Wednesday, October 27, 2010

पारस पत्थर

कल जब मिले थे हम-तुम
तुम पत्थर थी और मैं लोहा
तुमने छू लिया मुझे
मैं सोना बन गया और तुम-
पारस पत्थर
मैं अपनी चमक में गुम होता गया
और तुमने कई लोहे के टुकड़ों को-
बना दिया सोना अपने स्पर्श से
आज मैं सोचता हूँ कि
मेरा और तुम्हारा स्पर्श ही -
न हुआ होता तो अच्छा था
तुम पत्थर और मैं लोहा
कम से कम एक साथ 
खुरदरी जमीन पर पड़े-पड़े 
एक दूसरे को प्यार से 
एकटक देखते तो रहते  

6 comments:

  1. बहुत सुंदर और बहतरीन रचना...

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  2. उत्तम रचना....बेहतरीन भावों से सजी लाजवाब पंक्ति

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  3. oh! bahut hi lazabab rachna. dil ki ehsas ko sparsh karti hui.

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  4. 4/10

    औसत दर्जे की मौलिक रचना
    कुछ नया सा कहने की कोशिश की है किन्तु ठीक से पाठक के दिल तक नहीं पहुंचती

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