लाल बेहाल 'सुरेन्द्र', भला जननी सम को जग में हितकारी
माँ की तामस पूजा.... अनुचित
जगजननी जो पालती हैं जग, जीव सब ,
किसी असहाय का , वो रक्त नहीं चाहतीं |
जिन्हें करि ध्यान,लेत साधक सुज्ञान-ज्योति ,
सुरा ज्ञाननाशिनी पे , कृपा नहीं वारतीं |
सत-चित-आनंद की , तेजयुत रूप-राशि ,
तामस - आचारियों को, भव न उबारतीं |
अरे नर ! त्यागि दे कुपंथ, सत्य पंथ धर ,
आदिशक्ति मातु आज, क्रोध में पुकारतीं |
चाहता है गर, जग-जननी प्रसन्न हों तो ,
बलि नाम पर, तू क्यों पशु है चढ़ा रहा ?
अरे मूढ़ ! करि बदनाम, तू उपासना को ,
मतिमंद ! मदिरा का , ढेर ढरका रहा ?
तामस आहार औ विचार सों, विहार करि,
नाहक में सिद्धि का, क्यों ढोंग है रचा रहा ?
स्वयं तो बिगाड़ता है , लोक-परलोक सब,
दूसरों को, पापी ! पथ नाश का दिखा रहा |
होतीं जो प्रसन्न मातु, मदिरा चढाने से तो ,
सुरासेवियों पे ही वो, तीनों लोक वारतीं |
दुराचारियों के भ्रष्ट-पंथ पे जो रीझतीं तो ,
तामसी- तमीचरों के, कुल न उजारतीं |
अरे मूढ़ ! ढूंढता है, कहाँ जगजननी को ,
होता गर ऐसा तो, सुधर्म न संवारतीं |
धारतीं न भूल के, कभी भी नरमुंड-माल ,
काली सदा बकरे का, मुंडमाल धारतीं |
पर-उपकार के सरिस नहिं महापुण्य,
नहिं महापाप पर-पीड़ा के समान है |
जीवों पर दया कर, चले सत्य पंथ नर ,
एक ही अहिंसा,कोटि-यज्ञ की ऊंचान है |
प्रेम सों रिझाइ के, लगाइ के लगन, तन-
मन-धन अर्पण, पूजा का विधान है |
माँ ने जो कहा है, सोई कहत सुरेन्द्र,बलि-
पशु की चढ़ाना, जननी का अपमान है |
रो रहे जो मातु के, अभागे लाल झोपडी में,
गले से लगाके मीत, उनको हँसाइ दे |
देश में घुसे है जो, लुटेरे बक-वेश धारी,
क्रान्ति की मशाल बारि, देश से भगाइ दे |
गर वो उजाड़ते हैं, तेरी फूस झोपडी तो,
तू भी दस-मंजिले में, आग धधकाइ दे |
बलि चाहती हैं तो, समाज के निशाचरों का,
शीश काटि-काटि आज, काली को चढाइ दे |
जगजननी सों बँधी, जब से सनेह डोर,
जगी प्रेम-ज्योति, घनघोरिनी अमां गयो |
एक रूप-मातु, हर रूप में दिखाई पड़े ,
सोई घनश्याम, सोई राम औ रमा भयो |
कामदास को मिली,प्रतीति भक्ति भावना में,
प्रेम का अथाह धन, पल में कमा गयो |
तात-मात-भ्रात सोई, मेरो सब नात सोई,
पद जलजात सोई, उर में समां गयो |