Monday, October 11, 2010

पतझड़ के ठूंठ

मैंने श्रीमतीजी से कहा -
प्राणप्यासे ! बसंत आ रहा है |
वह बोली ,"किसके घर जा रहा है ?
जहाँ जा रहा है- जाने  दो
अपने घर मत बुलाना
बैठे-बिठाये मुसीबत मत लाना
परिवार में छः , मेहमान चार
इन्ही को बनाने-खिलाने में पस्त हूँ 
ऊपर से तुम्हारे सिरफिरे कवियों -
के औचक आगमन से त्रस्त हूँ 
आते ही जम जाते हैं 
चार-चार कवितायेँ सुनाते हैं 
वह भी मामूली नहीं 
द्रौपदी के चीर जैसी -
लम्बी एक-एक होती है 
सुर नहीं लय नहीं 
यति नहीं गति नहीं 
भाव नहीं बात नहीं 
न जाने कौन सी कविता होती है 
ऐसे में अगर बसंत भी -
घर आ गया तो 
संतुलन और भी बिगड़ जायेगा 
अगर कहीं वह भी कवि ठहरा 
तो और तो और 
परिवार संकट में पड़ जायेगा "
मैंने कहा ,"भागवान !
वह कोई कवि नहीं
बहारों का मौसम बसंत है
ऋतुओं का कंत है |"
वह बोली ,"क्या मुझे
समझ रक्खा है घोंघाबसंत ?
हा हन्त! तुम्ही हो मेरे -
तथाकथित पतिपरमेश्वर-कंत !
जिंदगी पतझार बन गयी है
गृहस्थी    इसी   में
रम     गयी है
इसमें बदलाव  की-
कोई    सूरत  नहीं   है
पतझड़ के ठूंठ !
तुम्हारे रहते
मुझे   किसी बसंत की -
जरूरत   नहीं   है |"


 

6 comments:

  1. वाह ....जबर्दस्त्त.. गज़ब का प्रवाह है ..मजा आ गया पढकर.

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  2. बहुत ही खुबसुरत अभिव्यक्ति आपकी रचना का बेसब्री से इन्तजार रहता है।

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  3. सुन्दर लेखन...भाव भी अच्छे.

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  4. वसंत का तो पता नहीं पर आपकी कविता मुस्कान जरूर ले आती है ! बधाई !

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  5. पढकर दिल खुश हो गया .,वसंत को जहाँ जाना है जाने दीजिये
    latest post झुमझुम कर तू बरस जा बादल।।(बाल कविता )

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  6. भावों की बहुत सुंदर प्रस्तुति,

    आदरणीय.

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