कैसे अपना गाँव बचे अब कैसे अपना देश ?
जुर्म दहेजी प्रथा कागजी बंधन दिया बनाय |
अख़बारों की सुर्खी देखो बहुएँ रहे जलाय |
लाखों में दूल्हों की बिक्री ऊपर से परहेज ?
कैसे अपना गाँव बचे अब कैसे अपना देश ?
नित्य निमंत्रण बाँट-बाँट वे करवाते हैं भोज |
घर के बच्चे भूँखों मरते मना रहे हम मौज |
घर की शांति खोजने जाते हैं हम रोज विदेश |
कैसे अपना गाँव बचे अब कैसे अपना देश ?
मद्यपान विषपान सरीखा कहता एक विभाग |
नित्य नयी ठेकी शराब की फ़ैल रही है आग |
आग लगाकर कुँवा खुदाते हैं काले अंग्रेज |
कैसे अपना गाँव बचे अब कैसे अपना देश ?
बालवर्ष में मरा भूख से सुरसतिया का लाल |
युवावर्ष में कटा रेल पर पढ़ा-लिखा धनलाल |
महिलावर्ष नदी में कूदी धनिया बिखरे केश |
कैसे अपना गाँव बचे अब कैसे अपना देश ?
इक्कीसवीं सदी का हल्ला- उन्नति करे मशीन |
शाही शिक्षानीति - अमीरी उच्चासन आसीन |
खड़ी गरीबी गाँव निगलती धरे भयंकर भेष |
कैसे अपना गाँव बचे अब कैसे अपने देश ?
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteगहरा चिंतन
... bahut sundar ... shaandaar-jaandaar !!
ReplyDelete.
ReplyDeleteखड़ी गरीबी गाँव निगलती धरे भयंकर भेष |
कैसे अपना गाँव बचे अब कैसे अपने देश ...
जिस तरह से लोग असंवेदनशील हो रहे हैं , लगता तो नहीं कोई उम्मीद है। सभी अपना हित देखते हैं। परहित और देश से सरोकार बहुत कम लोगों को है।
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wahwa....achhi rachna hai bhai....
ReplyDeleteझंझट जी, तमाम तरह के विद्वेष, पतन का कारण पैसे के पीछे अंधे होकर दौडना है, आपने अपनी इस शसक्त रचना से गंभीर विषय उठाया है..... अत्यंत ही सुन्दर रचना के लिए आपका साधुवाद.
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन ढंग से एक एक बात उठाई है समाज का जीता जगता चेहरा साफ दिख रहा है
ReplyDeleteपरहित और देश से सरोकार बहुत कम लोगों को है। आपने अपनी इस शसक्त रचना से गंभीर विषय उठाया है धन्यवाद|
ReplyDeleteaag lagaakar kunwan khodne ki bimaari abhi gayi nahi hai ...yahi to desh aur hamaare samaaz ka durbhaagy hai ...
ReplyDeleteसुरेन्द्र जी इस भौतिकवादी युग में किसे पड़ी है देश व समाज की। कौन ऐसा सोचता है। सब अपनी अपनी डफली बजाने में लगे हुए है। मैं घर में जब भी ऐसी बातें करता हुॅं तो कहा जाता है कि तुम्हारे सही होने से कुछ नही बदलने वाला। दुनिया जैसे चलती है वैसे ही चलती रहेगी।
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ReplyDelete"तुमने मेरी पत्नी की बेइज्जती की थी" नयी पोस्ट पर आपकी टिपण्णी की प्रतीक्षा रहेगी. "arvindjangid.blogspot.com"
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तमाम विसंगतियों के बीच-
ReplyDeleteकैसे अपना गाँव बचे अब कैसे अपने देश ?
अत्यन्त प्रभावकारी रचना .
खड़ी गरीबी गाँव निगलती धरे भयंकर भेष |
ReplyDeleteकैसे अपना गाँव बचे अब कैसे अपने देश .
bahut sundar badhai
बहुत सुन्दर , मर्मस्पर्शी और यथार्थ से ओत-प्रोत रचना बधाई।
ReplyDeleteसुरेन्द्र सिंह " झंझट जी
ReplyDeleteनमस्कार !
......एक अच्छी और सामयिक प्रस्तुति ! बधाई
"खड़ी गरीबी गाँव निगलती धरे भयंकर भेष |
ReplyDeleteकैसे अपना गाँव बचे अब कैसे अपने देश ?"
बहुत सुन्दर रचना
समाज का चेहरा साफ दिख रहा है
बधाई
हर दोहे में आज के दौर की टूटती मान्यतायों का दर्द छुपा है !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लिखा है आपने !
_ज्ञानचंद मर्मज्ञ
जीवन के इन्हीं दुहरावों के कारण कहा गयाः
ReplyDeleteहीरा जनम अमोल था,कौड़ी बदले जाए.....
गीत सुन्दर है, बहुत सुन्दर है.
ReplyDeletevery well written Surendra ji...bahut khoob
ReplyDeleteविचारणीय पोस्ट...
ReplyDeleteपढने वाले को चिंताग्रस्त कर दिया आपने...
bahut achchi rachna hai aisi hi aur rachnaye likhe
ReplyDeletevyangya se paripurn....is padhya ke lie aapko hardik badhaayi....balle-balle...!
ReplyDeleteआदत.......मुस्कुराने पर
ReplyDeleteकिस बात का गुनाहगार हूँ मैं....संजय भास्कर
नई पोस्ट पर आपका स्वागत है
mazaa aa gayaa jhanjhat bhaai.....kavita jo aapne avdhi kee sunaayi....!!
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