Thursday, December 30, 2010

कुछ ऐसा हो जाये नए साल में

(हम किसी शुभ अवसर,शुभ आरम्भ या नववर्ष पर एक दूसरे को हार्दिक शुभकामनायें  सदा से देते चले आ रहे हैं | इस परंपरा में 'सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः' की सर्वकल्याण भावना निहित है ,जो हमारी भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है | हम दूसरों के दुःख में दुखी हों और दूसरों के सुख में सुखी- न कि ईर्ष्या करें | हम व्यक्ति , समाज और देश के उत्थान एवं मंगलमय भविष्य की कामना ही कर सकते हैं|क्या घटित होता है -शुभ अथवा अशुभ ? इस पर अपना बस कहाँ ! फिर भी हम तो यही कामना करेंगे कि सब कुछ अच्छा ही हो आनेवाले नए साल में !)

कुछ ऐसा हो जाये नए साल में | हर प्राणी  सुख पाये  नए साल में
               छंटे अँधेरा मिटे  उदासी
               हर आँगन हो पूरनमासी
सूरज सोन लुटाये नए साल में | नया  सवेरा   आये   नए साल  में
               मिटे घोटालों का घनचक्कर
               सत्यनिष्ठ हों  नेता , अफसर
भ्रष्टाचार लजाये नए साल में | रिश्वत  शरण   न  पाए  नए  साल में
               जीवित रहे न कोई दरिंदा
               इंसानियत न हो  शर्मिंदा
बिटिया कालेज जाये नए साल में | कुशल से वापस आये नए साल में
               अख़बारों की खबर हो अच्छी
               खबर- लूट , हत्या , दहेज़ की
छपकर कभी न आये नए साल में | सद्साहित्य समाये  नए साल में
               बहे ज्ञान-विज्ञान की गंगा
               मान और सम्मान तिरंगा
गगन तलक लहराए नए साल में | देश की शान  बढ़ाये  नए साल में

  




Monday, December 27, 2010

कह झंझट झन्नाय...

                   दो कुण्डलियाँ 
  ' राजा ' ने   तो   कर   दिया   दूर   दूर  संचार |
  करूणानिधि का हाथ है फिर क्या सोच-विचार |
  फिर क्या सोच-विचार शिष्य का धर्म निभाया |
  लूट-पाट   कर  देश  गुरू  के   चरण   चढ़ाया |
मनमोहन,सोनिया जाएँ तो कहाँ को कहाँ को जाएँ ?
भ्रष्टाचार   मिटायें    कि    अब    सरकार   चलायें ?

  घोटालों  का  दौर है  घपलों  की  भरमार |
  हर कुर्सी पर जमे हैं   रंगे   हुए    सियार |
  रंगे  हुए   सियार  इन्हें  अब  कौन उतारे ?
  कौन है ऐसा गधा   दुलत्ती  खींच  के मारे ?
कह   झंझट   झन्नाय   सुनो  हे   भारतवासी |
देश  बन   गया   बेईमानी  का ,  काबा-काशी |

Tuesday, December 21, 2010

एक पर्वत हिला के देखेंगे

स्वयं  को   आजमा   के   देखेंगे |
एक   पर्वत   हिला    के    देखेंगे |
सुना, जालिम है बड़ा  ताकतवर,
चलो   पंजा    लड़ा   के   देखेंगे |
चाँद तारों की सजी महफ़िल में,
एक   सूरज  उगा    के    देखेंगे |
आग  बस आग की  जरूरत है,
चाँदनी    में    नहा  के   देखेंगे |
हारकर बैठना आदत  में नहीं ,
जंग   आगे   बढ़ा   के    देखेंगे |
भग्न मंदिर के इस कंगूरे पर,
एक   दीपक  जला  के  देखेंगे |
रात मावस की बड़ी काली है ,
एक  जुगनू   उड़ा    के   देखेंगे |


Saturday, December 18, 2010

अमर शहीद लाहिड़ी जी के ८४वें बलिदान दिवस(१७ दिस.२०१०) पर....

आज  अमर शहीद  राजेंद्र नाथ लाहिड़ी का ८४वाँ बलिदान दिवस है | इस जांबाज  स्वतंत्रता संग्राम  सेनानी को मात्र  २६ वर्ष की अल्पायु  में  १७ दिसंबर १९२७ को गोंडा (उ. प्र.) जेल में  फाँसी दे दी गयी  थी | जुर्म था--आज़ादी की लड़ाई में हथियारों की खरीद के लिए काकोरी रेलवे स्टेसन पर ट्रेन रोककर सरकारी खजाना लूटना | 
             अंग्रेजों से लड़ी जानेवाली  लड़ाई को और मजबूती देने के उद्देश्य से क्रांतिकारियों की बैठक में निश्चित किया गया कि ब्रिटिश  माउजर खरीद के लिए धन की व्यवस्था सरकारी खजाना लूटकर किया जाये | इसे अंजाम दिया गया | इसमें शामिल क्रन्तिकारी थे --पं. राम प्रसाद 'बिस्मिल' , ठाकुर रोशन सिंह , नवाब अशफाक उल्ला खां , और राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी | लखनऊ के वर्तमान जी पी ओ भवन की अदालत में जज हेल्टन द्वारा इन चारों क्रांतिकारियों को फाँसी की सजा सुनाई गयी | राजेद्र नाथ लाहिड़ी को गोंडा जेल भेज दिया गया , जहाँ १७ सितम्बर १९२७ को इन्हें फाँसी दे दी गयी |
            लाहिड़ी जी का जन्म ३० जून १९०१ को वर्तमान बांगलादेश के  जनपद-पावना के मोहनपुर गाँव में हुआ था | इनके पिताजी का नाम श्री  क्षिति मोहन लाहिड़ी एवं माताजी का नाम श्रीमती बसंत कुमारी था | प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय स्तर पर प्राप्त करने के उपरांत लाहिड़ीजी ने  उच्च शिक्षा के लिए काशी विद्यापीठ बनारस में प्रवेश लिया | यहाँ इनको क्रांति भक्त सान्याल साहब का सानिद्ध्य मिला और ये रिपब्लिकन पार्टी के जांबाज सिपाही बन गए | यहीं से लाहिड़ीजी का संपर्क चन्द्र शेखर आज़ाद ,सरदार भगत सिंह ,ठाकुर रोशन सिंह ,पंडित राम प्रसाद बिस्मिल ,नवाब असफाक उल्ला खां  सरीखे  अन्य  देशभक्त  क्रांतिकारियों से बना और आज़ादी की लड़ाई में पूरी तरह कूद पड़े | लाहिड़ी जी सबसे कम उम्र के थे |
         पहले फाँसी की तारीख़ १९ दिसंबर १९२७ नियत की गयी थी | चन्द्र शेखर आजाद जी १५ दिसंबर १९२७ को गोंडा आकर गाँधी पार्क की झाड़ियों में छिप गए थे  | उन्होंने गोंडा के क्रातिकारियों के साथ बैठक कर लाहिड़ी जी को गोंडा जेल से निकालने की योजना बनाई |गोंडा जेल के चारों तरफ खेत थे | बगल लगभग ३०० मी .की दूरी पर मौजूद अरहर के खेत से जेल के अन्दर तक एक सुरंग खोदकर लाहिड़ी जी को जेल से मुक्त कराने की योजना पर अमल किया ही जाना था कि सभा में मौजूद एक गद्दार ने इसकी सूचना पुलिस अधीक्षक को दे दी |फिर क्या था , अंग्रेज अफसरों ने नियत तिथि से दो दिन पूर्व ही १७ दिसंबर १९२७ को फाँसी दिए जाने का आदेश दे दिया |  
      फाँसी दिए जाने से पूर्व लाहिड़ी जी ने गीता  का पाठ किया , कसरत की | जेलर के यह  पूंछने पर कि जिस शरीर को फाँसी मिलनी  है , कसरत करके उसे और मजबूत करने का क्या मतलब है ?, लाहिड़ी जी ने जवाब दिया ,'मैं मरने नहीं जा रहा हूँ बल्कि आजाद भारत में पुनः जन्म लेने जा रहा  हूँ |' उन्होंने गोंडा की जनता से अपील किया कि फाँसी के समय जब वे 'वन्दे मातरम' का उदघोष करें तो इसका जवाब जेल के बाहर चारों तरफ से मिले | वही हुआ भी ! भारी सुरक्षा व्यवस्था होते हुए भी जेल-दीवार के चारों ओर के खेतों में हजारों देशभक्त एवं क्रन्तिकारी योद्धा रात से ही खेतों में छुपे प्रातः ४ बजे का इंतजार करते रहे | प्रातः ४ बजे इस आज़ादी के वीर सिपाही के गले में जब फाँसी का फंदा डाला गया तो 'वन्दे मातरम' की हुंकार अंतिम आवाज़ बनकर निकली जिसके जवाब में बाहर से हजारों कंठों ने 'वन्दे मातरम' उदघोष के साथ इस अमर शहीद को अंतिम सलामी दी | आज भी जेल के अन्दर उनका बलिदान-स्थल और  बाहर कुछ दूरी पर उनकी पवित्र समाधि मौजूद है |प्रति वर्ष  जनपदवासी उनके अमर बलिदान को याद करके उनकी समाधि पर श्रद्धा सुमन चढाते हैं ----

            देश की खातिर ही जीना था देश की खातिर मरना था |
            किसी  भी तरह   भारतमाता    की   पीड़ा   को हरना था |
            एक जुनूँ ,उन्माद एक-आजाद   हो   अपना  प्यारा वतन ,
            आज़ादी   की    बलिवेदी   पर    हँसते-हँसते   चढ़ना   था |

           कीड़ों और मकोड़ों जैसा जीवन क्या सौ साल जियें ?
           कायर बनकर करें गुलामी अपमानों का जहर पियें |
           इससे अच्छा स्वाभिमान से देश का मस्तक ऊँचा हो,
          रहें सिंह की तरह शान से, चाहे साल- दो साल जियें |

         छब्बीस साल उम्र होती है सिर्फ खेलने -खाने की |
         पढ़ने-लिखने की होती है या धन-धाम बनाने की |
         मगर लाहिड़ी जैसे भारत माँ के अमर सपूतों की ,
         छब्बीस साल उम्र होती है फाँसी पर चढ़ जाने की |

       आज  शहीदों के  सपनों  को   तोड़   रहे   हैं   लोग |
       भारतमाता  की   किस्मत   को  फोड़  रहे  हैं  लोग |
      अमर शहीदों ने जिस पर कुर्बान ज़वानी कर डाली,
      अपने  उसी  वतन  का लहू   निचोड़  रहे  हैं  लोग |

Tuesday, December 14, 2010

बाँसुरी और तबला

मन की बाँसुरी से
नहीं निकलती
अब सुरीली तान..
तन के तबले की
थाप भी  
करती है भांय-भांय..
लगता है शायद
टूटने लगी है
बांसुरी की साँस
और
तबले पर मढ़ा चाम
ढीला पड रहा है..

तितली और भंवरा

खिले फूल पर
बैठी तितली
बड़ी देर से
नहीं उड़ी..
लगता है
किसी बदजात भँवरे ने
उसके
सुनहले परों को
कहीं से नोच दिया है..


गुलाब और कमल

देवता के शीश  पर
चढ़ा गुलाब 
बगल में पड़े हुए  
कमल से बोला ,
'मेरी जैसी सुन्दरता तुझमे कहाँ ?
काँटों में रहकर भी खिला हूँ ,
मैं हर पल
मुस्कुराने का सिलसिला हूँ |'
कमल बोला,'क्यों शेखी बघारता है ?
डींगें मारता है
लान के गमलों में खिलने वाले
तू विस्तार क्या जाने ?
मौसम की मार क्या जाने ?
तूने पहले कांटे उगाये हैं
फिर फूल आये हैं
मैंने कीचड़ में जन्म लिया
फिर भी उसमे नहीं सना
अथाह सरोवर की गहराई नापकर
सर्वोच्च सतह पर आकर
पूरे मन से खिला हूँ ,
मैं जिंदगी जीने की कला हूँ |'


Friday, December 10, 2010

महँगाई

  सब्जी..
 नखरीली प्रेमिका की तरह
इठलाती है..
निगाहों के पास मगर
पहुँच से दूर ...
हम देखते हैं घूर-घूर ..
टमाटर गालों की लाली
गोभी का फूल हँसी निराली
धनिया की महक
छूने को मन करता है..
मगर वह दूर हट जाती है
मेरी जेबों को टटोलकर
बड़ी अदा से कहती है..
'इंतजार में बड़ा मज़ा है
जल्दबाजी में न आना
दूर से ही देखते रहना
मगर हाथ मत लगाना'..



Wednesday, December 8, 2010

धिक् साखी सामंत की..

धिक्  साखी सामंत की , धिक् बोलो !
        मुहफट लज्जारहित सयानी
       लटक-झटक नखरही गुमानी
       जहरबुझी  जिह्वा  जगजानी
चैनलिया इन्साफ के जरिये
किसी के   जीवन अंत  की , धिक् बोलो
      टी आर पी   बढ़ानेवाली
     असभ्यता सरसाने वाली
     संस्कृती  झरसाने वाली
काली-अंग्रेजियत नमूना
मीका-कथा  अनंत  की , धिक् बोलो
  तड़क-भड़क कतरन की गुडिया
   सेक्स उभारक     जादू पुड़िया
   नज़र-नज़ारा  नजरी कुडिया
चुना स्वयं वर ठोकर मारी 
टी वी    वाले     कंत    की , धिक् बोलो 
  बड़बोली   आईटम    धमाका 
  डाले रोज   इमोशनल   डाका 
  क्या होगा अब देश का काका ?
नारी की गौरव-गरिमा में 
घोल रही  छल-छंद   की  , धिक् बोलो

Monday, December 6, 2010

'सरकारी वाहन '...'फ़िल्मी दुनिया'...'विधायकी चिंता'


   सरकारी वाहन
साहब तो विभाग में घुसते ही
भ्रष्टाचार  की दुहिता
राजकुमारी रिश्वतसंहिता से
मैरेज कर चुके हैं 
और सरकारी वाहन- 
दहेज़ में पा चुके हैं !       
         फ़िल्मी दुनिया
आजकल -
फ़िल्मी दुनिया के पीछे 
सारी दुनिया चल रही है |
गाँव की भोली-भाली-
फुलमतिया भी 
मल्लिका शेरावत 
बन रही है |
     विधायकी चिंता
ये सर की करें  चिंता  या कार  की करें |
या   बीहड़ों   में  बैठे   सरदार   की  करें |
झंझट ये हैं विधायक ,मजबूरियां भी हैं ,
चिन्ता करें तुम्हारी या घर-बार की करें | 


Wednesday, December 1, 2010

चौराहे पर खड़ा कबीरा.......

चौराहे पर खड़ा कबीरा अलख जगाए रे |
सारी दुनिया पागल समझे हँसी उड़ाए रे |
       राम-रहीम    नाम   पर    ठेकेदारी   होती  है |
       बेबस  इंसानियत तो सौ-सौ   आंसू  रोती है |
       नफरत की पौधें रोपी  जातीं निर्मल  मन में ,
       मात्र स्वार्थ की इस समाज में खेती होती है |
ढाई आखर हलक में जैसे डंक चुभाए रे |
सारी दुनिया पागल समझे हँसी उड़ाए रे |
       देशप्रेम   की  ढोल पीटते  जाफ़र औ जैचंद |
       गद्दारों ने देश की पूँजी किया  बैंक में बंद |
       उजले कपड़ों में काले दिलवाले   हैं अगुआ ,
       भांडों की चाँदी, भूषण के मूक हो रहे छंद |
'वीरों का कैसा बसंत ?' कोई याद दिलाए रे |
सारी   दुनिया  पागल  समझे   हँसी   उड़ाए रे |
       लोकतंत्र   घायल  वोटों  के   चक्कर-मक्कर  में |
       देश दाँव पर लगा है बस कुर्सी के चक्कर में |
       नैतिकता  का   दामन    चिंदी-चिंदी   है    देखो  ,
       खिंची   हुई   तलवारें   घोटालों    के  चक्कर में | 
'चारा' तो कोई  ताजमहल  की ईंट  चबाए रे  |
सारी   दुनिया   पागल समझे  हँसी  उड़ाए रे   |  
       नेता-पुलिस-माफियाओं   के   पक्के   रिश्ते हैं  |
       इनकी  चक्की में  गरीब-बेबस ही  पिसते हैं  |
       ऊँची  कुर्सी  मिलती   है   गुंडों-दादाओं    को  ,
       निर्दोषों   पर  ही कानून   शिकंजे   कसते   हैं |
रामराज  में  भी   सीता  निर्वासन पाए रे |
सारी दुनिया पागल समझे हँसी  उड़ाए रे |
       ट्राफिक-पुलिस भरी सड़कों पर हफ्ता करे वसूल |
       डंडों   के  बल   चलता   थानों   का  अंग्रेजी- रूल  |
       नेताओं    के   चमचों   की     ही   दखलंदाजी   से ,
       जंगलराज   रहा   है    देखो    सरेआम   फल-फूल |
सत्तालोभी  , आदर्शों  की   ढोल  बजाएँ  रे |
सारी दुनिया पागल समझे  हँसी  उड़ाए रे |
       वोटों के सौदागर सब कुछ जानके हैं अनजान |
       इक दूजे पर कीचड़ फेंकें   कितने   हुए   महान !
       जनता तो मुहरा है , इनको  कुर्सी हासिल   हो -
       फिर तो देश रहे या जाये याकि   बने  शमसान |
कोई    इनके   हाथों  में   दर्पण   पकड़ाए  रे | 
इनका असली चेहरा तो इनको दिखलाये रे |
             चौराहे पर खड़ा कबीरा अलख जगाए रे |
             सारी दुनिया पागल समझे हँसी उड़ाए रे |

Friday, November 26, 2010

.....शहीद कभी मर नहीं सकते

आज मुंबई के ताज होटल पर हुए आतंकवादी हमले की दूसरी  बरसी है |
 पूरा देश नमन करता है उन शहीद जवानो का जिन्होंने देश की अस्मिता की सुरक्षा एवं देश के नागरिकों की प्राण-रक्षा में स्वयं का बलिदान दे दिया |
उन सीधे सादे निर्दोष नागरिकों को भी अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित है जो आतंकवादी हमले में असमय ही काल कवलित हो गए |
  ईश्वर २६/११/२००८  के हादसे में अमरत्व पानेवाले सभी शहीदों की आत्मा को परम शांति दे और उनके परिजनों को
असीम साहस प्रदान करे |
शहीदों का बलिदान कभी व्यर्थ नहीं जाता अपितु वह राष्ट्र निर्माण में  नींव की ईंट की तरह जुड़ जाता है |
जिन आतंकियों ने अकारण ये कहर बरपाया उनमे से एक 'अजमल कसाव'  को अब तक फाँसी नहीं हुयी, इसकी टीस हर हिन्दुस्तानी के दिल को कचोटती रहती है |
        ज्यादा कुछ कह पाने की मनःस्थिति नहीं , बस इतना ही ....
                  
                            राष्ट्र  पे  हमला हो ,  सहन   कर   नहीं  सकते |
                            बम से या गोलियों से भी वे डर नहीं सकते |
                            हर  दिल में   सदा   रहते  शूरवीर  की   तरह '
                            होते हैं  जो शहीद ,  कभी  मर   नहीं   सकते |
        
                                 जय हिंद !

Tuesday, November 23, 2010

गीत....अंधियारा जीता हूँ

इक सूनापन , इक सन्नाटा ,इक अँधियारा जीता हूँ |
भरा-भरा सा लगता जग को फिर भी रीता-रीता हूँ |
             सूरज की किरणें तो  थककर
             वापस  लौट  गयीं अपने  घर |
             शीतल स्निग्ध चांदनी भी तो
             कर न सकी उजियारा अंतर |
अमृत है , मदिरा कि हलाहल पीकर जिसको बहक रहा,
दहक  रहा  पर   जान  न   पाता  मरता हूँ  या   जीता हूँ |
              इक कोलाहल  सा  उठता है
              इक  तूफ़ान  भयंकर  आता |
              खो जाती सपनों की दुनिया
              एक सुहाना घर ढह    जाता |
चारों ओर  भीड़ है  लेकिन  एक  अकेला   पथराया सा ,
सूनी-सूनी   आँखों  से    बस    इक   सन्नाटा   पीता   हूँ   |
              स्मृतियाँ  भी नागफनी   सी
              उर के घावों  को   सहलातीं |
              चीर-चीर कर पीर ह्रदय की
              एक  अनोखा  सुख दे  जातीं |
लिपट-लिपट कर मैं भुजंग सा चन्दन की शीतलता चाहूँ
ताप    समेटे    उर   के   घावों     को     शब्दों   से    सीता हूँ |








Friday, November 19, 2010

--दर्द की छाँव में |

जिंदगी   दर्द   की  छाँव    में |
बस गयी  मौत  के गाँव में |
हर घड़ी सहमी-सहमी लगे ,
हैं   शिकारी   लगे  दाँव  में  |

आश की साँस चलती रही |
हर घड़ी मौत छलती रही |
नैन  सपने  सँजोते  रहे, पर -
ह्रदय    पीर     पलती   रही |

हर    सहारा    बहाना    बना |
स्वार्थ का   ताना-बाना  बना |
जितने मरहम लगे घाव पर ,
घाव    उतना   पुराना    बना |


Tuesday, November 16, 2010

देश वही हँस पाता है--(बाल दिवस-१४नव. पर)

उपवन   जैसे    सुंदर   लगता है  फूलों   की   क्यारी  से |
घर आँगन भी खिल उठता है बच्चों की किलकारी से  |
बच्चों   में   ही    मानवता  का    उच्चादर्श    पनपता  है |
देश वही हँस पाता है जिस देश का बचपन हँसता  है |

Wednesday, November 10, 2010

हरकीरत 'हीर'--नीर भरी दुःख की बदली

क्या कहूं ? कभी-कभी ऐसी मनःस्थिति हो जाती   है या यूं कहें कि रचना संसार में डूबते-उतराते कुछ ऐसे मुकाम मिल जाते हैं जहाँ मस्तिष्क स्थिर हो जाता है और ह्रदय में छुपा दर्द का सागर अचानक आंदोलित हो उठता है | यह सब अनायास ही नहीं होता बल्कि कहीं जब यही दर्द पन्नों पर बिखरा हुआ मिलता है तो आँखें स्वतः गीली होने लगती हैं | 
          मैं हरकीरत 'हीर' की रचनाओं को जब भी समय मिलता है जरूर पढता हूँ |       हर कविता दिल तक पहुँचती है | अभी दीवाली पर नवीनतम पोस्ट - छोटी-छोटी  क्षणिकाएं पढ़ी, स्वयं को सामान्य नहीं रख सका |
  प्रकृति के सुकुमार कवि पन्त जी की पंक्तियाँ ----
                          वियोगी होगा  पहला  कवि , आह से  उमगा   होगा   गान
                          निकलकर आँखों से चुपचाप , बही होगी कविता अनजान
चुपचाप आँखों से निकलकर ही तो बह रही हैं  'हीर' की कवितायेँ |
    महादेवी वर्मा का गीत ------
                        "   मैं नीर भरी दुःख की बदली
    परिचय इतना इतिहास यही उमड़ी थी कल मिट आज चली "
कितनी करीब दिखती हैं 'हीर' काव्य की इन परिभाषाओं के ! वियोग का इतना मर्मश्पर्सी चित्रण , दिमाग से नहीं दिल से ही संभव है |
मेरे शब्दों में -------
           दीनों के घर में   उजाला करे   चाहे   छोटा सा दीप   वही सविता है
           प्यासों  की प्यास   बुझाये सदा   भरा कीच   तलाव    वही  सरिता  है
           न्याय के संग चले जो सदा   न झुके जो  कभी  नर  सो  नर सा है
           कवि से कविताई न पूछो सखे उर की जो व्यथा है वही कविता है
ह्रदय की व्यथा को कागज के पन्नों पर यूं ही बिखेरती रहिये 'हीर' जी ! बहुत कुछ मिल रहा है हिंदी साहित्य को आप से ! ब्लॉगों का क्या ? बहुत कुछ लिखा-पढ़ा जा रहा है , मगर आप की भावनाएं एवं अनुभूतियाँ अनंतकाल तक काव्यरूप में सबके सामने अपनी उपस्थिति का एहसास दिलाती रहें , यही हमारी ईश्वर से प्रार्थना है |


Saturday, November 6, 2010

कहीं पर दिवाली-कहीं पर दिवाला

अँधेरे   का  चारों   तरफ    बोलबाला |
कहीं पर  दिवाली-कहीं पर दिवाला  |
     महंगाई   ने    है    कमर    तोड़   डाली
     गरीबों   की   थाली  है  रोटी  से  खाली
     है   भ्रष्टों  की   चांदी-दलालों   की चांदी 
     नेताओं ने भारत की लुटिया  डुबा दी 
घोटालों का खेल-कहीं खेल में घोटाला |
कहीं  पर  दिवाली - कहीं   पर  दिवाला |
     पंचों-प्रधानों     की    लीला    निराली
     इलेक्सन   में   सारी हदें   तोड़ डाली
     वोटर ने  भी खूब  जमकर   छकाया
     चला    दाम-दारू   औ   मुर्गा  उड़ाया
मगर वोट-नोटों की गड्डी में  डाला |
कहीं पर  दिवाली- कहीं पर   दिवाला |
     भाई की महफ़िल का क्या है   नज़ारा
     चल   जाती   है गोली    मिलते    इशारा
     जगमग    हवेली   भला  क्या    कमी है
     जुआ और इंग्लिश की महफ़िल जमी है
पुलिस-नेता-अफसर का संगम निराला  |
कहीं पर  दिवाली  -  कहीं   पर   दिवाला |
     मिलावट-मिठाई   है   याकि   जहर है
     चारों तरफ बस   कहर ही   कहर   है
     धरम-जाति-वर्गों में हम सब बँटे हैं
     कुर्सी के चक्कर में   बड़के    फँसे  हैं
शहीदों के  सपनों को  ही    बेंच   डाला |
कहीं पर दिवाली - कहीं पर दिवाला |
     देखो    गरीबी  में   आटा    है     गीला
     बिना रंग डाले ही   चेहरा  है   पीला
     समोखन के घर में न है  एक पाई
     लिया ब्याज पर तब  दिवाली मनाई
बताओ  भला है  कहाँ पर   उजाला  ?
कहीं पर दिवाली-कहीं पर दिवाला 

    

Thursday, November 4, 2010

शुभ दीपावली

अँधियारे का नाश हो घर-घर हो उँजियार |
जीवन ज्योतिर्मय करे  दीपों   का  त्यौहार |

       प्रकाशपर्व दीपावली की बहुत-बहुत शुभकामनायें !

Wednesday, November 3, 2010

--झोपड़ी जलाएगा ?

आती है दीवाली रंग लाती ज़माने में
सारा समाज क्या खुशियाँ मनाता है ?
कहीं पर चलते हैं व्हिस्की के हज़ारों पैग
सारा धन-वैभव सिर्फ जुए में ही जाता है 
साकी के नज़रों में डूब डूब प्यालों में
पीता है कोई  मौज-मस्ती मनाता है
ज़ख्मों की तरह जो उभरी हैं धरती पर
पूंछो  झोपड़ियों  से   कैसे  मनाएँगी  ?
मिलता नहीं मिटटी का खिलौना जहाँ बच्चों को
झोपड़ी  मिठाई के खिलौने कहाँ पायेगी ?
जलाने को शेष नहीं रहा पास जिसके कुछ
क्या वह दीवाली में झोपड़ी जलाएगा ?
जिन्दगी ही बन गयी होली-दिवाली जिसकी
कैसे बेचारा वह दीवाली मनायेगा ?
 

Monday, November 1, 2010

लड़ाई जारी है--

जीवन में संघर्ष करते-करते जब कभी हिम्मत हारने लगती है तो किसी महान व्यक्तित्व की प्रेरणा पुनः साहस जगा देती है | अगर न्याय की लड़ाई लड़ी जाये तो इसमें हार-जीत कोई विशेष मायने नहीं रखते मगर शर्त यह है कि इस लड़ाई में स्वार्थ हावी न हो | जनऔर समाज के हित के लिए किया गया संघर्ष कभी व्यर्थ नहीं जाता | मेरा तो सदा से यही उद्देश्य और विचार रहा है कि गाँव को लुटेरों के चंगुल से छुडाया जाये | गाँव से समाज और देश तक हावी भ्रष्टाचारियों और भ्रष्ट व्यवस्था के मकडजाल को नोच डाला जाये | यह लड़ाई किसी एक व्यक्ति की नहीं बल्कि सम्पूर्ण प्रबुद्ध वर्ग की है | इस लड़ाई को तभी जीता जा सकता है जब आम अल्पशिक्षित-अशिक्षित जनता को उसके अधिकारों एवं कर्तव्यों के प्रति जागरूक करने का अनवरत अभियान चलाया जाये | यह हमारे गावों  का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि हमारे युवाओं में से ७० प्रतिशत तक शराब व अन्य नशाओं के आदी  हो चुके है | जिनसे गाँव के , समाज के ,देश के उत्थान की उम्मीद थी उन्हें नशे की भट्ठी में झोंककर भ्रष्टाचार का हथियार बनाया जा रहा है | गाँव-समाज का प्रबुद्ध वर्ग या तो मौन होकर मात्र  अपने तक सीमित होकर रह गया है या भ्रष्टाचार का ही   अंग बन गया है | ऐसे में परिवर्तन कहाँ संभव है ? दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियाँ यही तो कहतीं हैं--
        "  माना  मेरे   दिल में नहीं   आपके    दिल में सही
          हो किसी भी दिल में लेकिन आग जलनी चाहिए "
खैर मुझे तो एक महान व्यक्तित्व श्री अटल बिहारी बाजपेयी जो ४० वर्षों तक विपक्ष में रहे और मात्र ६ वर्षों तक सत्ता में ,की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ सदैव प्रेरणा देती रही हैं ----

                     गीत नया गाता हूँ
टूटी   हुई   वीणा    से फूटे    बासंती    सुर|
पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर|
  झरे सब पीले पात , कोयल की  कुहुक रात,
  प्राची में    अरुणिमा   की   रेख देख  पाता हूँ | गीत नया गाता हूँ
टूटे हुए सपनों   की  सुनी नहीं    सिसकी |
अंतर की व्यथा-कथा अधरों पर ठिठकी |
  हार नहीं  मानूंगा , रार  नहीं   ठानूंगा ,
  काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूँ |  गीत नया गाता हूँ

Saturday, October 30, 2010

चौपदा

दलदल में यह देश क्यों भला न धंसता जाय |
हर दल  खड़ा   धकेलता  अब  हो   कौन  उपाय |
अब हो  कौन   उपाय   सभी    बाहर   से   चंगे |
मगर यहाँ   हम्माम   में हैं   सब के सब  नंगे |

चौपदा

जनता का दरबार है जनता की सरकार |
जनता को चूना लगे  जनता है    लाचार |
जनता है  लाचार   तमाशा   देख  रही है |
इसकी खरी कमाई   कुर्सी   ऐंठ    रही है |

Wednesday, October 27, 2010

पारस पत्थर

कल जब मिले थे हम-तुम
तुम पत्थर थी और मैं लोहा
तुमने छू लिया मुझे
मैं सोना बन गया और तुम-
पारस पत्थर
मैं अपनी चमक में गुम होता गया
और तुमने कई लोहे के टुकड़ों को-
बना दिया सोना अपने स्पर्श से
आज मैं सोचता हूँ कि
मेरा और तुम्हारा स्पर्श ही -
न हुआ होता तो अच्छा था
तुम पत्थर और मैं लोहा
कम से कम एक साथ 
खुरदरी जमीन पर पड़े-पड़े 
एक दूसरे को प्यार से 
एकटक देखते तो रहते  

Tuesday, October 26, 2010

यमराज का भतीजा है

सूरज की रोशनी में मक्खन सा उजला है
लेकिन अँधेरे में मक्कार बगुला है
दिन में अहिंसावादी -
गाँधी और बुद्ध का अनुयायी है
लेकिन अँधेरे में -
हिटलर का जमाई है
चुनाव के पहले रहनुमा है गरीबों का
चुनाव के बाद -
सिर्फ स्वार्थ-युद्ध जारी है
देश-कल्याण की आंड  में छुप-छुप कर-
जिसने आज़ादी की इज्जत उतारी है
खादी के तंतुओं में-
निहित भावनाओं को
जिस नकाबपोश दरिन्दे ने
जनता के खून से सींचा है
वह  नेता है-मानव नहीं है
देश का दुश्मन है-नर्क का अधिकारी है-
यमराज का भतीजा है 

Tuesday, October 19, 2010

हमार अर्जी

इस समय उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव चल रहा है | प्रत्याशी मतदाताओं को रिझाने की तरह-तरह की कोशिशें कर रहे हैं | जहाँ एक तरफ दारू-मुर्गा की खुलेआम दावतें दी जा रही हैं वहीँ दूसरी तरफ गरीब प्रत्याशी अपनी सेवाओं की यादें दिलाकर वोट मांग रहे हैं | ऐसा ही एक गाँव है जहाँ का प्रधान पद पिछड़े वर्ग में आरक्षित हो गया है किन्तु माल काट चुके पूर्व प्रधान अपने जेबी प्रत्याशी को लड़ाकर फिर से सत्ता हथियाने की कोशिश में लगे हैं | इसी गाँव का एक गरीब प्रत्याशी जो जाति एवं पेशे से नाई है, कुछ अलग ढंग से ही वोट देने की मार्मिक अपील जनता से कर रहा है, वह भी ठेठ बोलचाल की अवधी भाषा में | ज्यों की त्यों उसी की अर्जी प्रस्तुत है----------

                                 "  हमार अर्जी " 

बेलहा मौजा कै हमार बाबा,दादा,काका,भैया,भौजी,काकी,बहिनी,दादी सबका शफीउल्ला नाऊ कै राम-राम,पायंलागी,सलाम |
    आप सभे जनते हौ की अबकी हमहूँ परधानी पर खड़े होइ गेन है |आपै सबके बल भरोसे पर लड़ी गेन ,नाई तौ हमार कौन औकात है | हमार बाप-दादा आप सबके जजमानी माँ आपन  जिंदगी बिताय दिहिन ,हमहूँ आपै सब के सेवा मा लाग हन औ जिंदगी भर लाग रहब |आप सबके घरे लरिका पैदा होय तौ हमहूँ का वतनय ख़ुशी होई जेतना आपका | बियाह,गवन,मूडन,छेदन,सब मा तौ हम रहित है आपै सब के बिच्चा मा हमहूँ ख़ुशी मनायित है | हमार महतारी,मेहारू,काकी,चच्ची सभे आप सबके बाहर से भित्तर तक सेवा मा लाग रहति हैं |आप सभे बड़े अपनपौ से जब कुछू ठानत हौ तौ गोहरावत हौ शफीउल्लवाकहाँ गवा ? तनी भर आंख से ओटनाई होय देत हौ | घर के लरिका अस दुलारत हौ, मानत हौ |अरे हम तौ घर-घर कै बिलारि होई | जौ कहूं घर मा कूकुर घुसरि जाइ तौ डंडा से पिटहरा जात है मुला बिलारि तौ घरय मा रहति है | जौ ऊ हंडिया भर दूध जुठार देति है तबौ कोई मारत नाई है तनी भर रिसियाय भले जाय |
             भैया बहुत दिन से अलक्सन मा हमार घर-परवार आप सभै जहाँ चाहेव वोट दिहिस | आज जब पिछड़ी सीट होइ गय तौ हमहूँ खड़े होइ गेन तौ का कौनौ अपराध कय डारा ? कयिव जने खड़े हैं तौ तोहार सब कय नौवव खड़ा है | हम गरीब जरूर हन मुला आपै सबके बल भरोसे रहेन तौ कब्बव भूखा नाही सोवय दिहेव |आजिव हम खड़े तौ अपने मन से भयन है मुला ई जानित है की आप सब कय ताकत हमै पोढ़ किहे है |
              अबकी आप सभे हमका कार पर मोहर लगाय कै जिताय देव |यहै बार-बार हाथ जोरिकै ,पाँव परिकै हम आप सबसे विनती करित है | हम जीतब तौ आपौ सभे छाती ठोंकि कै कहिहौ की हमार नाऊ शफीउल्ला परधान होइगा | जब आज तक हमार खानदान आपै सबके सेवा मा लाग रहा तौ परधान बने पर का हम कहूं अलग भागि जाब ? अरे जेतना सभे बतैहौ,जेतना कहिहौ,जेतना चहिहौ वतना करब | तौ बनाय देव परधानअबकी अपने नाऊ शफीउल्ला का कुछ सोचौ विचारौ ना आज तक सेवा कीन है आगेव बराबर कीन करब |
                   आप सबकै सेवक परधान पद उम्मीदवार---शफीउल्ला 
                      चुनाव चिन्ह ----कार  
 

Monday, October 18, 2010

स्वप्नसुंदरी

संगमरमर की तरासी  मूर्ति हो तुम,
या अजंता की कोई  जीवित  कला |
याकि हो अभिशप्त उतरी मृत्युभू पे ,
देवबाला   हो  कि   कोई   अप्सरा |

शांत यमुना सी- सुकोमल सुमन सी ,
श्याम घन सम केश सुंदर कामिनी |
याकि  भादौं  की   अँधेरी रात   में,
चीर घन चमकी हो चंचल दामिनी |

स्वर्ण  सी  काया  महक  चन्दन  उठे ,
या सुमन  की  मधुर मोहक   गंध हो |
या मनुज-स्वप्नों की अदभुत सुन्दरी ,
या किसी कवि का सरस मधु-छंद हो |


Wednesday, October 13, 2010

चंगा हो मन---

जीवन में नहीं कुछ भी है विश्वास से बड़ा |
नेता न  कोई  हो  सका  सुभाष  से  बड़ा |
चंगा हो मन तो गंगा कठौती में आएँगी ,
न  भक्त  कोई  हो सका  रैदास  से  बड़ा |

Tuesday, October 12, 2010

जिंदगी हमारी इक गरीब की कमीज़ है

सीख लिया इससे ही रोते-रोते हँसना भी,
गम से बड़ा   न कोई   अपना अज़ीज़ है |
जिंदगी के जहर को   पल-पल पीना,और-
हँस-हँस कर    इसे जीना   बड़ी  चीज है |
कोई कहता है, " यार बड़ा है तमीजदार"
कोई कहता है ,  "  यार  बड़ा  बेतमीज है |"
लगे हैं    पैबन्दों पे पैबंद  मेरे मीत , यह-
जिंदगी हमारी इक गरीब की कमीज़ है |



Monday, October 11, 2010

पतझड़ के ठूंठ

मैंने श्रीमतीजी से कहा -
प्राणप्यासे ! बसंत आ रहा है |
वह बोली ,"किसके घर जा रहा है ?
जहाँ जा रहा है- जाने  दो
अपने घर मत बुलाना
बैठे-बिठाये मुसीबत मत लाना
परिवार में छः , मेहमान चार
इन्ही को बनाने-खिलाने में पस्त हूँ 
ऊपर से तुम्हारे सिरफिरे कवियों -
के औचक आगमन से त्रस्त हूँ 
आते ही जम जाते हैं 
चार-चार कवितायेँ सुनाते हैं 
वह भी मामूली नहीं 
द्रौपदी के चीर जैसी -
लम्बी एक-एक होती है 
सुर नहीं लय नहीं 
यति नहीं गति नहीं 
भाव नहीं बात नहीं 
न जाने कौन सी कविता होती है 
ऐसे में अगर बसंत भी -
घर आ गया तो 
संतुलन और भी बिगड़ जायेगा 
अगर कहीं वह भी कवि ठहरा 
तो और तो और 
परिवार संकट में पड़ जायेगा "
मैंने कहा ,"भागवान !
वह कोई कवि नहीं
बहारों का मौसम बसंत है
ऋतुओं का कंत है |"
वह बोली ,"क्या मुझे
समझ रक्खा है घोंघाबसंत ?
हा हन्त! तुम्ही हो मेरे -
तथाकथित पतिपरमेश्वर-कंत !
जिंदगी पतझार बन गयी है
गृहस्थी    इसी   में
रम     गयी है
इसमें बदलाव  की-
कोई    सूरत  नहीं   है
पतझड़ के ठूंठ !
तुम्हारे रहते
मुझे   किसी बसंत की -
जरूरत   नहीं   है |"


 

Friday, October 8, 2010

दीवार पर टँगी तस्वीरें

बिस्तर पर लेटे-लेटे
मै अपनी अलसाई आँखों को
हाथों से मल रहा हूँ , और -
बार-बार देख रहा हूँ
दीवारों पर टँगी तस्वीरें |
ये तस्वीरें ! जो बोलती हैं
ये तस्वीरें ! जो देखती हैं
ये तस्वीरें ! जो हँसती हैं 
और रोती भी हैं 
हर तस्वीर मात्र तस्वीर नहीं 
एक भरी-पुरी कहानी है 
संघर्ष भरे जीवन की
वह बोलती है कि
जब इंसान उठा तो -
कम पड़ गई ऊँचाई आसमान की
और जब गिरा पतन के गर्त में 
तो महासागर की गहराई भी 
छिछली दिखलाई पड़ी 
इन्हीं तस्वीरों में है -
राम का वनवास 
एक विमाता की निष्ठुरता 
एक पिता की विवशता 
भरत और लक्ष्मण जैसे भाइयों का 
अनूठा   भ्रात्रिप्रेम 
तस्वीर फरफराती है -
 हवा के हल्के  झोंके  से 
हिलते-हिलते कह जाती है कहानी -
राम के सर्वस्व त्याग की 
शबरी और निषाद के प्रेम की 
जटायु के पौरुष की 
विद्वान् रावण के अहंकार की -
मोह    की 
और फिर उस महासंग्राम की 
उनीदी आँखें गीली हो जाती हैं -
जब आता है प्रसंग 
सीता-वनवास का !
नारी की विवशता तब और अब 
सीता की अग्निपरीक्षा 
तब    और   अब 
तब भी जली -  आग में नहीं 
घुटन भरे निर्वासित जीवन में 
और शायद आज भी 
जल ही रही है --अनवरत 
इन्हीं तस्वीरों में है- 
कृष्ण की रासलीला 
प्रेम का अद्भुत दर्शन 
मक्खन चुरा-चुरा कर खा रहा है वह 
और खिला भी रहा है -
अपने सखा ---ग्वाल-बालों को 
वह ब्रज के पौरुष को 
सबल बना रहा है 
दूध दही मक्खन बाहर जाने से रोककर 
गोपियों का चीरहरण करता है
जिससे वे दुबारा न नहा सकें -
निर्वस्त्र     होकर
लज्जाहरण से बचा रहा है -
      द्रौपदी को
वस्त्रों के अम्बार दे रहा है
चीर बढ़ती जा रही है
भरी सभा में हो रहे चीरहरण -
को रोक रहा है
नारी अस्मिता की -
रक्षा कर रहा है वह
मै देखता हूँ - देखता जाता हूँ
कल की द्रौपदी और आज की
कृष्ण कहाँ है ? खोज रहा हूँ
इन्हीं तस्वीरों में हैं -
नानक  बुद्ध   गाँधी
ईसा     और    कबीर
एक सम्पूर्ण     जीवन
जो जिया गया -
मानव और समाज के -
कल्याण     के लिए
हम उन्हें दीवारों पर टांगकर
शोभा   बढ़ा रहे हैं -
अपने कमरों    की
कभी-कभी निगाह पड़ती है -
      अचानक
नहीं तो सब कुछ चलता रहता है
और ये तस्वीरें टँगी रहती हैं
हँसती हैं ये तस्वीरें हम पर -
हमारी जिन्दगी पर
जो हम जी रहे हैं - इंसानी जिन्दगी कहकर
    आदर्शों     को     ओढ़कर
हँसती हैं ये तस्वीरें क्योंकि -
ये जानती हैं हमारी इस वितृष्णा से भरी
  सूअर  सी जिंदगी   का परिणाम
तस्वीरें   फरफराती हैं -
हवा के हल्के   झोंकों  से
और मै देखता जा रहा हूँ इन्हें
   उनीदी     आँखों    से 




Thursday, October 7, 2010

कल मिली थी मुझसे मेरी कविता

हाँ मै सच कह रहा हूँ
क्या तुम मानोगे ? नहीं !
कोई नहीं मानेगा
मगर मैं सच कह रहा हूँ
कल मिली थी मुझसे -
मेरी कविता
हाँ हाँ मिली थी वह
जिसकी तलाश थी -
मुझे वर्षों से
शायद वह भी मुझे -
तलाश रही थी
हाँ-हाँ वही थी मेरी कविता
जन्मों-जन्मों की अतृप्त प्यास
काश वह पहले मिल जाती
इसी जन्म के -
शुरुवाती दिनों में
बस कुछ वर्षों पहले
पर ऐसा नहीं हुआ
क्योंकि यह नहीं होना था
कविता!  एक प्यास
सिर्फ और सिर्फ प्यास
गर बुझ गई तो-
प्यास    कैसी ?
हाँ वही प्यास
कल मिली मुझ से
नदी के दूसरे छोर की तरह
मैंने देखा उसे - देखता ही रहा
प्यास बढ़ी - बढ़ती गयी प्यास 
मुह मोड़ लिया मैंने 
लौट पड़ा उल्टे पांव 
अपनी प्यास में जीने के लिए 
क्योंकि मै समझ चुका था 
कि न कभी देखा गया 
न सुना गया 
नदी के दो किनारों को 
गले मिलते - 
आलिंगनवद्ध    होते ! 

       

Wednesday, October 6, 2010

संबंधों का दर्द

स्वारथरत सम्बन्ध मिले सब,बंधन गांठ लिए |
प्रीति मिली तो नागिन जैसी सुन्दर,गरल हिये |
ह्रदय मिला तो काजल जैसा, मन मटमैला पानी |
चित्त लिए दुर्गम  चंचलता , बोल कर्ण सा दानी  |
भुजा कटी तो भुजा न रोई, शीश कटा धड़ हँसता |
पेट अकेला   बड़वानल सा,   क्षार   क्षीरनद   करता  |
कंचन के  प्यासे हो भँवरे ,  महक   सुमन  की भूले |
स्वर मिठास-आवरण  लिए ,  कैसे  अंतर्मन  छू ले ?



Monday, October 4, 2010

ग़ज़ल


मिला जवाब नहीं   कैसे    अब  करार  आये |
पुकारने की हदों तक   तो  हम पुकार  आये |
पूरा का पूरा   अपना हिंद   वाह क्या कहना ,
मगर लुटने की जद में यूपी औ बिहार आये |
जिस्म   ये डेंट-पेंट     चमकता है   ऊपर से ,
छू के मेडम ने  कहा   मेरे   जांनिसार  आये |
गढ़ दिया जिसने है  खिलौना  आदमी जैसा ,
ज़ेहन में  उससे बड़ा   न कोई कुम्हार आये |
घर में  राशन   नहीं है    रोते हैं   भूखे बच्चे ,
उधारी  पहले  से है   कैसे  अब  उधार आये |



Thursday, September 30, 2010

---एक राम-रहमान

मालिक तो घट-घट  बसा   जग उसका विस्तार |
दीवारों    में     क़ैद     हैं     कुछ संकीर्ण विचार  |

मंदिर में    घंटा   बजे     मस्जिद में हो  अजान |
दोनों में क्या फर्क जब     एक       राम-रहमान |

प्रेमडोर   में है    बंधी      इक    दूजे   की   जान |
हिन्दू-मुस्लिम   बाद में     पहले      हैं     इंसान |

आओ कुछ ऐसा करें     पल-पल     उपजे   हर्ष  |
खड़ा हिमालय सा रहे    अपना          भारतवर्ष | 
 

Wednesday, September 29, 2010

खड़ा कबीरा अलख जगाता---

इधर-उधर  लड़ने से पहले खुद    अपने से    लड़कर देख |
किसी   परिंदे   जैसा  पहले    पर  फैलाकर    उड़कर  देख |
नफरत की  दीवार  ढहाकर     प्यार की   खेती-बारी   कर ,
हरियाली फिर चैनोअमन की वतन में अपने मुड़कर देख |
टूटी हुई    पतंग-जिन्दगी ,    बेमकसद     क्यों   ढोता है ?
उड़ेगा फिर से आसमान में     एक बार   तो  जुड़कर देख |
कण-कण में मालिक    बसता है     क़ैद नहीं    दीवारों में ,
मीरा औ रसखान की तरह   अपने  अन्दर   घुसकर देख |
धर्म के ठेकेदारों की परवाह न कर    बस  दिल की सुन ,
खड़ा कबीरा अलख जगाता   तू भी   शामिल होकर देख | 

Tuesday, September 28, 2010

परिंदा हूँ---

गुनगुनाता रहा गुनगुनाता रहूँगा |
सदा प्रेम  के  गीत   गाता  रहूँगा |
जो भी हो मौसम  कोई गम नहीं ,
परिंदा हूँ मै, आता - जाता रहूँगा |

आदमी

                       हँसता-रोता हुआ   आदमी |
                      खुद  को ढोता हुआ आदमी |
                      आसमान तक चढ़कर के भी '
                      कितना छोटा हुआ  आदमी |
                      दूर से चमके सोने सा , पर-  
                      सिक्का खोटा हुआ आदमी |
                      औरों के हिस्से खा-खाकर ,      
                      कितना मोटा हुआ आदमी |
                      जाग रहा है फिर भी लगता -
                      जैसे  सोता हुआ   आदमी  |    
                      चिकना है  पर बिन पेंदे का ,
                      जैसे  लोटा हुआ   आदमी | 

Monday, September 27, 2010

"---मैं हिन्दोस्तान हूँ "

         आरतों का अब   करुण क्रंदन न   होना चाहिए |
         विषधरों  के अंक में    चन्दन  न  होना चाहिए |
         गर प्रतिष्ठा है बचानी  हमको  अपने देश की, तो-
          दोस्त ! गद्दारों का अभिनन्दन न होना चाहिए | 

          हर तरफ छाया हुआ है धुआं काला-काला |
          देश  अब कौन  तेरी   फिक्र है   करने वाला |
          तेरे   टुकड़े  हज़ार  करने वाले हैं  तो बहुत ,
          कोई दिखता नहीं तेरी शान पे मरने वाला |

          दिल में सहेजे   दर्द का   सारा  जहान हूँ |
          चीखों से-कराहों से     भरा   आसमान हूँ |
          अपनों ने किया जर्जर फिर  भी महान हूँ |
          कवि नहीं हूँ दोस्त !   मैं हिन्दोस्तान हूँ |

Saturday, September 25, 2010

---वो इन्सान नहीं है

    कुर्सी के लिए देश की  इज्जत करे  नीलाम,
    गद्दार है  !  वतन का    निगहबान  नहीं है |
    छीनता है   मुल्क के   चैनोअमन     को जो ,
    हिन्दू नहीं- न सिख,  वो मुसलमान नहीं है |
    जिस गोद में  जन्मा है, उसी से   दगा करे ?
    वह है कपूत !   देश का    अपमान   वही है |
    धनवान है, बलवान है,सब कुछ है वह मगर,
    सौ बार     मैं कहूँगा -  वो    इन्सान नहीं है |

Friday, September 24, 2010

--लेखनी हमारी देशहित में लगी रहे

    चारों ओर फैली हुई आग अलगाव की है,
    ऐसा करो   ज्योति  देशप्रेम की  जगी रहे |
    एकता के सूत्र में   बंधा रहे    समूचा देश,
    प्रेमरस   में   सदा    मनुष्यता    पगी रहे |
    बकवेशधारियों को स्वार्थ के पुजारियों को,
    जड़ से मिटा दे    देख दुनिया   ठगी रहे |
    ज्योतिपुंज ऐसी ज्योति जिन्दगी को दे दे,
    सदा लेखनी हमारी देशहित में  लगी रहे |

घाट-घाट पर पण्डे हैं

     चारों ओर    हथकंडे हैं |
     घाट-घाट   पर  पण्डे हैं |
     लोकतंत्र के चीरहरण में,
      बड़े-बड़े       मुस्टंडे हैं |
     भ्रष्टाचारी महिमामंडित, 
     जनता के सर    डंडे हैं |
    आज तिरंगे के ही पीछे ,
    लगे    सैकड़ों    झंडे हैं |

Thursday, September 23, 2010

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना

 पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ , पंडित भया न कोय |
 ढाई आखर         प्रेम का ,  पढ़े सो पंडित होय |
             क्रन्तिकारी समाजसुधारक एवं जनकवि संत कबीर दासकी ये पंक्तियाँ हमेशा प्रासंगिक रही हैं और रहेंगी | हम कितने भी पढ़े-लिखे और विद्वान क्यों न हों किन्तु यदि प्रेम का पाठ नहीं पढ़ा तो कोरा पांडित्य किस काम का?
प्रेम लौकिक हो या अलौकिक , इंसान से हो या भगवान से , प्रेम तो प्रेम ही है | आपसी भाईचारा , मेलमिलाप , एकदूसरे के सुख-दुःख को समझना और एकदूसरे के काम आना - ये सब प्रेम की परिधि में ही तो आते हैं ! कृष्ण के प्रेम में दीवानी मीरा जहाँ विषपान तक कर लेती है वहीँ भक्त रसखान अपने कृष्ण के ग्वालसखा बनकर गोकुल में ही बसने की इच्छा अगले जन्म के लिए भी रखते हैं :-
              "मानुष हौं तो वही रसखान बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन |"
       हमारा हिन्दुस्तान भिन्न- भिन्न धर्मों , जातियों , वर्गों को समेटे अनेकता में एकता का सन्देश देने   वाला देश है | गाँव हो या शहर , हर जगह हिन्दू - मुसलमान भाई  भाईचारे के साथ, बिना किसी भेदभाव के एक दूसरे के सुख-दुःख में भागीदार रहकर ख़ुशी-ख़ुशी अपना जीवनयापन करते हैं | आज भी हमारे गाँव में "सत्यनारायण कथा " में मुसलमान भाई सपरिवार शामिल होते हैं तो हिन्दूभाई भी सपरिवार मुहर्रम के मौके पर ताजिया रखते हैं और बड़े उत्साह के साथ भाग लेते हैं | रामू और रमजान एक दूसरे के पड़ोसी हैं | एक दूसरे के सुख-दुःख के भागीदार हैं | "बढ़ती महंगाई में रोटी-दाल कैसे चले ?" इस पर दोनों साथ-साथ सरकार और व्यवस्था को कोसते भी हैं |
         बहरहाल अगले कुछ दिनों में 'अयोध्या मंदिर-मस्जिद विवाद ' में विवादित स्थल के मालिकाना हक का फैसला उच्च न्यायालय से आने वाला है | अदालत से जो भी फैसला आये उसका सम्मान करें | असहमति की स्थिति में दोनों पक्षों को सर्वोच्च न्यायालय जाने का विकल्प है | फिर किस बात की झंझट ? इससे रामू और रमजान के आपसी प्रेम-व्यवहार में कोई दरार क्यों आये ? हम सबसे पहले इंसान हैं -भारतीय हैं | हमारा सबसे बड़ा धर्म-मानवधर्म है | फिर हम क्यों न शायर इकबालजी की इन पंक्तियों को अपनी असल जिंदगी में उतारें :--
           मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना ,
           हिंदी हैं हम ,  वतन है   हिंदोस्तां हमारा | 

Wednesday, September 22, 2010

---------हमको अधिकार नहीं |

      सारे अन्तः - द्वेष      भुलाकर     इक दूजे से    गले    मिलो |
      तन के संग मन भी रंग डालो कीचड़ में बन कमल खिलो |
      होली कहती      मेरी आग में       सारे भेद       जला डालो |
      ईद कह रही      गले मिलो   तो     रूठे ह्रदय     मिला डालो |
      जन-जन में    यदि    प्रेम भावना   का   होता     संचार नहीं |
      तो फिर   होली - ईद   मनाने का    हमको    अधिकार नहीं |

Tuesday, September 21, 2010

------पत्थरों से डरता हूँ |

        बात इंसानियत की    करता हूँ |
        रोज जीता हूँ    रोज मरता हूँ |
        लोग पागल न समझ बैठें कहीं,
        शीशा हूँ     पत्थरों से  डरता हूँ |
     
      

Friday, September 17, 2010

हिंदी दिवस ( १४ सितम्बर ) के बहाने -------

            हे हमारी प्यारी राजभाषा हिंदी ! तू आज तक राष्ट्रभाषा भले न बन पाई हो लेकिन हम "हिंदी दिवस " के बहाने तेरी पूजा जरूर कर रहे हैं , पूजा क्या तेरी उपेक्षा पर घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं | आज ही नहीं हर वर्ष ! हिंदी दिवस नहीं बल्कि हिंदी सप्ताह और हिंदी पखवाडा के बहाने भी तुझे याद करते रहते हैं लेकिन वर्ष में बस एक बार | आखिर  हम  सरकारी  विभाग  हैं | हमारी  तरह  ही  अर्धसरकारी  विभाग , निगम , बैंक  आदि भी तुझे भूले नहीं हैं | आखिर तुम्हे याद करने के लिए वर्ष में एक बार जो थोड़ा बहुत धन आबंटित होता है सो उसे खर्च तो करना ही होता है | कुछ  बैनर  वगैरह  कार्यालयों  के बाहर टंग जाते हैं  तो लोगबाग एक नजर देखते तो जरूर हैं कि हिंदी के लिए कुछ हो रहा है ! अरे ! आज अंग्रेजी  माध्यम  से पढने वाले बच्चे किसी हिंदी कवि की एक कविता भी ढंग से मुह्जबानी  सुना सकें तो इसे संसार का आठवां आश्चर्य नहीं तो क्या कहा जायेगा ? कार्यालयों में काम-काज की भाषा भी तू  न  बन  सकी आज तक ! अंग्रेजीपरस्त अधिकारी-कर्मचारी अगर अंग्रेजी में न बोलें या काम न करें तो उनकी  ठसक  कैसे  बरक़रार रह पायेगी ? महोदय   हिंदी दिवस पर भाषण दे रहे हैं ,"बाई द वे हम हर साल हिंदी वीक मनाते हैं | हमें हिंदी को आनर देना चाहिए | हर ओफिसिअल को हिंदी में वर्क करना होगा तभी हम हिंदी को टॉप पोजीसन पर ला पाएंगे |" एक श्रोता बोला ," बस-बस रहने दें महोदय ! हो गया कल्याण ! हिंदी को उसके हाल पर छोड़ दें ! महोदय , हिंदी आपके भाषणों से नहीं , आपके हिंदी सप्ताह या हिंदी पखवाड़ों से नहीं बल्कि हिंदी तो जिन्दा है -- गाँव के अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे लोगों की जिंदगी में | उनकी बोलचाल में ! उनके रोने गाने में ! उनके रहन- सहन में !"          भला कब सोचेगी सरकार और कब जागेंगे हमसब ? कैसे हो पायेगा वास्तविक विकास अपनी प्यारी भाषा हिंदी का ?
         और अंत में ------
                            अपने भारतवर्ष की   पहचान है हिंदी |
                            गरिमा है  गौरव है हिंदुस्तान है हिंदी |

Friday, September 10, 2010

आज़ाद देश के हैं जरा मुस्कुराइए ?

            आप  यूं न  रोईये ,   आंसू   बहाइये |
            आज़ाद देश के हैं जरा मुस्कुराइए ?

        भुखमरी  है  देश में फैली  तो   क्या हुआ ?
        सोने से भरी उनकी तिजोरी तो क्या हुआ ?
        झोपड़ी है रोती-सिसकती  तो   क्या हुआ ?
        बंगलों में कैद देश की हस्ती तो क्या हुआ ?

           गोरे गए तो कालों की खिदमत बजाइए |
            आज़ाद देश के ------------------------|

       देखो चोर-माफिया    आज़ाद हैं यहाँ |
       भेड़ियों के झुण्ड ही  आबाद हैं यहाँ |
       आज़ाद  हुए  राज-काज   देखनेवाले |
       आज़ाद हैं वतन की लाज बेचनेवाले |

               गद्दारों को अदब से जरा सर झुकाइए |
               आज़ाद देश के हैं जरा   मुस्कुराइए |

Thursday, September 9, 2010

मैं हूँ पत्थर नगीना बना दीजिये

       प्रीति की रीति इतनी निभा  दीजिये |
       मेरे आंसू हैं - मोती    बना    दीजिये |
       सिर्फ इक बार अधरों से छूकर मुझे ,
       मैं हूँ पत्थर- नगीना  बना  दीजिये |

      मुझको चाहो न इतना मैं डर  जाऊँगा | 
      दिल का शीशा जो टूटा बिखर जाऊँगा |
      गर किया दूर नज़रों से  मुझको कहीं ,
      जाऊंगा पर  न जाने    कहाँ  जाऊँगा |

Wednesday, September 8, 2010

मुक्तक

    ऐसे अंधियारे में   सविता की   बात करते हो |
   प्यार की , स्नेह की , ममता की बात करते हो |
   जहाँ कुर्सी   बड़ी है    देश से ,      मनुजता से ,      
   यार किस दौर में    कविता की बात करते हो ?
 
   हर तरफ छाया हुआ है धुआं काला-काला |
   देश अब कौन तेरी फ़िक्र है    करने  वाला |
   तेरे  टुकड़े हजार  करनेवाले हैं  तो   बहुत ,
   कोई दिखता नहीं तेरी शान पे मरनेवाला |

   दिल में सहेजे  दर्द का  सारा  ज़हान हूँ |
   चीखों से- कराहों से  भरा  आसमान हूँ |
   अपनों ने किया जर्जर फिर भी महान हूँ |
   कवि नहीं हूँ दोस्त मैं हिन्दोस्तान हूँ |

Tuesday, September 7, 2010

सबके लिए बराबर होती है फटकार कबीरा की

राम रहीम आस्थाओं के पूजनीय हैं , प्यारे हैं |
इनको  लेकर   नफरत   फैलाने  वाले   बेचारे  हैं |
प्रेम जहाँ रसखान का वहीँ प्रीति मिलेगी मीरा की |
सबके लिए बराबर  होती है   फटकार   कबीरा की |
जिनकी वाणी से बहती समता की अमृतधार नहीं |
उन्हें समाजसुधारक बनने का कोई अधिकार नहीं|
गुनाह किया न किया पर गुनहगार तो हूँ |
सजा मिले न मिले उसका  हकदार  तो हूँ |

Monday, September 6, 2010

ग़ज़ल

              तुम कहते हो मौसम बहुत सुहाना है |
             इसी बात का मातम मुझे मनाना है |
             सावन के अंधों किस भ्रम में खोये हो 
             हरियाली थी कभी आज  वीराना है |
             महंगाई तो  महलों से  अनुबंधित है
             झोपड़ियों को इसका मोल चुकाना है |
             उधर उजाला -इधर अँधेरा रहता है 
             शायद मेरे  देश का सूरज काना है |
      

Friday, September 3, 2010

आ गयो माखनचोर ................

हे प्रभो कृष्ण कन्हैया , रासरचैया ,नाग नथैया,कंसारी - मुरारी ,जग तारक-उद्धारक,वासुदेव -नन्दलाल -यशोदानंदन , ब्रजबिहारी-गोवर्धनधारी  आप पधारे -भाग्य हमारे | आप ने हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी भादौं की अष्टमी को कारी अंधियारी रात में पुनः जन्म ले लिया भारतभूमि पर | आपका शत-शत वंदन है -अभिनन्दन है | हे सुदामा के मित्र दीनबंधु  : आज असंख्य सुदामा आपकी कृपादृष्टि के लिए व्याकुल हैं |मंहगाई ,शोषण और गरीबी ने इन्हें असहाय बना रखा है | मुष्टिक और चान्डूर इन्हें उठा -उठा कर पटक रहे हैं | इनकी जान के लाले पड़े हुए हैं | हे प्रभो : इन्हें अपने गले से लगा लो -इनकी जिन्दगी में भी खुशहाली ला दो | प्रभो : आप तो जगतपिता हैं , विश्व के पालनहार हैं , आपके संकेत मात्र से क्या कुछ नहीं हो सकता ?    एक बार अपनी भारत भूमि पर दृष्टि डालो भगवन : आज एक नहीं अनेकों कंस हैं जो अपने अत्याचारों से जनता को त्रस्त कर रहे हैं | छोटे कंस -बड़े कंस और उनके असंख्य मुष्टिक और  चान्डूर पूरे देश में दिल्ली से गाँव तक फैले हुए हैं | कौरवों की असंख्य सेना पांडवों पर भारी पड़ रही है | भीष्म पितामह और गुरु द्रोणाचार्य नमक की कीमत अदा कर रहे हैं , द्रौपदी के चीरहरण में मौन बैठे हैं | धर्मराज द्यूतक्रीड़ा में अपना सब कुछ हार   बैठे हैं | अपने आपको आपका वंशज बताने वाले भी कंसलीला में शामिल हैं |    कुबलयापीड़ पगलाया हुआ है, उसका दांत उखाड़ने वाला भला आपके सिवा कौन हो सकता है | आपने पेय जल को विषाक्त कर देने वाले कालिया नाग को नाथा था | आज ऐसे जाने कितने नाग खुली सड़कों पर नर्तन कर रहे हैं | आपने दूध, दही,घी को ब्रज से मथुरा  जाने से रोकने के लिए दूध -दही की मटकियाँ फोड़ी थीं | अपने साथी ग्वाल बालों को स्वस्थ रखने के लिए घर-घर माखनचोरी की | नारियां कभी मर्यादा की सीमा को लाँघ कर नग्नता तक न पहुँच जाएँ ,इसीलिए आपने चीरहरण का खेल किया |नए गौरवपूर्ण भारत निर्माण के निमित्त महाभारत का युद्ध रचाया | अभिमानी देवराज इन्द्र का मानमर्दन करते हुए आपने गोवर्धन पर्वत की पूजा करवाकर दिखला दिया कि जलवर्षा पहाड़ों और जंगलों को बचाने एवं उन्हें सम्मान देने पर ही होगी | बता दिया कि जनता के लिए दम्भी देवता से कहीं अधिक पर्वत और वन पूजनीय हैं जिनसे  अनेकानेक  जड़ी बूटियाँ ,लकड़ियाँ ,वर्षा और हरियाली मिलती है | आपका एक-एक कदम मानवता का आदर्श बन गया
              पर हे बनवारी : आज सब कुछ उल्टा-पुल्टा हो रहा है | अपनी वंशी की  मधुर धुन पर जड़ -चेतन को विमोहित कर नचाने वाले हे राधे रमण :  विश्व को गीत-संगीत का ज्ञान करानेवाले  भी तो आप ही हैं | फिर कैसा विलम्ब प्रभो ! अपने भारत को एक बार फिर उसी शिखर तक पंहुचा दो जहाँ पहले कभी था |
             पुनः-पुनः कोटि-कोटि वंदन है -अभिनन्दन है आपका! हे नयनाभिराम ! शत-शत प्रणाम !
                 
       

Thursday, September 2, 2010

शहीदों की मजारों पर..............

कुछ समय पहले मैंने किसी अख़बार के भीतरी पन्ने के एक कोने में छपी एक खबर पढ़ी की  एक अमर शहीद की नब्बे वर्षीया विधवा के पास रहने के लिए घर नहीं है | वह एक खंडहरनुमा कमरे में किसी तरह गुजर बसर कर रही है , जिसकी छत से बरसात का लगभग आधा पानी अन्दर आ जाता है | बहुत लोगों ने यह खबर पढ़ी होगी | कुछेक प्रतिक्रियाएं भी आयीं | इसी क्रम में अभी कुछ दिनों पहले अख़बार में एक और खबर छपी | क़स्बा उतरौला , जनपद -बलरामपुर , उ० प्र० निवासी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्व० महादेव प्रसाद जी का प्रपौत्र कस्बे की सड़कों और गलियों में भीख मांग रहा है | वे दो भाई हैं |उनके रहने को न तो घर है और न खेती के लिए जमीन | छोटे भाई का एक पैर बीमारी के कारण ख़राब हो गया है और बड़ा भाई उसीके इलाज के लिए भीख मांग रहा है | वे सड़क के किनारे या किसी दयालु के दरवाजे पर रात  में सो जाते हैं और अगल-बगल के लोगों से खाने को जो कुछ मिल जाता है उसी से अपने पेट की आग बुझा लेते हैं | इस समाचार पर भी कुछ व्यक्तियों एवं संस्थाओं की प्रतिक्रियाएं पढने को मिलीं | समाज के कुछ बुद्धिजीवियों  ने राज्य एवं केंद्र सरकार को संवेदनहीन कहते हुए भर्त्सना की | कुछ स्थानीय नेताओं ने यथासंभव मदद करने का वादा किया तो अधिकारियों ने जांच करके उचित कार्यवाही किये जाने की बातें कहीं | तीसरे दिन सब कुछ पहले जैसा सामान्य हो गया | मन ग्लानि से भर गया | शायद कुछ रुपये अमर शहीद की बुजुर्ग विधवा को दे दिए गए हों लेकिन नया घर तो नहीं ही दिया गया होगा | स्वतंत्रतासंग्राम सेनानी के प्रपौत्र को भी शायद कुछ आर्थिक सहायता दे दी गयी हो किन्तु रहने के लिए घर ,जीविकोपार्जन का कोई स्थाई साधन और बीमार भाई के सम्यक इलाज की समुचित व्यवस्था नहीं ही उपलब्ध कराई गई होगी |                                          
                                                 ऐसा क्यों ? देश को आजादी   दिलाने के लिए  जिन बीर  बांकुरो ने या तो  लड़ते-लड़ते  अपने प्राण निछावर कर दिए  या आजीवन कारावास और काला पानी की सजा पाकर भयंकर यातनाएं झेली , उनके परिवार के लोगों को इस देश और समाज ने क्या दिया | हम सभी भारतवासियों को अंग्रेजों  की गुलामी से मुक्त कराने के एवज  में आज इनके परिवारों को ऐसे दिन क्यों देखने पड़ रहे हैं  ? हम कितने स्वार्थी और संवेदनहीन हो गए  हैं ? केंद्र और राज्य सरकारें जानबूझकर इनकी उपेक्षा  क्यों कर रही हैं ? सरकारी नौकरी वाले वेतन बढ़ाने के लिए हड़ताल करते हैं ,  सरकारें  झुकती हैं , मांगें मानती हैं | कुछ न कुछ वेतन जरूर बढ़ता है | व्यापारी हड़ताल करते हैं उन्हें भी रियायतें मिलती हैं | और तो और देश की संसद  में जनता द्वारा चुने गए सांसद भी अपना  वेतन कई गुना बढ़ाकर   नौकरशाहों से अधिक पाने की लालच में समानांतर लोकसभा कार्यवाही तक चलाते हैं | राजनैतिक पार्टियाँ देश स्तर से  ग्राम स्तर तक अपने सदस्य बनाती हैं | चुनाव  में अपनी हार जीत का सर्वे कराती हैं |
                                                       फिर क्या कारण है कि  आजादी की लड़ाई में शहीद बलिदानियों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों  के परिवारों  की संख्या का सर्वे केंद्र और राज्य सरकारें नहीं  कराती| उनकी वर्तमान पारिवारिक स्थिति का आकलन करके आधारभूतआवश्यकताओं  को क्यों नहीं पूरा करती  ? हम आम लोग इसे क्यों अनदेखा कर रहे हैं ? हम इनकी दुर्दशा को समाप्त करने और इन्हें पूरी तरह सरकारी संरक्षण   दिए जाने के लिए कोई आन्दोलन क्यों नहीं चलाते ? जबकि कोई सांसद या विधायक , चाहे वह एक दिन के लिए ही क्यों न चुना जाए , पूरी पेंशन   और अन्य सुविधायें पाने का हक़दार हो जाता है तो जिन्होंने देश के लिए अपने प्राणों की आहुतियाँ दे दी  उनके परिवार के साथ ऐसा क्यों ? हम हर वर्ष स्वतंत्रता दिवस  और गणतंत्र दिवस क्यों मनाते हैं   ? यह देश और देश के लिए अपना सब कुछ लुटा देने वालों के  साथ मजाक नहीं तो और क्या है ?
                                                     क्या इतना ही गा लेने से इनके प्रति हमारे कर्तव्यों की इतिश्री हो जाती है -
                                                       " शहीदों की मजारों पर लगेंगे हर बरस  मेले ,
                                                         वतन पे मरने वालों का यही बाकी निशां होगा |"                        

Tuesday, August 31, 2010

गर कलम बनी तलवार नहीं

भाईचारा   और   एकता   का   अमृत    बरसाती   है |
देशवासियों  और  देश  को  सुखी  देख   हर्षाती  है |
अंगारों  में  पड़कर  भी  जो  आग  उगलती रहती है |
सुविधाओं के नाम बिकी वह कलम नहीं हो सकती है |
देख देश को संकट में गर कलम बनी तलवार नहीं |
तो फिर कलमकार कहलाने का हमको अधिकार नहीं |    

Monday, August 30, 2010

उजला कौवा

बचपन में दादी मुझे सुलाने के लिए कहतीं भैया सो जा नहीं तो उजला कौवा आ जायेगा | मै डरकर सो जाता |दादी ने एक दिन एक किस्सा सुनाया था | एक था राजा, राजा बड़ा बहादुर था | अपनी प्रजा के सुखदुख का हमेशा ध्यान रखता था | राजा के राज्य में काले कौवों की संख्या बहुत थी | प्रजा सुखी थी तो उनका जूठन खाकर कौए भी खुश होकर कांवकांव करते पेड़ों पर , मुंडेरों पर उड़ते बैठते और मंडराते रहते थे |मगर एक दिन पश्चिम दिशा के जंगल की ओर से झाँव-झाँव , खाँव-खाँव की आवाज आने लगी | लोग कौतूहलवश उसी ओर देखने लगे | तभी बड़े-बड़े डैनो वाले उजले रंग के दैत्याकार कौए आसमान में मडराने लगे | देखते ही देखते उन्होंने काले कौवों पर हमला बोल दिया | जब तक राजा के सिपाही कुछ कर पाते , उजले कौवों का झुण्ड वापस लौट गया लेकिन काफी संख्या में काले कौवों को नोच फाड़कर |कांव -कांव करने वाले कौए चीख चिल्ला रहे थे | कुछ घायल पड़े कराह रहे थे तो कुछ मृतप्राय हो चुके थे | दयालु राजा ने घायल कौवों का इलाज़ करवाया और जो मर गए थे उनका अंतिम संस्कार | फिर तो यह घटना अक्सर घटित होने लगी | थकहारकर राजा ने पश्चिम के जंगलों में अपना शांतिदूत भेजा | वहां से उजले कौवों के सरदार ने सन्देश भिजवाया कि यदि राजा उसके अधीन हो जाये तो काले कौवों पर हमला नहीं करेंगे बल्कि रोज़ एक-एक का थोड़ा-थोड़ा खून पियेंगे और कभी कभार थोड़ा मांस भी ,जिससे काले कौए आराम से इसे बर्दाश्त करने के आदी हो जायेंगे | राजा का राजकाज भी चलता रहेगा और उनका पेट भी भरता रहेगा | राजा ने शर्त मान ली | काले कौए धीरे-धीरे कम होने |                                                 

                           तब से कई वर्षों बाद ----------
                                    
                आज देखा कि एक काला कौवा रोटी के जुगाड़ में इधर-उधर भाग रहा है | कभी पेड़ की डाल पर बैठता है तो कभी उड़कर जमीन पर आ जाता है और बर्तन साफ़ कर रही घरैतिन से बस थोड़ी दूरी पर सतर्क बैठ जाता है |दांव मिलते ही पड़ा हुआ बचाखुचा जूठन चोंच में दबाकर भाग जाता है और छत की मुंडेर पर बैठकर खा रहा है | बीच बीच में कांव -कांव की कर्कश आवाज से अपनी बिरादरी के लोंगो को भी बतलाता जा रहा है कि भूख  लगी हो तो आ जाओ , पेट भरने को अभी यहाँ रोटी के टुकड़े और सीझे चावल काफी हैं | दो -चार कौए कांव-कांव करते और आ गए |तभी जोर-जोर से गाड़ियों की घरघराहट और हार्न बजने की आवाज सुनाई देने लगी | गाँव के बच्चे , कुछ नंगे तो कुछ अधनंगे सभी कुलांचे भरते गाड़ियों की ओर दौड़े | गाड़ियों की झांव-झांव आवाज ने पूरे गाँव को चौंका दिया | सभी घरों के मर्द बाहर निकल आये तो औरतें किवाड़ों को आधा खोल बाहर झाँकने लगीं | अचानक सभी गाड़ियाँ गाँव के बीचोबीच नेताजी के दरवाजे पर रुक गयीं | गाड़ी में से सफ़ेद लकझक कुर्ता पाजामा पहने दो तीन व्यक्ति कई असलहा धारियों के साथ बाहर निकले और सबकी ओर दोनों हाथ जोड़ हवा में हिलाते हुए बोले  "भैया ,राम राम "|
                                     नंगे-अधनंगे बच्चे जो ठिठक कर रुक गए थे और देख रहे थे , वे धीरे-धीरे पीछे वापस लौटने लगे | दौड़ते हुए उल्टे पाँव आते लडको से ,लकड़ी के सहारे धीरे धीरे आ रहे जगन लोहार ने पूछा , "कौन है रे , कौन आया है " लड़के सुर में सुर मिलाकर चिल्लाये  -
                   काला कौवा  काँव काँव  , उजला कौवा खांव खांव  |
                   काला कौवा जूठन खाय, उजला कौवा मॉस चबाय |
                   काला कौवा  पानीपून ,  उजला  कौवा  पीवै  खून  |
                   हांड मॉस का न्यौता है , राजा से  समझौता  है    |
                   भागो भैया भागो  ,   उजला   कौवा   आया   है    |
  

Friday, August 27, 2010

मन हुआ मस्त तो कबीरा है

पीर ऊंची उठी तो मीरा है |
मन हुआ मस्त तो कबीरा है |
आदमी आदमी को परखे तो
आदमी सबसे बड़ा हीरा है |

प्रेम   में    डूबना     जरूरी   है |
चार दिन भी जियो तो पूरी है |
मशीन बनके जियो कितना भी
समझ लो जिन्दगी अधूरी है |

Wednesday, August 25, 2010

गाँधी जी के तीनो बन्दर | जल्लादों से घिरे हैं शायद |

उनके    दिन  बहुरे   हैं शायद |
बस थोडा   सा  गिरे हैं शायद |
नैतिकता    की  बातें   करते ,
सब के सब सिरफिरे हैं शायद |
खुद   से   नज़रें   चुरा रहे हैं  |
कई बार   हम मरे   हैं शायद |
गाँधी  जी  के  तीनो  बन्दर  |
जल्लादों  से  घिरे  हैं  शायद |
कानाफूसी   गली  गली   में ,
कुछ  बागी  उभरे  हैं   शायद |
घुप्प   अंधेरे  के   सागर  में  |
फिर  जुगनू  उतरे   हैं शायद |

Tuesday, August 24, 2010

यह देश है हमारे शहीदों की अमानत , यह देश ,देश बेचने वालों का नहीं है ||

शब्दों का हरिश्चंद्र   हूँ जयचंद नहीं हूँ |
 बेबाक कलमकार हूँ  अनुबंध नहीं हूँ |
दिल चाहता दूं नोंच गद्दारों का मुखौटा ,
अफ़सोस मगर इतना भी स्वछंद नहीं हूँ ||


कहता हूँ  सीधी  बात  कोई  शेर  नहीं है |
लफ्फाजी या  शब्दों का  हेरफेर  नहीं है |
दिल को कुरेद जाती है बच्चों की परवरिश ,
वरना निराला बनने में   कोई देर नहीं है||


अन्याय जो बर्दाश्त कभी  कर नहीं सकते  |
तलवार तोप से  भी  कभी डर नहीं सकते   |
हर दिल  में सदा  रहते  शूरवीर  की  तरह,
होतें हैं जो शहीद  कभी  मर  नहीं  सकते  ||


गुंडों का नहीं है ये दलालों का नहीं है |
डंडों का नहीं है ये हवालों का नहीं है |
यह देश है हमारे शहीदों की अमानत ,
यह देश ,देश बेचने वालों का नहीं है ||

Tuesday, August 17, 2010

ग़ज़ल

जीत कहूं या हार जिंदगी |
है कितनी दुश्वार ज़िन्दगी |
कभी कभी लगता था जैसे
है फूलों का हार ज़िन्दगी |
घूँट  हलाहल  के कह दूं , या-
कहूं सुधा की धार ज़िन्दगी |
ऊपर से तो खिली खिली ,पर -
भीतर  से पतझार  ज़िन्दगी |
कदम कदम पर कर बैठी है
संघर्षों से   प्यार ज़िन्दगी |
कभी वक़्त की शहजादी तो
कभी वक़्त की मार ज़िन्दगी |
मुड़ मुड़ कर करती रहती है
जीने   से  इन्कार  ज़िन्दगी |
जीना क्या मरना क्या उसका
मिली जिसे बीमार ज़िन्दगी |
शायद  इससे अच्छी  होगी
जीवन के  उस  पार ज़िन्दगी |

ग़ज़ल

गम खाना और आंसू पीना |
यही ज़िन्दगी यही है जीना |
पीर   पुरानी   घाव    पुराने
नित्य नयी साँसों से सीना  |
पीते   पीते    उम्र    गुजारी
आ न सका पीने का करीना |
बिखरी लट आँखों में दहशत
कहते हैं सब उसे हसीना |
लोग देश की बातें  करते
अमर शहीदों  का हक छीना|
श्वेतबसन चेहरे  ने  देखा
दर्पण को आ गया  पसीना  |
नागफनी हो गए आचरण
पल पल मरना पल पल जीना |

मुक्तक

तिल तिल जलाता हुआ दिया हूँ |
जाने कितना    तिमिर   पिया हूँ |
नियति   हमारी   अँधियारा ,पर -
कितने घर    उजियार    किया हूँ  |

वेदना     का     घर हूँ मै |
वज्र     से   बढ़कर     हूँ मै |
तुम भी इक ठोकर लगा दो ,
राह    का पत्थर   हूँ     मै |

निर्वासित सा जीवन मेरा
              एक अजनबी ,एक अपरिचित |
सन्नाटा ही साथी जिसका
              परम मित्र एकांत अपरिमित |
तम का हूँ अभ्यस्त
               उजाले से वंचित रहने दो |
गुमनाम मुझे रहने दो |