Thursday, October 7, 2010

कल मिली थी मुझसे मेरी कविता

हाँ मै सच कह रहा हूँ
क्या तुम मानोगे ? नहीं !
कोई नहीं मानेगा
मगर मैं सच कह रहा हूँ
कल मिली थी मुझसे -
मेरी कविता
हाँ हाँ मिली थी वह
जिसकी तलाश थी -
मुझे वर्षों से
शायद वह भी मुझे -
तलाश रही थी
हाँ-हाँ वही थी मेरी कविता
जन्मों-जन्मों की अतृप्त प्यास
काश वह पहले मिल जाती
इसी जन्म के -
शुरुवाती दिनों में
बस कुछ वर्षों पहले
पर ऐसा नहीं हुआ
क्योंकि यह नहीं होना था
कविता!  एक प्यास
सिर्फ और सिर्फ प्यास
गर बुझ गई तो-
प्यास    कैसी ?
हाँ वही प्यास
कल मिली मुझ से
नदी के दूसरे छोर की तरह
मैंने देखा उसे - देखता ही रहा
प्यास बढ़ी - बढ़ती गयी प्यास 
मुह मोड़ लिया मैंने 
लौट पड़ा उल्टे पांव 
अपनी प्यास में जीने के लिए 
क्योंकि मै समझ चुका था 
कि न कभी देखा गया 
न सुना गया 
नदी के दो किनारों को 
गले मिलते - 
आलिंगनवद्ध    होते ! 

       

7 comments:

  1. शुक्र है... कविता की शुरुआत से तो कुछ और ही लग रहा था... जैसे आप नदी में बस कूदने ही वाले हैं... अच्छा किया जो उल्टे पांव लौट आये वर्ना प्यास बुझ जाती.. नदी के पानी में डूबने से.. और हमें यह कविता पढने को नहीं मिल पाती..... लिखते रहिये

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  2. बेहद खूबसूरत अन्दाज़्।

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  3. वाह भाई क्या बात है .... बहुत सुन्दर भाव .... आभार

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  4. कल मिली मुझ से
    नदी के दूसरे छोर की तरह
    मैंने देखा उसे - देखता ही रहा
    प्यास बढ़ी - बढ़ती गयी प्यास
    मुह मोड़ लिया मैंने
    लौट पड़ा उल्टे पांव
    अपनी प्यास में जीने के लिए
    क्योंकि मै समझ चुका था
    कि न कभी देखा गया
    न सुना गया
    नदी के दो किनारों को
    गले मिलते -
    आलिंगनवद्ध होते !

    बहुत सुंदर भाव

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  5. बढ़िया भाव हैं रचना के ..अनूठा अंदाज.

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  6. कल मिली मुझसे
    नदी के दूसरे छोर की तरह

    वाह,...जवाब नहीं ,उत्तम कविता...बधाई।

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