मैंने श्रीमतीजी से कहा -
प्राणप्यासे ! बसंत आ रहा है |
वह बोली ,"किसके घर जा रहा है ?
जहाँ जा रहा है- जाने दो
अपने घर मत बुलाना
बैठे-बिठाये मुसीबत मत लाना
परिवार में छः , मेहमान चार
इन्ही को बनाने-खिलाने में पस्त हूँ
ऊपर से तुम्हारे सिरफिरे कवियों -
के औचक आगमन से त्रस्त हूँ
आते ही जम जाते हैं
चार-चार कवितायेँ सुनाते हैं
वह भी मामूली नहीं
द्रौपदी के चीर जैसी -
लम्बी एक-एक होती है
सुर नहीं लय नहीं
यति नहीं गति नहीं
भाव नहीं बात नहीं
न जाने कौन सी कविता होती है
ऐसे में अगर बसंत भी -
घर आ गया तो
संतुलन और भी बिगड़ जायेगा
अगर कहीं वह भी कवि ठहरा
तो और तो और
परिवार संकट में पड़ जायेगा "
मैंने कहा ,"भागवान !
वह कोई कवि नहीं
बहारों का मौसम बसंत है
ऋतुओं का कंत है |"
वह बोली ,"क्या मुझे
समझ रक्खा है घोंघाबसंत ?
हा हन्त! तुम्ही हो मेरे -
तथाकथित पतिपरमेश्वर-कंत !
जिंदगी पतझार बन गयी है
गृहस्थी इसी में
रम गयी है
इसमें बदलाव की-
कोई सूरत नहीं है
पतझड़ के ठूंठ !
तुम्हारे रहते
मुझे किसी बसंत की -
जरूरत नहीं है |"
वाह ....जबर्दस्त्त.. गज़ब का प्रवाह है ..मजा आ गया पढकर.
ReplyDeleteबहुत ही खुबसुरत अभिव्यक्ति आपकी रचना का बेसब्री से इन्तजार रहता है।
ReplyDeleteसुन्दर लेखन...भाव भी अच्छे.
ReplyDeleteवसंत का तो पता नहीं पर आपकी कविता मुस्कान जरूर ले आती है ! बधाई !
ReplyDeleteपढकर दिल खुश हो गया .,वसंत को जहाँ जाना है जाने दीजिये
ReplyDeletelatest post झुमझुम कर तू बरस जा बादल।।(बाल कविता )
भावों की बहुत सुंदर प्रस्तुति,
ReplyDeleteआदरणीय.