्ति को यहाँ कोट करूँ मगर बेबस हूँ ! इस लिए बस चार पंक्तियों को उद्धृत कर रहा हूँ !
दो रोटी के लिए जिस्म बिक जाते हैं,
कैसे कह दूँ ? मौसम यहाँ गुलाबी है |
सच्चाई से कलम ने भी मुँह मोड़ा है |
लोकराज में जो हो जाये थोड़ा है |
बेहतरीन, ओज पूर्ण,सामयिक और सच्ची कविता जिसमें भाव और प्रवाह दोनों समाहित हैं !
पढ़कर पूरे जोश के साथ गुनगुनाने का मन कर रहा है !
आभार !
लोकराज में जो हो जाये थोड़ा है |.......
ReplyDeleteyatharth chitran kiya hai aapne,
abhaar vyakt krta hun.
सदन तलक आ पहुंचा ,
ReplyDeleteमगर भगोड़ा है ,
लोकराज में जो हो जाए थोड़ा है ....
भाई साहब !यही अंदाज़ है -
यही गणतंत्री चूहे लोक तंत्र को खा रहें हैं -
कसम राम की खा रहें हैं .
आपकी कविता यथार्थ को दिखाती है लेकिन जहाँ तक बाबा रामदेव का सवाल है यह सत्याग्रह सिर्फ़ एक नौटंकी है इसके अलावा कुछ नहीं| माफ कीजियेगा हो सकता है मेरे विचार आपसे बिलकुल भिन्न हों लेकिन आखिर बाबा का एजेंडा क्या है? वो कोई राजनीतिक पद नहीं चाहते लेकिन राजनेताओं के लिए विशेष व्यवस्था ज़रूर है| हास्यास्पद है| देश की जनता शुरू से नासमझ है कभी बाबा और कभी नेता के चक्कर में पड़ जाती है| यह दुर्भाग्य है इस देश का|
ReplyDeleteझंझट भाई, आपका जवाब नहीं।
ReplyDeleteयथार्थ को आपने बडे सलीके से परोसा है।
---------
कौमार्य के प्रमाण पत्र की ज़रूरत किसे है?
ब्लॉग समीक्षा का 17वाँ एपीसोड।
यह कविता आज के हालात का सटीक विवरण है. सारा नक्शा तो खींच दिया है आपने, जो नहीं कहा गया वो थोड़ा है.
ReplyDeleteघोटालों का बाप जो दादा गुंडों का ,
ReplyDeleteवही आज के दौर का असली नेता है |
vastav me aap ne desh ki vastvikata ko apne shabdo me jaahir kia hai
सौ में सत्तर लोग आज भी निर्धन हैं |
ReplyDeleteधोता गिलास ढाबे पर देश का बचपन है |
बहुत ही अच्छी रचना आज के हालात पर ... बहुत अच्छी कविता
मंत्री से संतरी सभी तो चंगे हैं |
ReplyDeleteभ्रष्टाचार में करते हर-हर गंगे हैं |
अफसर-बाबू-पुलिस जो रंगबिरंगे हैं ,
देखो सब के सब हम्माम में नंगे हैं |
इन्हीं सबों ने मिलकर देश निचोड़ा है |
लोकराज में जो हो जाये थोड़ा है |
Very well said Surendr ji !
We the people of India, need to understand this . Excellent creation.
.
आज के हालात पर इतनी सटीक रचना बस आपकी लेखनी के द्वारा ही सभंव है। आभार।
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति सच्चाई से कही गयी दिल की बात समाज का असली चेहरा दिखाती हुई रचना
ReplyDeleteआतंकी मेहमान बने हैं क्यूँ आखिर ?
ReplyDeleteसत्ताधर अनजान बने हैं क्यूँ आखिर ?
'फाँसी दो' फैसला अदालत करती है ,
सिंहासन बेकान बने हैं क्यूँ आखिर ?
देश पे मरनेवालों का दिल तोड़ा है |
लोकराज में जो हो जाये थोड़ा है |
Sateek ....
उम्दा, बेहतरीन , लाज़वाब बधाई सुरेन्द्र जी।
ReplyDeleteचमचागीरी , चाटुकारिता हावी है |
ReplyDeleteइज्ज़त से जीने में बड़ी खराबी है |
दो रोटी के लिए जिस्म बिक जाते हैं,
कैसे कह दूँ ? मौसम यहाँ गुलाबी है |
पूरी रचना एक सशक्त चित्र सामने लाती है ..इतिहास और वर्तमान का ...आपने बखूबी अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त किया है ......आपका आभार
चमचागीरी , चाटुकारिता हावी है |
ReplyDeleteइज्ज़त से जीने में बड़ी खराबी है |
दो रोटी के लिए जिस्म बिक जाते हैं,
कैसे कह दूँ ? मौसम यहाँ गुलाबी है |
बहुत ही बढ़िया,
बधाई सुरेन्द्र जी।
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
मंत्री से संतरी सभी तो चंगे हैं ,
ReplyDeleteभ्रष्टाचार में करते हर-हर गंगे हैं ।
अफसर,बाबू,पुलिस जो रंगबिरंगे हैं ,
देखो सब के सब हम्माम में नंगे हैं ।
देश की आज यही दशा है। अच्छा चित्र खींचा है आपने।
चमचागीरी , चाटुकारिता हावी है |
ReplyDeleteइज्ज़त से जीने में बड़ी खराबी है |
बहुत दिल से लिखे हो भाई साहेब...
कहीं न कहीं छु गयी दिल को.
मंत्री से संतरी सभी तो चंगे हैं |
ReplyDeleteभ्रष्टाचार में करते हर-हर गंगे हैं |
अफसर-बाबू-पुलिस जो रंगबिरंगे हैं ,
देखो सब के सब हम्माम में नंगे हैं |
इन्हीं सबों ने मिलकर देश निचोड़ा है |
लोकराज में जो हो जाये थोड़ा है |
आज के हालात पर बहुत अच्छी कविता
मन जितना आहत और क्षुब्ध है...आपके शब्दों के सम्मुख नतमस्तक हो जाने को प्रस्तुत हो गया है पढ़कर...
ReplyDeleteअति सार्थक और प्रभावशाली ढंग से स्थिति को विसंगतियों को रेखांकित किया है आपने इस सुन्दर रचना में...
साधुवाद.
झंझट जी आप काबिले तारीफ है क्यों की आप जैसी कविता / रचना मुझे इस ब्लॉग जगत में नहीं दिखी , जितना पढ़ा हूँ उनमे !स्वच्छ और सुरीले , शिक्षाप्रद !
ReplyDeleteलोक राज में जो हो जाए थोड़ा है ------------एक प्रतिक्रिया स्वरूप चंद लाइनें जिनका संशोधन अभी चल ही रहा है :बाबा को पहना दी ,कल जिसने सलवार
ReplyDeleteअब तो बनने से रही ,फिर उसकी सरकार ।
रोज़ रोज़ पिटें लगे बच्चे और लाचार ,
है कैसा यह लोक मत ,कैसी है सरकार ।
आंधी में उड़ने लगे नोटों के अम्बार ,
संसद में होने लगा ये कैसा व्यवहार ।
और जोर से बोल लो उनकी जय जैकार ,
सरे आम पीटने लगे मोची और लुहार .
संसद में होने लगा यह कैसा व्यवहार ,
सरे आम होने लगा नोटों का व्यापार ।
संसद बने रह गई कुर्सी का त्यौहार ,
कुर्सी के पाए बने गणतंत्री गैंडे चार .
भाई साहब गम नहीं पाप का घड़ा फूटने ही वाला है .कांग्रेस के मुंह में आखिरी निवाला है .बाबा गले की हड्डी बनने वालें हैं .
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 07- 06 - 2011
ReplyDeleteको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
साप्ताहिक काव्य मंच --- चर्चामंच
दो रोटी के लिए जिस्म बिक जाते हैं,
ReplyDeleteकैसे कह दूँ ? मौसम यहाँ गुलाबी है |
सच्चाई से कलम ने भी मुँह मोड़ा है |
लोकराज में जो हो जाये थोड़ा है |
बहुत आहत मन से कविता उपजी है.इसीलिए हर पाठक के मन को झकझोर गई है.सुरेन्द्र जी,बधाई.
आतंकी मेहमान बने हैं क्यूँ आखिर ?
ReplyDeleteसत्ताधर अनजान बने हैं क्यूँ आखिर ?
'फाँसी दो' फैसला अदालत करती है ,
सिंहासन बेकान बने हैं क्यूँ आखिर ?
देश पे मरनेवालों का दिल तोड़ा है |
लोकराज में जो हो जाये थोड़ा है |
सुरेन्द्र जी बहुत सही सवाल उठाये हैं आपकी कलम ने ....
समय नहीं दे पा रही हूँ आप सब को ...क्षमाप्रार्थी हूँ ....
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 07- 06 - 2011
ReplyDeleteको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
साप्ताहिक काव्य मंच --- चर्चामंच
dayitwa bodh bekabu ho mukhar ho chala hai ..kitane nirbhar ho chale hain rajniti ke khadyantrakari gunagaron par --
ReplyDeletebahut tikshan sarthak prahar sadhuvad ji .
सुरेन्द्र भाई ये एक जबर्दस्त मंचीय कविता है| आज के दौर की सही तस्वीर खींची है आपने| बधाई बन्धुवर|
ReplyDeleteगजब एवं सटीक....
ReplyDelete'मंत्री से संतरी सभी तो चंगे हैं |
ReplyDeleteभ्रष्टाचार में करते हर-हर गंगे हैं |
अफसर-बाबू-पुलिस जो रंगबिरंगे हैं ,
देखो सब के सब हम्माम में नंगे हैं |
इन्हीं सबों ने मिलकर देश निचोड़ा है |
लोकराज में जो हो जाये थोड़ा है |'
क्या बात है? बहुत खूब
पब्लिक को वादों का तोहफा देता है |
ReplyDeleteबेईमानी, लफ्फाजी कर लेता है ...
बहुत खूब .. सुरेंद्र जी लाजवाब व्यंग है ... बहुत तीखी धार है इस रचना में ... मगर इन राजनेताओं की चमड़ी उतनी ही मोटी है ....
बहुत जबरदस्त , आज कल के अंधे लोकतंत्र याँ लोकतंत्र की होती मौत पर आपकी कविता बहुत सामयिक है... बहुत सुन्दर ..भ्रष्टाचार के विरुद्ध हम सब मिल एक जुट हो जाएँ...
ReplyDeleteआज के हालात का सटीक विवरण
ReplyDeleteल्या खूब लिखा है आपने हर हर गंगे करते हो जाओ नंगे सारे पाप धुल जायेंगे लोग दो दिनो मे भूल जायेंगे
ReplyDeleteक्या सशक्त चित्र उकेरा है देश की वर्तमान अवस्था का...बहुत सशक्त प्रस्तुति..
ReplyDeleteबहुत सटीक अभिव्यक्ति
ReplyDeleteजनता के सर पड़ता रोज हथौड़ा है |
ReplyDeleteवर्तमान की सही तस्वीर
अच्छी कविता
सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ शानदार और ज़बरदस्त रचना लिखा है आपने! प्रशंग्सनीय प्रस्तुती!
ReplyDeleteतीखे कटाक्ष के साथ बेहद संवेदनशील गीत....उद्वेलित कर गया...
ReplyDeleteबहुत सटीक अभिव्यक्ति
ReplyDeleteकई दिनों व्यस्त होने के कारण ब्लॉग पर नहीं आ सका
http://sanjaybhaskar.blogspot.com/
हाँ आजकल के बिगड़ते हालात को देख कर यह कविता और शाश्वत नज़र आती है.. पर कुछ बदलने वाला है.. ऐसा प्रतीत होता है...
ReplyDeleteवाह. बहुत बढिया
ReplyDeleteवाह ... बहुत खूब ।
ReplyDeleteवाह, क्या खूब उम्दा प्रस्तुति
ReplyDeleteसुप्रिय सुरेन्द्र सिंह जी
ReplyDeleteसादर वंदे मातरम्!
राष्ट्रभावनाओं से ओत-प्रोत आपकी इस रचना के रंग पसंद आए -
आतंकी मेहमान बने हैं क्यूँ आखिर ?
सत्ताधर अनजान बने हैं क्यूँ आखिर ?
'फाँसी दो' फैसला अदालत करती है ,
सिंहासन बेकान बने हैं क्यूँ आखिर ?
देश पे मरनेवालों का दिल तोड़ा है |
लोकराज में जो हो जाये थोड़ा है |
बहुत ख़ूब !
मंत्री से संतरी सभी तो चंगे हैं |
भ्रष्टाचार में करते हर-हर गंगे हैं |
अफसर-बाबू-पुलिस जो रंगबिरंगे हैं ,
देखो सब के सब हम्माम में नंगे हैं |
इन्हीं सबों ने मिलकर देश निचोड़ा है |
लोकराज में जो हो जाये थोड़ा है |
भ्रष्टाचार की जड़ें तो ऊपर ही हैं न …
आपने रचना लगाई उसके बाद हुए शर्मनाक सरकारी दमन पर भी सरस्वती-सपूत चुप नहीं बैठ सकते …
आपकी अगली रचना की प्रतीक्षा है …
वर्तमान प्रशासन का सबसे शर्मनाक और बर्बर कृत्य है 4 जून की मध्य रात्रि की पुलिस कार्यवाही
अब तक तो लादेन-इलियास
करते थे छुप-छुप कर वार !
सोए हुओं पर अश्रुगैस
डंडे और गोली बौछार !
बूढ़ों-मांओं-बच्चों पर
पागल कुत्ते पांच हज़ार !
सौ धिक्कार ! सौ धिक्कार !
ऐ दिल्ली वाली सरकार !
पूरी रचना के लिए उपरोक्त लिंक पर पधारिए…
आपका हार्दिक स्वागत है
- राजेन्द्र स्वर्णकार
सटीक अभिव्यक्ति .व्यंग के तडके के साथ.
ReplyDeleteवाह वाह वाह...
ReplyDeleteसौ में सत्तर लोग आज भी निर्धन हैं |
ReplyDeleteधोता गिलास ढाबे पर देश का बचपन है |
कवि की जागरूकता को दर्शाती पंक्तियाँ.वाह !
झन्झट जी आपके झटके तो जोड़ के नहीं वरन बेजोड़ के है..
ReplyDeleteआपकी रचना में युगबोध है.....एक शोध है।
ReplyDelete=====================
सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
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AACHI RACHNA HE........
ReplyDeleteआपके इस सांगीतिक गीत से प्रेरणा लेकर हम रिमिक्स बना बैठें हैं .आपने जो लिखा है उसे मैं इस बरस की एक श्रेष्ठतर ब्लॉग रचना मानता हूँ .हर मंच से इसे गाया जाना चाहिए .आभारी डॉ .रूप चंद मयंक का भी हूँ जिनका गीत जन जन का गीत बनने जा रहाहै -आप तो मंचीय हैं इसे भी गायें गाँव गली पहुंचाए -
ReplyDeleteहास्य गीत :चप्पल जूता मम्मीजी जी (मूल रचना- कार :डॉ .रूप चंद शाष्त्री मयंक ,उच्चारण )। तन रहता है भारत में ,रहता मन योरप मम्मीजी ,
इसीलिए तो उछल रहें हैं ,जूते चप्पल मम्मी जी ।
कुर्सी पर बैठाया तुमने ,लेकिन दास बना डाला
भरी तिजोरी मुझको सौंपी ,लेकिन लटकाया ताला ।
चाबी के गुच्छे को तुमने ,खुद ही कब्जाया मम्मी जी ,
इसीलिए तो उछल रहें हैं , जूते -चप्पल मम्मीजी ।
छोटी मोटी भूल चूक को ,अनदेखा करती हो ,
बड़ा कलेजा खूब तुम्हारा ,सबका लेखा रखती हो ,
मैं तो चौकी -दार तुम्हारा , हवलदार तुम मम्मीजी ,
इसीलिए तो उछल रहें हैं ,जूते-चप्पल मम्मीजी ।
जनता के अरमानों को शासन से मिलकर तोड़ा है ,
लोक तंत्र की पीठ है नंगी ,पुलिस हाथ में कोड़ा है ।
मैं तो हूँ सरदार नाम का ,असरदार तुम मम्मीजी ,
इसीलिए तो उछल रहें हैं ,जूते -चप्पल मम्मीजी ।
ये कैसा है त्याग कि, कुर्सी अपनी कर डाली ,
ऐसी चाल चली शतरंजी ,मेरी मति भी हर डाली ।
मैं तो ताबेदार बना ,कुर्सी तुम धारो मम्मीजी ,
इसीलिए तो उछल रहें हैं ,जूते चप्पल मम्मीजी ,
खड़े बिजूके को तुमने क्यों ताज पहनाया मम्मीजी ,
सिर पे कौवे आ बैठे ,और फिर हडकाया मम्मीजी ,
परदे के पीछे रहकर ,तुम सरकार चलातीं मम्मीजी ,
दिल की बात कही मैंने आगे तुम जानों मम्मीजी ।
रिमिक्स प्रस्तुति :डॉ नन्द लाल मेहता वागीश .डी .लिट ।
एवं वीरेंद्र शर्मा (वीरुभाई )।
प्रस्तुति : वीरेंद्र शर्मा (वीरुभाई ).
देश दुर्दशा का दयनीय दृश्य देखकर -लिखी गई इस कविता ने हर विषय को छुआ है। शीर्षक तो अच्छा है ही । इस कहते है खुददार कवि की कविता
ReplyDeleteमंत्री से संतरी सभी तो चंगे हैं |
ReplyDeleteभ्रष्टाचार में करते हर-हर गंगे हैं |
अफसर-बाबू-पुलिस जो रंगबिरंगे हैं ,
देखो सब के सब हम्माम में नंगे हैं |
sateek prahaar.......
वाह! कमाल है गजब है .
ReplyDeleteयहाँ तो बस 'झंझट' ही 'झंझट' है.
सभी को बेनकाब कर दिया है आपने झंझट भाई.
अब किसकी दें हम दुहाई,यह सरकार भी तो हमी ने है बनाई.
अब तो बस गाना है 'दिल अपना और प्रीत पराई'
u.p.ne har rajya ko peeche choda hai.lokraj me jo ho jaye thoda hai. samay ke sath bahut sunder prastuti hai.SADAR PRANAM.
ReplyDeleteBahut hi behatareen rachna.. Surendra Ji aaj pahli baar aapko padha.. Bahut hi achhi rachnayein karte hain aap.. aapko padhta rahunga.. Bas likhte rahiye.. Badhai..
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