क्यों उलझें हम शब्दजाल में |
सुलझे-अनसुलझे सवाल में |
सागर की लहरों पर चढ़कर ,
चल पानी सा बहते जाएँ | जो कहना है कहते जाएँ
आग लगी है नंदन वन में |
ताप-ताप हर घर आँगन में |
जलते जीवन की बेला में ,
कैसे राग मल्हार सुनाएँ | गर दहना है दहते जाएँ
फूलों में तेज़ाब भरा है |
फिर भी उपवन हरा-भरा है |
भँवरों की साजिश में फँसती ,
तितली को कैसे समझाएँ | सिर धुनना है धुनते जाएँ
सूनी माँग दर्द ढोती है |
सुन्दरता बेबस रोती है |
चेहरे पर मरुथल फैला है ,
फिर कैसे श्रृंगार सजाएँ | बहते नैना बहते जाएँ
भावों का पंछी बेपर है |
और कल्पना भी बेघर है |
शब्द हो गए गूंगे-बहरे ,
कैसे कोई गीत सुनाएँ | जो सहना है सहते जाएँ
क्यों उलझें हम शब्दजाल में |
ReplyDeleteसुलझे-अनसुलझे सवाल में |
surendra ji sundar panktiyan
आग लगी है नंदन वन में |
ReplyDeleteताप-ताप हर घर आँगन में |
जलते जीवन की बेला में ,
कैसे राग मल्हार सुनाएँ | गर दहना है दहते जाएँ
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जीवन सन्दर्भ का अच्छा खासा नमूना खिंचा है आपने शब्दों के माध्यम से ...आपकी कविता का कोई जबाब नहीं ..अपनी लेखनी को यूँ ही हमेशा गतिशील रखें ..आपका आभार
"भावों का पंछी बेपर है |
ReplyDeleteऔर कल्पना भी बेघर है |
शब्द हो गए गूंगे-बहरे
कैसे कोई गीत सुनाएँ |
जो सहना है सहते जाएँ "
बहुत खूब
बहुत सुन्दर रचना
आपको बधाई
आभार
nice
ReplyDelete... behatreen !!
ReplyDeleteउत्तम प्रस्तुति...
ReplyDeleteसुन्दर सुन्दर सुन्दर
ReplyDeleteसुरेन्द्र सिंह जी....
ReplyDeleteक्या ख़ूब लिखा है! बेहद उम्दा प्रस्तुति!
आभार।
सुरेन्द्र सिंह जी....
ReplyDeleteक्या ख़ूब लिखा है! बेहद उम्दा प्रस्तुति!
आभार।
बेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteभावों का पंछी बेपर है |
ReplyDeleteऔर कल्पना भी बेघर है |
शब्द हो गए गूंगे-बहरे,
कैसे कोई गीत सुनाएँ | जो सहना है सहते जाएँ
बहुत खूब !
बेहद उम्दा प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपको और आपके परिवार को मकर संक्रांति के पर्व की ढेरों शुभकामनाएँ !"
भाषा और कहन पर काफ़ी अच्छी पकड़ है सुरेंद्र भाई, बधाई|
ReplyDeleteक्यों उलझें हम शब्दजाल में |
ReplyDeleteसुलझे-अनसुलझे सवाल में |
सागर की लहरों पर चढ़कर ,
चल पानी सा बहते जाएँ |
जो कहना है कहते जाएँ
काफी खुबसुरत एहसास भरे है आपने शब्दों के द्वारा। धन्यवाद।
फूलों में तेज़ाब भरा है ,
ReplyDeleteफिर भी उपवन हरा-भरा है ।
भँवरों की साजिश में फँसती,
तितली को कैसे समझाएँ ।
वाह, क्या बात है।
सुंदर बिम्बों से सजा एक उत्तम गीत लिखा है आपने।
पढ़कर मन मुग्ध हुआ।
ACCHI RACHNA.... WITH ''KEEP GOING'' SPIRIT
ReplyDeleteवाह! पहले अंतरे ने ही मन मे जादू सा कर दिया रचना के प्रति! बहुत ही रिदम मे और बहुत-बहुत ही सुन्दर रचना. इस विश्वश रचना के लिए सच मे आभार प्रतुस्ती के लिए.
ReplyDelete-
सागर by AMIT K SAGAR
फूलों में तेज़ाब भरा है |
ReplyDeleteफिर भी उपवन हरा-भरा है |
भँवरों की साजिश में फँसती ,
तितली को कैसे समझाएँ
behad sundar....
क्यों उलझें हम शब्दजाल में |
ReplyDeleteसुलझे-अनसुलझे सवाल में |
सागर की लहरों पर चढ़कर ,
चल पानी सा बहते जाएँ ...
....वाह, क्या बात है...बेहद उम्दा प्रस्तुति.
सुन्दरता बेबस रोती है |
चेहरे पर मरुथल फैला है ,
फिर कैसे श्रृंगार सजाएँ....
आपका आभार ....
सुन्दर गीत.
ReplyDeleteआग लगी है नंदन वन में |
ReplyDeleteताप-ताप हर घर आँगन में |
जलते जीवन की बेला में ,
कैसे राग मल्हार सुनाएँ ..
BAHUT KHOOB ... SACH KAHA HAI JAB GHAR JAL RAHA HOTA HAI TAB RAAG MALHAAR GAANA AASAAN NAHI HOTA ... DESH KE BHI AAJKAL YAHI HAALAAT HAIN ...
फूलों में तेज़ाब भरा है |
ReplyDeleteफिर भी उपवन हरा-भरा है |
भँवरों की साजिश में फँसती ,
तितली को कैसे समझाएँ
भाई झंझट जी,
बड़ी तेज कलम है आपकी !
सुन्दर गीत के लिए धन्यवाद !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
फूलों में तेज़ाब भरा है |
ReplyDeleteफिर भी उपवन हरा-भरा है |
भँवरों की साजिश में फँसती ,
तितली को कैसे समझाएँ | सिर धुनना है धुनते जाएँ
इस अप्रतिम रचना के लिए मेरी बधाई
आपकी सहनशीलता से भाव-पंछी को पर, कल्पना को घर और शब्दों को मधुर ध्वनि मिली है.
ReplyDeletesurendra ji..behadd umda ..bahut sunder..
ReplyDeleteभावों का पंछी बेपर है |
और कल्पना भी बेघर है |
शब्द हो गए गूंगे-बहरे ,
कैसे कोई गीत सुनाएँ | जो सहना है सहते जाएँ
wah kya baat kahi hai..bahut koob.
ReplyDeleteफूलों में तेज़ाब भरा है ,
फिर भी उपवन हरा-भरा है ।
भँवरों की साजिश में फँसती,
तितली को कैसे समझाएँ ।
शब्दों का सच बुनते जायें।
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