Tuesday, August 31, 2010

गर कलम बनी तलवार नहीं

भाईचारा   और   एकता   का   अमृत    बरसाती   है |
देशवासियों  और  देश  को  सुखी  देख   हर्षाती  है |
अंगारों  में  पड़कर  भी  जो  आग  उगलती रहती है |
सुविधाओं के नाम बिकी वह कलम नहीं हो सकती है |
देख देश को संकट में गर कलम बनी तलवार नहीं |
तो फिर कलमकार कहलाने का हमको अधिकार नहीं |    

Monday, August 30, 2010

उजला कौवा

बचपन में दादी मुझे सुलाने के लिए कहतीं भैया सो जा नहीं तो उजला कौवा आ जायेगा | मै डरकर सो जाता |दादी ने एक दिन एक किस्सा सुनाया था | एक था राजा, राजा बड़ा बहादुर था | अपनी प्रजा के सुखदुख का हमेशा ध्यान रखता था | राजा के राज्य में काले कौवों की संख्या बहुत थी | प्रजा सुखी थी तो उनका जूठन खाकर कौए भी खुश होकर कांवकांव करते पेड़ों पर , मुंडेरों पर उड़ते बैठते और मंडराते रहते थे |मगर एक दिन पश्चिम दिशा के जंगल की ओर से झाँव-झाँव , खाँव-खाँव की आवाज आने लगी | लोग कौतूहलवश उसी ओर देखने लगे | तभी बड़े-बड़े डैनो वाले उजले रंग के दैत्याकार कौए आसमान में मडराने लगे | देखते ही देखते उन्होंने काले कौवों पर हमला बोल दिया | जब तक राजा के सिपाही कुछ कर पाते , उजले कौवों का झुण्ड वापस लौट गया लेकिन काफी संख्या में काले कौवों को नोच फाड़कर |कांव -कांव करने वाले कौए चीख चिल्ला रहे थे | कुछ घायल पड़े कराह रहे थे तो कुछ मृतप्राय हो चुके थे | दयालु राजा ने घायल कौवों का इलाज़ करवाया और जो मर गए थे उनका अंतिम संस्कार | फिर तो यह घटना अक्सर घटित होने लगी | थकहारकर राजा ने पश्चिम के जंगलों में अपना शांतिदूत भेजा | वहां से उजले कौवों के सरदार ने सन्देश भिजवाया कि यदि राजा उसके अधीन हो जाये तो काले कौवों पर हमला नहीं करेंगे बल्कि रोज़ एक-एक का थोड़ा-थोड़ा खून पियेंगे और कभी कभार थोड़ा मांस भी ,जिससे काले कौए आराम से इसे बर्दाश्त करने के आदी हो जायेंगे | राजा का राजकाज भी चलता रहेगा और उनका पेट भी भरता रहेगा | राजा ने शर्त मान ली | काले कौए धीरे-धीरे कम होने |                                                 

                           तब से कई वर्षों बाद ----------
                                    
                आज देखा कि एक काला कौवा रोटी के जुगाड़ में इधर-उधर भाग रहा है | कभी पेड़ की डाल पर बैठता है तो कभी उड़कर जमीन पर आ जाता है और बर्तन साफ़ कर रही घरैतिन से बस थोड़ी दूरी पर सतर्क बैठ जाता है |दांव मिलते ही पड़ा हुआ बचाखुचा जूठन चोंच में दबाकर भाग जाता है और छत की मुंडेर पर बैठकर खा रहा है | बीच बीच में कांव -कांव की कर्कश आवाज से अपनी बिरादरी के लोंगो को भी बतलाता जा रहा है कि भूख  लगी हो तो आ जाओ , पेट भरने को अभी यहाँ रोटी के टुकड़े और सीझे चावल काफी हैं | दो -चार कौए कांव-कांव करते और आ गए |तभी जोर-जोर से गाड़ियों की घरघराहट और हार्न बजने की आवाज सुनाई देने लगी | गाँव के बच्चे , कुछ नंगे तो कुछ अधनंगे सभी कुलांचे भरते गाड़ियों की ओर दौड़े | गाड़ियों की झांव-झांव आवाज ने पूरे गाँव को चौंका दिया | सभी घरों के मर्द बाहर निकल आये तो औरतें किवाड़ों को आधा खोल बाहर झाँकने लगीं | अचानक सभी गाड़ियाँ गाँव के बीचोबीच नेताजी के दरवाजे पर रुक गयीं | गाड़ी में से सफ़ेद लकझक कुर्ता पाजामा पहने दो तीन व्यक्ति कई असलहा धारियों के साथ बाहर निकले और सबकी ओर दोनों हाथ जोड़ हवा में हिलाते हुए बोले  "भैया ,राम राम "|
                                     नंगे-अधनंगे बच्चे जो ठिठक कर रुक गए थे और देख रहे थे , वे धीरे-धीरे पीछे वापस लौटने लगे | दौड़ते हुए उल्टे पाँव आते लडको से ,लकड़ी के सहारे धीरे धीरे आ रहे जगन लोहार ने पूछा , "कौन है रे , कौन आया है " लड़के सुर में सुर मिलाकर चिल्लाये  -
                   काला कौवा  काँव काँव  , उजला कौवा खांव खांव  |
                   काला कौवा जूठन खाय, उजला कौवा मॉस चबाय |
                   काला कौवा  पानीपून ,  उजला  कौवा  पीवै  खून  |
                   हांड मॉस का न्यौता है , राजा से  समझौता  है    |
                   भागो भैया भागो  ,   उजला   कौवा   आया   है    |
  

Friday, August 27, 2010

मन हुआ मस्त तो कबीरा है

पीर ऊंची उठी तो मीरा है |
मन हुआ मस्त तो कबीरा है |
आदमी आदमी को परखे तो
आदमी सबसे बड़ा हीरा है |

प्रेम   में    डूबना     जरूरी   है |
चार दिन भी जियो तो पूरी है |
मशीन बनके जियो कितना भी
समझ लो जिन्दगी अधूरी है |

Wednesday, August 25, 2010

गाँधी जी के तीनो बन्दर | जल्लादों से घिरे हैं शायद |

उनके    दिन  बहुरे   हैं शायद |
बस थोडा   सा  गिरे हैं शायद |
नैतिकता    की  बातें   करते ,
सब के सब सिरफिरे हैं शायद |
खुद   से   नज़रें   चुरा रहे हैं  |
कई बार   हम मरे   हैं शायद |
गाँधी  जी  के  तीनो  बन्दर  |
जल्लादों  से  घिरे  हैं  शायद |
कानाफूसी   गली  गली   में ,
कुछ  बागी  उभरे  हैं   शायद |
घुप्प   अंधेरे  के   सागर  में  |
फिर  जुगनू  उतरे   हैं शायद |

Tuesday, August 24, 2010

यह देश है हमारे शहीदों की अमानत , यह देश ,देश बेचने वालों का नहीं है ||

शब्दों का हरिश्चंद्र   हूँ जयचंद नहीं हूँ |
 बेबाक कलमकार हूँ  अनुबंध नहीं हूँ |
दिल चाहता दूं नोंच गद्दारों का मुखौटा ,
अफ़सोस मगर इतना भी स्वछंद नहीं हूँ ||


कहता हूँ  सीधी  बात  कोई  शेर  नहीं है |
लफ्फाजी या  शब्दों का  हेरफेर  नहीं है |
दिल को कुरेद जाती है बच्चों की परवरिश ,
वरना निराला बनने में   कोई देर नहीं है||


अन्याय जो बर्दाश्त कभी  कर नहीं सकते  |
तलवार तोप से  भी  कभी डर नहीं सकते   |
हर दिल  में सदा  रहते  शूरवीर  की  तरह,
होतें हैं जो शहीद  कभी  मर  नहीं  सकते  ||


गुंडों का नहीं है ये दलालों का नहीं है |
डंडों का नहीं है ये हवालों का नहीं है |
यह देश है हमारे शहीदों की अमानत ,
यह देश ,देश बेचने वालों का नहीं है ||

Tuesday, August 17, 2010

ग़ज़ल

जीत कहूं या हार जिंदगी |
है कितनी दुश्वार ज़िन्दगी |
कभी कभी लगता था जैसे
है फूलों का हार ज़िन्दगी |
घूँट  हलाहल  के कह दूं , या-
कहूं सुधा की धार ज़िन्दगी |
ऊपर से तो खिली खिली ,पर -
भीतर  से पतझार  ज़िन्दगी |
कदम कदम पर कर बैठी है
संघर्षों से   प्यार ज़िन्दगी |
कभी वक़्त की शहजादी तो
कभी वक़्त की मार ज़िन्दगी |
मुड़ मुड़ कर करती रहती है
जीने   से  इन्कार  ज़िन्दगी |
जीना क्या मरना क्या उसका
मिली जिसे बीमार ज़िन्दगी |
शायद  इससे अच्छी  होगी
जीवन के  उस  पार ज़िन्दगी |

ग़ज़ल

गम खाना और आंसू पीना |
यही ज़िन्दगी यही है जीना |
पीर   पुरानी   घाव    पुराने
नित्य नयी साँसों से सीना  |
पीते   पीते    उम्र    गुजारी
आ न सका पीने का करीना |
बिखरी लट आँखों में दहशत
कहते हैं सब उसे हसीना |
लोग देश की बातें  करते
अमर शहीदों  का हक छीना|
श्वेतबसन चेहरे  ने  देखा
दर्पण को आ गया  पसीना  |
नागफनी हो गए आचरण
पल पल मरना पल पल जीना |

मुक्तक

तिल तिल जलाता हुआ दिया हूँ |
जाने कितना    तिमिर   पिया हूँ |
नियति   हमारी   अँधियारा ,पर -
कितने घर    उजियार    किया हूँ  |

वेदना     का     घर हूँ मै |
वज्र     से   बढ़कर     हूँ मै |
तुम भी इक ठोकर लगा दो ,
राह    का पत्थर   हूँ     मै |

निर्वासित सा जीवन मेरा
              एक अजनबी ,एक अपरिचित |
सन्नाटा ही साथी जिसका
              परम मित्र एकांत अपरिमित |
तम का हूँ अभ्यस्त
               उजाले से वंचित रहने दो |
गुमनाम मुझे रहने दो |


          

Sunday, August 15, 2010

आजाद देश के हैं जरा मुस्कुराइए

आप यूँ न रोइए आंसू बहाइये
आजाद देश के हैं जरा मुस्कुराइए
भुखमरी है देश में फैली तो क्या हुआ
सोने से भरी उनकी तिजोरी तो क्या हुआ
झोपड़ी है रोती बिलखती तो क्या हुआ
बंगलों में कैद देश की हस्ती तो क्या हुआ
गोरे गए तो कालों की खिदमत बजाइए
आजाद देश के हैं जरा मुस्कुराइए
देखो चोर -माफिया आजाद हैं यहाँ
भेड़ियों के झुण्ड ही आबाद हैं यहाँ
आज़ाद हुए  राजकाज देखने वाले
आजाद हैं वतन की लाज बेचने वाले
गद्दारों को अदब से जरा सर झुकाइए
आजाद देश के हैं जरा मुस्कुराइए