Thursday, September 30, 2010

---एक राम-रहमान

मालिक तो घट-घट  बसा   जग उसका विस्तार |
दीवारों    में     क़ैद     हैं     कुछ संकीर्ण विचार  |

मंदिर में    घंटा   बजे     मस्जिद में हो  अजान |
दोनों में क्या फर्क जब     एक       राम-रहमान |

प्रेमडोर   में है    बंधी      इक    दूजे   की   जान |
हिन्दू-मुस्लिम   बाद में     पहले      हैं     इंसान |

आओ कुछ ऐसा करें     पल-पल     उपजे   हर्ष  |
खड़ा हिमालय सा रहे    अपना          भारतवर्ष | 
 

Wednesday, September 29, 2010

खड़ा कबीरा अलख जगाता---

इधर-उधर  लड़ने से पहले खुद    अपने से    लड़कर देख |
किसी   परिंदे   जैसा  पहले    पर  फैलाकर    उड़कर  देख |
नफरत की  दीवार  ढहाकर     प्यार की   खेती-बारी   कर ,
हरियाली फिर चैनोअमन की वतन में अपने मुड़कर देख |
टूटी हुई    पतंग-जिन्दगी ,    बेमकसद     क्यों   ढोता है ?
उड़ेगा फिर से आसमान में     एक बार   तो  जुड़कर देख |
कण-कण में मालिक    बसता है     क़ैद नहीं    दीवारों में ,
मीरा औ रसखान की तरह   अपने  अन्दर   घुसकर देख |
धर्म के ठेकेदारों की परवाह न कर    बस  दिल की सुन ,
खड़ा कबीरा अलख जगाता   तू भी   शामिल होकर देख | 

Tuesday, September 28, 2010

परिंदा हूँ---

गुनगुनाता रहा गुनगुनाता रहूँगा |
सदा प्रेम  के  गीत   गाता  रहूँगा |
जो भी हो मौसम  कोई गम नहीं ,
परिंदा हूँ मै, आता - जाता रहूँगा |

आदमी

                       हँसता-रोता हुआ   आदमी |
                      खुद  को ढोता हुआ आदमी |
                      आसमान तक चढ़कर के भी '
                      कितना छोटा हुआ  आदमी |
                      दूर से चमके सोने सा , पर-  
                      सिक्का खोटा हुआ आदमी |
                      औरों के हिस्से खा-खाकर ,      
                      कितना मोटा हुआ आदमी |
                      जाग रहा है फिर भी लगता -
                      जैसे  सोता हुआ   आदमी  |    
                      चिकना है  पर बिन पेंदे का ,
                      जैसे  लोटा हुआ   आदमी | 

Monday, September 27, 2010

"---मैं हिन्दोस्तान हूँ "

         आरतों का अब   करुण क्रंदन न   होना चाहिए |
         विषधरों  के अंक में    चन्दन  न  होना चाहिए |
         गर प्रतिष्ठा है बचानी  हमको  अपने देश की, तो-
          दोस्त ! गद्दारों का अभिनन्दन न होना चाहिए | 

          हर तरफ छाया हुआ है धुआं काला-काला |
          देश  अब कौन  तेरी   फिक्र है   करने वाला |
          तेरे   टुकड़े  हज़ार  करने वाले हैं  तो बहुत ,
          कोई दिखता नहीं तेरी शान पे मरने वाला |

          दिल में सहेजे   दर्द का   सारा  जहान हूँ |
          चीखों से-कराहों से     भरा   आसमान हूँ |
          अपनों ने किया जर्जर फिर  भी महान हूँ |
          कवि नहीं हूँ दोस्त !   मैं हिन्दोस्तान हूँ |

Saturday, September 25, 2010

---वो इन्सान नहीं है

    कुर्सी के लिए देश की  इज्जत करे  नीलाम,
    गद्दार है  !  वतन का    निगहबान  नहीं है |
    छीनता है   मुल्क के   चैनोअमन     को जो ,
    हिन्दू नहीं- न सिख,  वो मुसलमान नहीं है |
    जिस गोद में  जन्मा है, उसी से   दगा करे ?
    वह है कपूत !   देश का    अपमान   वही है |
    धनवान है, बलवान है,सब कुछ है वह मगर,
    सौ बार     मैं कहूँगा -  वो    इन्सान नहीं है |

Friday, September 24, 2010

--लेखनी हमारी देशहित में लगी रहे

    चारों ओर फैली हुई आग अलगाव की है,
    ऐसा करो   ज्योति  देशप्रेम की  जगी रहे |
    एकता के सूत्र में   बंधा रहे    समूचा देश,
    प्रेमरस   में   सदा    मनुष्यता    पगी रहे |
    बकवेशधारियों को स्वार्थ के पुजारियों को,
    जड़ से मिटा दे    देख दुनिया   ठगी रहे |
    ज्योतिपुंज ऐसी ज्योति जिन्दगी को दे दे,
    सदा लेखनी हमारी देशहित में  लगी रहे |

घाट-घाट पर पण्डे हैं

     चारों ओर    हथकंडे हैं |
     घाट-घाट   पर  पण्डे हैं |
     लोकतंत्र के चीरहरण में,
      बड़े-बड़े       मुस्टंडे हैं |
     भ्रष्टाचारी महिमामंडित, 
     जनता के सर    डंडे हैं |
    आज तिरंगे के ही पीछे ,
    लगे    सैकड़ों    झंडे हैं |

Thursday, September 23, 2010

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना

 पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ , पंडित भया न कोय |
 ढाई आखर         प्रेम का ,  पढ़े सो पंडित होय |
             क्रन्तिकारी समाजसुधारक एवं जनकवि संत कबीर दासकी ये पंक्तियाँ हमेशा प्रासंगिक रही हैं और रहेंगी | हम कितने भी पढ़े-लिखे और विद्वान क्यों न हों किन्तु यदि प्रेम का पाठ नहीं पढ़ा तो कोरा पांडित्य किस काम का?
प्रेम लौकिक हो या अलौकिक , इंसान से हो या भगवान से , प्रेम तो प्रेम ही है | आपसी भाईचारा , मेलमिलाप , एकदूसरे के सुख-दुःख को समझना और एकदूसरे के काम आना - ये सब प्रेम की परिधि में ही तो आते हैं ! कृष्ण के प्रेम में दीवानी मीरा जहाँ विषपान तक कर लेती है वहीँ भक्त रसखान अपने कृष्ण के ग्वालसखा बनकर गोकुल में ही बसने की इच्छा अगले जन्म के लिए भी रखते हैं :-
              "मानुष हौं तो वही रसखान बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन |"
       हमारा हिन्दुस्तान भिन्न- भिन्न धर्मों , जातियों , वर्गों को समेटे अनेकता में एकता का सन्देश देने   वाला देश है | गाँव हो या शहर , हर जगह हिन्दू - मुसलमान भाई  भाईचारे के साथ, बिना किसी भेदभाव के एक दूसरे के सुख-दुःख में भागीदार रहकर ख़ुशी-ख़ुशी अपना जीवनयापन करते हैं | आज भी हमारे गाँव में "सत्यनारायण कथा " में मुसलमान भाई सपरिवार शामिल होते हैं तो हिन्दूभाई भी सपरिवार मुहर्रम के मौके पर ताजिया रखते हैं और बड़े उत्साह के साथ भाग लेते हैं | रामू और रमजान एक दूसरे के पड़ोसी हैं | एक दूसरे के सुख-दुःख के भागीदार हैं | "बढ़ती महंगाई में रोटी-दाल कैसे चले ?" इस पर दोनों साथ-साथ सरकार और व्यवस्था को कोसते भी हैं |
         बहरहाल अगले कुछ दिनों में 'अयोध्या मंदिर-मस्जिद विवाद ' में विवादित स्थल के मालिकाना हक का फैसला उच्च न्यायालय से आने वाला है | अदालत से जो भी फैसला आये उसका सम्मान करें | असहमति की स्थिति में दोनों पक्षों को सर्वोच्च न्यायालय जाने का विकल्प है | फिर किस बात की झंझट ? इससे रामू और रमजान के आपसी प्रेम-व्यवहार में कोई दरार क्यों आये ? हम सबसे पहले इंसान हैं -भारतीय हैं | हमारा सबसे बड़ा धर्म-मानवधर्म है | फिर हम क्यों न शायर इकबालजी की इन पंक्तियों को अपनी असल जिंदगी में उतारें :--
           मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना ,
           हिंदी हैं हम ,  वतन है   हिंदोस्तां हमारा | 

Wednesday, September 22, 2010

---------हमको अधिकार नहीं |

      सारे अन्तः - द्वेष      भुलाकर     इक दूजे से    गले    मिलो |
      तन के संग मन भी रंग डालो कीचड़ में बन कमल खिलो |
      होली कहती      मेरी आग में       सारे भेद       जला डालो |
      ईद कह रही      गले मिलो   तो     रूठे ह्रदय     मिला डालो |
      जन-जन में    यदि    प्रेम भावना   का   होता     संचार नहीं |
      तो फिर   होली - ईद   मनाने का    हमको    अधिकार नहीं |

Tuesday, September 21, 2010

------पत्थरों से डरता हूँ |

        बात इंसानियत की    करता हूँ |
        रोज जीता हूँ    रोज मरता हूँ |
        लोग पागल न समझ बैठें कहीं,
        शीशा हूँ     पत्थरों से  डरता हूँ |
     
      

Friday, September 17, 2010

हिंदी दिवस ( १४ सितम्बर ) के बहाने -------

            हे हमारी प्यारी राजभाषा हिंदी ! तू आज तक राष्ट्रभाषा भले न बन पाई हो लेकिन हम "हिंदी दिवस " के बहाने तेरी पूजा जरूर कर रहे हैं , पूजा क्या तेरी उपेक्षा पर घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं | आज ही नहीं हर वर्ष ! हिंदी दिवस नहीं बल्कि हिंदी सप्ताह और हिंदी पखवाडा के बहाने भी तुझे याद करते रहते हैं लेकिन वर्ष में बस एक बार | आखिर  हम  सरकारी  विभाग  हैं | हमारी  तरह  ही  अर्धसरकारी  विभाग , निगम , बैंक  आदि भी तुझे भूले नहीं हैं | आखिर तुम्हे याद करने के लिए वर्ष में एक बार जो थोड़ा बहुत धन आबंटित होता है सो उसे खर्च तो करना ही होता है | कुछ  बैनर  वगैरह  कार्यालयों  के बाहर टंग जाते हैं  तो लोगबाग एक नजर देखते तो जरूर हैं कि हिंदी के लिए कुछ हो रहा है ! अरे ! आज अंग्रेजी  माध्यम  से पढने वाले बच्चे किसी हिंदी कवि की एक कविता भी ढंग से मुह्जबानी  सुना सकें तो इसे संसार का आठवां आश्चर्य नहीं तो क्या कहा जायेगा ? कार्यालयों में काम-काज की भाषा भी तू  न  बन  सकी आज तक ! अंग्रेजीपरस्त अधिकारी-कर्मचारी अगर अंग्रेजी में न बोलें या काम न करें तो उनकी  ठसक  कैसे  बरक़रार रह पायेगी ? महोदय   हिंदी दिवस पर भाषण दे रहे हैं ,"बाई द वे हम हर साल हिंदी वीक मनाते हैं | हमें हिंदी को आनर देना चाहिए | हर ओफिसिअल को हिंदी में वर्क करना होगा तभी हम हिंदी को टॉप पोजीसन पर ला पाएंगे |" एक श्रोता बोला ," बस-बस रहने दें महोदय ! हो गया कल्याण ! हिंदी को उसके हाल पर छोड़ दें ! महोदय , हिंदी आपके भाषणों से नहीं , आपके हिंदी सप्ताह या हिंदी पखवाड़ों से नहीं बल्कि हिंदी तो जिन्दा है -- गाँव के अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे लोगों की जिंदगी में | उनकी बोलचाल में ! उनके रोने गाने में ! उनके रहन- सहन में !"          भला कब सोचेगी सरकार और कब जागेंगे हमसब ? कैसे हो पायेगा वास्तविक विकास अपनी प्यारी भाषा हिंदी का ?
         और अंत में ------
                            अपने भारतवर्ष की   पहचान है हिंदी |
                            गरिमा है  गौरव है हिंदुस्तान है हिंदी |

Friday, September 10, 2010

आज़ाद देश के हैं जरा मुस्कुराइए ?

            आप  यूं न  रोईये ,   आंसू   बहाइये |
            आज़ाद देश के हैं जरा मुस्कुराइए ?

        भुखमरी  है  देश में फैली  तो   क्या हुआ ?
        सोने से भरी उनकी तिजोरी तो क्या हुआ ?
        झोपड़ी है रोती-सिसकती  तो   क्या हुआ ?
        बंगलों में कैद देश की हस्ती तो क्या हुआ ?

           गोरे गए तो कालों की खिदमत बजाइए |
            आज़ाद देश के ------------------------|

       देखो चोर-माफिया    आज़ाद हैं यहाँ |
       भेड़ियों के झुण्ड ही  आबाद हैं यहाँ |
       आज़ाद  हुए  राज-काज   देखनेवाले |
       आज़ाद हैं वतन की लाज बेचनेवाले |

               गद्दारों को अदब से जरा सर झुकाइए |
               आज़ाद देश के हैं जरा   मुस्कुराइए |

Thursday, September 9, 2010

मैं हूँ पत्थर नगीना बना दीजिये

       प्रीति की रीति इतनी निभा  दीजिये |
       मेरे आंसू हैं - मोती    बना    दीजिये |
       सिर्फ इक बार अधरों से छूकर मुझे ,
       मैं हूँ पत्थर- नगीना  बना  दीजिये |

      मुझको चाहो न इतना मैं डर  जाऊँगा | 
      दिल का शीशा जो टूटा बिखर जाऊँगा |
      गर किया दूर नज़रों से  मुझको कहीं ,
      जाऊंगा पर  न जाने    कहाँ  जाऊँगा |

Wednesday, September 8, 2010

मुक्तक

    ऐसे अंधियारे में   सविता की   बात करते हो |
   प्यार की , स्नेह की , ममता की बात करते हो |
   जहाँ कुर्सी   बड़ी है    देश से ,      मनुजता से ,      
   यार किस दौर में    कविता की बात करते हो ?
 
   हर तरफ छाया हुआ है धुआं काला-काला |
   देश अब कौन तेरी फ़िक्र है    करने  वाला |
   तेरे  टुकड़े हजार  करनेवाले हैं  तो   बहुत ,
   कोई दिखता नहीं तेरी शान पे मरनेवाला |

   दिल में सहेजे  दर्द का  सारा  ज़हान हूँ |
   चीखों से- कराहों से  भरा  आसमान हूँ |
   अपनों ने किया जर्जर फिर भी महान हूँ |
   कवि नहीं हूँ दोस्त मैं हिन्दोस्तान हूँ |

Tuesday, September 7, 2010

सबके लिए बराबर होती है फटकार कबीरा की

राम रहीम आस्थाओं के पूजनीय हैं , प्यारे हैं |
इनको  लेकर   नफरत   फैलाने  वाले   बेचारे  हैं |
प्रेम जहाँ रसखान का वहीँ प्रीति मिलेगी मीरा की |
सबके लिए बराबर  होती है   फटकार   कबीरा की |
जिनकी वाणी से बहती समता की अमृतधार नहीं |
उन्हें समाजसुधारक बनने का कोई अधिकार नहीं|
गुनाह किया न किया पर गुनहगार तो हूँ |
सजा मिले न मिले उसका  हकदार  तो हूँ |

Monday, September 6, 2010

ग़ज़ल

              तुम कहते हो मौसम बहुत सुहाना है |
             इसी बात का मातम मुझे मनाना है |
             सावन के अंधों किस भ्रम में खोये हो 
             हरियाली थी कभी आज  वीराना है |
             महंगाई तो  महलों से  अनुबंधित है
             झोपड़ियों को इसका मोल चुकाना है |
             उधर उजाला -इधर अँधेरा रहता है 
             शायद मेरे  देश का सूरज काना है |
      

Friday, September 3, 2010

आ गयो माखनचोर ................

हे प्रभो कृष्ण कन्हैया , रासरचैया ,नाग नथैया,कंसारी - मुरारी ,जग तारक-उद्धारक,वासुदेव -नन्दलाल -यशोदानंदन , ब्रजबिहारी-गोवर्धनधारी  आप पधारे -भाग्य हमारे | आप ने हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी भादौं की अष्टमी को कारी अंधियारी रात में पुनः जन्म ले लिया भारतभूमि पर | आपका शत-शत वंदन है -अभिनन्दन है | हे सुदामा के मित्र दीनबंधु  : आज असंख्य सुदामा आपकी कृपादृष्टि के लिए व्याकुल हैं |मंहगाई ,शोषण और गरीबी ने इन्हें असहाय बना रखा है | मुष्टिक और चान्डूर इन्हें उठा -उठा कर पटक रहे हैं | इनकी जान के लाले पड़े हुए हैं | हे प्रभो : इन्हें अपने गले से लगा लो -इनकी जिन्दगी में भी खुशहाली ला दो | प्रभो : आप तो जगतपिता हैं , विश्व के पालनहार हैं , आपके संकेत मात्र से क्या कुछ नहीं हो सकता ?    एक बार अपनी भारत भूमि पर दृष्टि डालो भगवन : आज एक नहीं अनेकों कंस हैं जो अपने अत्याचारों से जनता को त्रस्त कर रहे हैं | छोटे कंस -बड़े कंस और उनके असंख्य मुष्टिक और  चान्डूर पूरे देश में दिल्ली से गाँव तक फैले हुए हैं | कौरवों की असंख्य सेना पांडवों पर भारी पड़ रही है | भीष्म पितामह और गुरु द्रोणाचार्य नमक की कीमत अदा कर रहे हैं , द्रौपदी के चीरहरण में मौन बैठे हैं | धर्मराज द्यूतक्रीड़ा में अपना सब कुछ हार   बैठे हैं | अपने आपको आपका वंशज बताने वाले भी कंसलीला में शामिल हैं |    कुबलयापीड़ पगलाया हुआ है, उसका दांत उखाड़ने वाला भला आपके सिवा कौन हो सकता है | आपने पेय जल को विषाक्त कर देने वाले कालिया नाग को नाथा था | आज ऐसे जाने कितने नाग खुली सड़कों पर नर्तन कर रहे हैं | आपने दूध, दही,घी को ब्रज से मथुरा  जाने से रोकने के लिए दूध -दही की मटकियाँ फोड़ी थीं | अपने साथी ग्वाल बालों को स्वस्थ रखने के लिए घर-घर माखनचोरी की | नारियां कभी मर्यादा की सीमा को लाँघ कर नग्नता तक न पहुँच जाएँ ,इसीलिए आपने चीरहरण का खेल किया |नए गौरवपूर्ण भारत निर्माण के निमित्त महाभारत का युद्ध रचाया | अभिमानी देवराज इन्द्र का मानमर्दन करते हुए आपने गोवर्धन पर्वत की पूजा करवाकर दिखला दिया कि जलवर्षा पहाड़ों और जंगलों को बचाने एवं उन्हें सम्मान देने पर ही होगी | बता दिया कि जनता के लिए दम्भी देवता से कहीं अधिक पर्वत और वन पूजनीय हैं जिनसे  अनेकानेक  जड़ी बूटियाँ ,लकड़ियाँ ,वर्षा और हरियाली मिलती है | आपका एक-एक कदम मानवता का आदर्श बन गया
              पर हे बनवारी : आज सब कुछ उल्टा-पुल्टा हो रहा है | अपनी वंशी की  मधुर धुन पर जड़ -चेतन को विमोहित कर नचाने वाले हे राधे रमण :  विश्व को गीत-संगीत का ज्ञान करानेवाले  भी तो आप ही हैं | फिर कैसा विलम्ब प्रभो ! अपने भारत को एक बार फिर उसी शिखर तक पंहुचा दो जहाँ पहले कभी था |
             पुनः-पुनः कोटि-कोटि वंदन है -अभिनन्दन है आपका! हे नयनाभिराम ! शत-शत प्रणाम !
                 
       

Thursday, September 2, 2010

शहीदों की मजारों पर..............

कुछ समय पहले मैंने किसी अख़बार के भीतरी पन्ने के एक कोने में छपी एक खबर पढ़ी की  एक अमर शहीद की नब्बे वर्षीया विधवा के पास रहने के लिए घर नहीं है | वह एक खंडहरनुमा कमरे में किसी तरह गुजर बसर कर रही है , जिसकी छत से बरसात का लगभग आधा पानी अन्दर आ जाता है | बहुत लोगों ने यह खबर पढ़ी होगी | कुछेक प्रतिक्रियाएं भी आयीं | इसी क्रम में अभी कुछ दिनों पहले अख़बार में एक और खबर छपी | क़स्बा उतरौला , जनपद -बलरामपुर , उ० प्र० निवासी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्व० महादेव प्रसाद जी का प्रपौत्र कस्बे की सड़कों और गलियों में भीख मांग रहा है | वे दो भाई हैं |उनके रहने को न तो घर है और न खेती के लिए जमीन | छोटे भाई का एक पैर बीमारी के कारण ख़राब हो गया है और बड़ा भाई उसीके इलाज के लिए भीख मांग रहा है | वे सड़क के किनारे या किसी दयालु के दरवाजे पर रात  में सो जाते हैं और अगल-बगल के लोगों से खाने को जो कुछ मिल जाता है उसी से अपने पेट की आग बुझा लेते हैं | इस समाचार पर भी कुछ व्यक्तियों एवं संस्थाओं की प्रतिक्रियाएं पढने को मिलीं | समाज के कुछ बुद्धिजीवियों  ने राज्य एवं केंद्र सरकार को संवेदनहीन कहते हुए भर्त्सना की | कुछ स्थानीय नेताओं ने यथासंभव मदद करने का वादा किया तो अधिकारियों ने जांच करके उचित कार्यवाही किये जाने की बातें कहीं | तीसरे दिन सब कुछ पहले जैसा सामान्य हो गया | मन ग्लानि से भर गया | शायद कुछ रुपये अमर शहीद की बुजुर्ग विधवा को दे दिए गए हों लेकिन नया घर तो नहीं ही दिया गया होगा | स्वतंत्रतासंग्राम सेनानी के प्रपौत्र को भी शायद कुछ आर्थिक सहायता दे दी गयी हो किन्तु रहने के लिए घर ,जीविकोपार्जन का कोई स्थाई साधन और बीमार भाई के सम्यक इलाज की समुचित व्यवस्था नहीं ही उपलब्ध कराई गई होगी |                                          
                                                 ऐसा क्यों ? देश को आजादी   दिलाने के लिए  जिन बीर  बांकुरो ने या तो  लड़ते-लड़ते  अपने प्राण निछावर कर दिए  या आजीवन कारावास और काला पानी की सजा पाकर भयंकर यातनाएं झेली , उनके परिवार के लोगों को इस देश और समाज ने क्या दिया | हम सभी भारतवासियों को अंग्रेजों  की गुलामी से मुक्त कराने के एवज  में आज इनके परिवारों को ऐसे दिन क्यों देखने पड़ रहे हैं  ? हम कितने स्वार्थी और संवेदनहीन हो गए  हैं ? केंद्र और राज्य सरकारें जानबूझकर इनकी उपेक्षा  क्यों कर रही हैं ? सरकारी नौकरी वाले वेतन बढ़ाने के लिए हड़ताल करते हैं ,  सरकारें  झुकती हैं , मांगें मानती हैं | कुछ न कुछ वेतन जरूर बढ़ता है | व्यापारी हड़ताल करते हैं उन्हें भी रियायतें मिलती हैं | और तो और देश की संसद  में जनता द्वारा चुने गए सांसद भी अपना  वेतन कई गुना बढ़ाकर   नौकरशाहों से अधिक पाने की लालच में समानांतर लोकसभा कार्यवाही तक चलाते हैं | राजनैतिक पार्टियाँ देश स्तर से  ग्राम स्तर तक अपने सदस्य बनाती हैं | चुनाव  में अपनी हार जीत का सर्वे कराती हैं |
                                                       फिर क्या कारण है कि  आजादी की लड़ाई में शहीद बलिदानियों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों  के परिवारों  की संख्या का सर्वे केंद्र और राज्य सरकारें नहीं  कराती| उनकी वर्तमान पारिवारिक स्थिति का आकलन करके आधारभूतआवश्यकताओं  को क्यों नहीं पूरा करती  ? हम आम लोग इसे क्यों अनदेखा कर रहे हैं ? हम इनकी दुर्दशा को समाप्त करने और इन्हें पूरी तरह सरकारी संरक्षण   दिए जाने के लिए कोई आन्दोलन क्यों नहीं चलाते ? जबकि कोई सांसद या विधायक , चाहे वह एक दिन के लिए ही क्यों न चुना जाए , पूरी पेंशन   और अन्य सुविधायें पाने का हक़दार हो जाता है तो जिन्होंने देश के लिए अपने प्राणों की आहुतियाँ दे दी  उनके परिवार के साथ ऐसा क्यों ? हम हर वर्ष स्वतंत्रता दिवस  और गणतंत्र दिवस क्यों मनाते हैं   ? यह देश और देश के लिए अपना सब कुछ लुटा देने वालों के  साथ मजाक नहीं तो और क्या है ?
                                                     क्या इतना ही गा लेने से इनके प्रति हमारे कर्तव्यों की इतिश्री हो जाती है -
                                                       " शहीदों की मजारों पर लगेंगे हर बरस  मेले ,
                                                         वतन पे मरने वालों का यही बाकी निशां होगा |"