Wednesday, July 11, 2012

          पावस के दोहे 
 
वर्षा ऋतु   मनभावनी, आइ    गयी    रसधार |
ताप दग्ध धरती पड़ी, अमृत    की    बौछार |
 
वन उपवन थे जल रहे, दुसह ताप की मार |
वर्षा ने   शीतल   किया, तन मन छुवे बयार |
 
दादुर   धुनि    मनभावनी, टर-टर करत पुकार |
झन झन झन जियरा हरै, झिल्ली की झनकार  |
 
गोरी    भीगे     द्वार    पर, उर   उमगा   अनुराग |
तन मन व्याकुल पीव बिन, जरै   विरह की  आग |

14 comments:

  1. भई वाह, बहुत सुंदर सुरेंद्र जी.

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  2. बहुत सुन्दर मौसमी दोहे ..वाह

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  3. बहुत सुंदर सुरेंद्रजी

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  4. भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने.....

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  5. बारिश के मौसम का बहुत प्रभावशाली और सुंदर वर्णन !

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  6. बहुत ही सुन्दर सुरेन्द्र जी...काफी दिनों बाद आपसे मिलने का मौका मिला. आभार

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  7. वन उपवन थे जल रहे, दुसह ताप की मार |
    वर्षा ने शीतल किया, तन मन छुवे बयार ..

    बरखा के आगमन को सुंदरता से छंदों में कैद किया है ...

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  8. झन झन झन जियरा हरै, झिल्ली की झनकार...jhan jhan ne jhanjhana diya..barish kee rimjhim fuharon me aapki kavita kee fuhaarein..anand aa gaya..sadar badhayye aaur sadar amantran ke sath

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  9. बधाई एक सुंदर रचना के लिए ...

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  10. .

    गोरी भीगे द्वार पर, उर उमगा अनुराग |
    तन मन व्याकुल पीव बिन, जरै विरह की आग |


    क्या बात है ! क्या बात है ! बहुत सुंदर दोहे

    …मगर आप आजकल हैं कहां ?
    आशा है , ईश्वर-कृपा से घर-परिवार में कुशल-मंगल होगा …
    आप सपरिवार स्वस्थ-सानंद होंगे …

    मंगलकामनाओं सहित …

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  11. बहुत दिनों से कुछ लिखा क्यों नहीं ...??

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  12. बहुत सार्थक प्रस्तुति आपकी अगली पोस्ट का भी हमें इंतजार रहेगा महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाये

    आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
    अर्ज सुनिये

    कृपया आप मेरे ब्लाग कभी अनुसरण करे

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